प्रयागराज में महाकुंभ 2025 का दिव्य और भव्य आयोजन जारी है, जहां अब तक 29.64 करोड़ से अधिक श्रद्धालु पावन त्रिवेणी में आस्था की डुबकी लगा चुके हैं। लेकिन हिंदू संस्कृति और परंपराओं पर सवाल उठाने वाली वामी-कौमी गैंग को यह भी रास नहीं आया। इनकी नफरत इतनी गहरी है कि महाकुंभ में गंगा स्नान करने वाले श्रद्धालुओं पर तंज कसते हुए कहा गया कि “गंगा में केवल पापी नहाने जाते हैं।” लेकिन दोहरे चेहरे का आलम देखिए—कुछ ही दिन बाद यही लोग खुद महाकुंभ में गंगा स्नान करते नजर आए। इन्हीं के कुछ चेलों ने तो यहां तक कह दिया कि अगर गंगा में नहाने से पाप धुल जाते हैं, तो पाप करके गंगा में नहा कर पवित्र हो जाना ही पर्याप्त होगा! तो फिर कर्म सिद्धांत का क्या होगा? आइए, आज के इस लेख में महाकुंभ और कर्म सिद्धांत को विस्तार से समझते हैं।
महाकुंभ और कर्म सिद्धांत
महाकुंभ विश्व का सर्वश्रेष्ठ सांस्कृतिक महोत्सव है। भारत की वैविध्य विरासत का आध्यात्मिक संगम महाकुंभ महोत्सव में परिलक्षित होता है। किसी भी राष्ट्र की अस्मिता उसकी सांस्कृतिक विरासत की उत्कृष्ट भावों के आधार पर निर्धारित होती है। विश्व के प्राचीन सभ्यताओं में अपनी मूल सांस्कृतिक पहचान के साथ बहुत कम ही अस्तित्व में रह सकी हैं।
सामान्यतः भारत के संदर्भ में कहा जाता है कि भारत विश्व का सबसे युवा राष्ट्र है। वस्तुत: यह अर्धसत्य है। संपूर्ण सत्य यह है कि भारत विश्व का सबसे युवा और सबसे प्राचीन जीवंत संस्कृति तथा सभ्यता वाला राष्ट्र है। प्रश्न है कि भारत सबसे प्राचीन सभ्यता अपने जीवंत स्वरूप में किस कारण से अस्तित्ववान है? विश्व की समस्त प्राचीन सभ्यताएं जिनमें चीन की सभ्यता, मेसोपोटामिया की सभ्यता, बेबोलोनियन सभ्यता, मिश्र की सभ्यता, ग्रीस की सभ्यता, अमेरिका और लैटिन अमेरिका की सभ्यता, इका माया की सभ्यता इत्यादि अपने मूल स्वरूप से नष्ट हो चुकी हैं सिवाय भारत की सभ्यता के।
इसी को ध्यान रखते हुए इकबाल ने लिखा –
यूनान, मिस्र, रोमा सब मिट गए यहां से,
बाकी मगर अभी तलक है नामों निशां हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।।
यदि हम इन तथ्यों को ध्यान से देखें तो कुछ बात जिसके कारण हमारी संस्कृति अपनी अक्षुण्ण धारा को प्राप्त होती हुई प्रवाहमान है, वह कुछ बात इसकी सर्वसमावेशी वैचारिक दृष्टि है। पश्चिमी जगत में विकास का मान्य सिद्धान डार्विन की सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट का सिद्धांत है जो एक वैज्ञानिक समुदाय द्वारा स्वीकृति सिद्धांत है। अब यदि संस्कृति के पैमाने पर इस सिद्धांत को अपनाया जाए तो भारत की संस्कृति इस विश्व की सर्वश्रेष्ठ विकसित संस्कृति है जो यह उद्घोष करती है कि ज्ञात सभ्यताओं में फिटेस्ट की अवधारणा यह सबसे उत्तम है। इस विराट सांस्कृतिक भाव को भारत के दार्शनिकों ने अपनी साक्षात् अनुभूति के द्वारा निरन्तर पुष्ट किया है। इस दर्शन में कर्म और कृपा का अनुपम समन्वय है। इसका प्रमाण पृथ्वी पर ज्ञात और लिखित सर्वप्रचीन साहित्य वैदिक साहित्य भी हैं जहां ऋषि अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वहन करता हुआ सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति श्रद्धान्वत है और कर्म और कृपा के समन्वय से अपने ज्व्वन का भौतिक तथा आध्यात्मिक उत्कर्ष चाहता है। इसी की झलक भगवद्गीता में दिखाई पड़ती है।
गीता के 18वें अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि किसी कार्य के सम्यक सम्पादन हेतु 5 चीजें आवश्यक होती हैं-
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥18/14॥
अर्थात किसी कार्य के सम्पादन के लिए 5 आवश्यक कारक – शरीर, कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ और विधि का विधान अर्थात भगवान इच्छा हैं। यह श्लोक कर्म और भाग्य का अनुपम समन्वय प्रस्तुत करता है। कुम्भ में स्नान और गंगा स्नान के संबंध में एक प्रचलित धारणा है कि गंगा स्नान से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस संकल्पना के विरोध में लोगों का कहना है कि यदि गंगा स्नान से सारे पाप धूल जाते हैं तो कोई भी किसी प्रकार का पाप करके गंगा स्नान कर लेगा और उसको सभी पापों से मुक्ति मिल जाएगी। यदि ऐसा है तो कर्म सिद्धान्त जिसका मूलभूत सिद्धान्त है कि किए गए कर्म का फल भोगना ही पड़ता है, का क्या महत्व रह जाएगा? इस संबंध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है जो गंगा स्नान से मुक्ति को स्पष्ट करती है-
एक बार पार्वती जी ने देखा कि गंगा में स्नान करने वाले लोग दुखी और पाप परायण हैं, तो उन्हें यह संदेह हुआ कि गंगा में स्नान से पाप क्यों नहीं धुल रहे? शिवजी ने इसका उत्तर दिया कि गंगा में स्नान करने से पाप जरूर धुलते हैं, लेकिन जो लोग बिना श्रद्धा और विश्वास के इसे करते हैं, उन्हें इसका वास्तविक लाभ नहीं मिलता। शिवजी ने इस बात को समझाने के लिए एक लीला की, जिसमें वे वृद्ध रूप धारण कर गड्ढे में गिर गए। उन्होने पार्वती जी से कहा कि गंगा स्नान करके वापस आते हुये लोगों से उन्हे बाहर निकालने के लिए आग्रह करो। शिव जी कि बात सुनकर पार्वती जी ने लोगों से कहा कि केवल निष्पाप व्यक्ति ही शिवजी को गड्ढे से निकाल सकता है। यदि कोई पापी उन्हें गड्ढे से बाहर निकालता है तो वह स्वयं भी उसी अवस्था को प्राप्त हो जाएगा।
हजारों लोग गंगा स्नान करके वहां से गए, लेकिन कोई भी शिवजी को गड्ढे से निकालने का साहस नहीं कर पाया, क्योंकि वे जानते थे कि गंगा में स्नान करने के बावजूद, वे स्वयं पापी हैं। अंत में एक युवक बिना किसी संकोच के, अपनी निष्पापता का विश्वास रखते हुए शिवजी को गड्ढे से बाहर निकाला। जब उन्होने उस व्यक्ति से पूछा कि उसे डर नहीं लगा तो उसने अपनी दृढ़ आस्था से कहा कि गंगा मे स्नान करते हुये उसने दृढ़व्रत लिया है कि आगे कोई भी पापयुक्त कर्म नहीं करेगा और उसे दृढ़ आस्था है कि उसके पुराने पापों को गंगा ने समाप्त कर दिया होगा। इस कथा का संदेश यह है कि गंगा स्नान या कोई भी धार्मिक कार्य तब ही लाभकारी होता है, जब उसे श्रद्धा और विश्वास के साथ किया जाए। बिना आंतरिक शुद्धता और सही मानसिकता के किए गए कर्म केवल बाहरी दिखावा रहते हैं। इस तरह, श्रद्धा और विश्वास के साथ किया गया साधन ही व्यक्ति को वास्तविक फल और मोक्ष की ओर ले जाता है। यह कहानी संदेश देती है कि गंगा स्नान अपने दृढ़व्रत को पुष्ट करने का माध्यम है जिससे कि अब सदैव ही सत्कर्म ही जीवन का आदर्श हो सके।
इसी लिए कहा गया है –
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥
श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते। महाभारत के एक प्रसंग में मार्कंडेय ऋषि धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि प्रयाग तीर्थ सभी पापों को समाप्त करने वाला है। मार्कंडेय ऋषि के अनुसार, जो भी व्यक्ति प्रयाग में एक महीने तक इंद्रियों को नियंत्रित करते हुए स्नान, ध्यान और कल्पवास करता है, उसके लिए स्वर्ग की प्राप्ति सुनिश्चित हो जाती है। यह अर्थ है कि प्रयाग में तप, साधना और ध्यान द्वारा पापों का नाश होता है और व्यक्ति का पुण्य बढ़ता है।
क्या गंगा में नहाने से धुलते हैं पाप
एक पौराणिक कथा के अनुसार पाप और पुण्य की प्रक्रिया केवल बाहरी कर्मों से नहीं, बल्कि आंतरिक मानसिकता और श्रद्धा से जुड़ी होती है। कथा के अनुसार, जब ऋषि ने गंगाजी से पूछा कि क्या उनके द्वारा बहाए गए पाप उनका भार बढ़ाते हैं, तो गंगाजी ने बताया कि वह पापों को लेकर समुद्र में समर्पित कर देती हैं। फिर समुद्र ने बताया कि वह इन पापों को वाष्पित करके बादलों में बदल देता है, और बादल भी इन पापों को जल में बदलकर पृथ्वी पर छोड़ देते हैं, जो फिर भोजन पैदा करने में मदद करता है। यह कथा यह संकेत देती है कि हर व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता। यह दर्शाता है कि पाप का असली नाश तब होता है जब व्यक्ति अपनी मानसिकता को शुद्ध करता है और सत्संग, साधना और सही जीवनशैली अपनाता है। पापों के नाश के लिए मन को शुद्ध करने और सही मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है, जो सत्संग से मिलता है। आत्मशुद्धि, सत्य, और श्रद्धा के साथ किए गए कर्म ही व्यक्ति को वास्तविक मोक्ष की ओर ले जाते हैं। देवता, वेद, गुरु, मंत्र, तीर्थ, औषधि और संत—इन सभी का सही लाभ केवल श्रद्धा और विश्वास से ही मिलता है, न कि केवल तर्क से।
इस प्रकार गंगा स्नान का पुण्य उसके व्रत में है जहां पर डुबकी लगाता हुआ व्यक्ति यह संकल्प ले कि आगे से वह अपने जीवन में सत्कर्म से युक्त जीवन को अंगीकार करेगा। गंगा स्नान एक प्रकार से उसके इस दृढ़ संकल्प कि साक्षी हैं। यदि यह धारणा वह अपने मन में रखे तो निश्चित ही उसका इहलौकिक और परमार्थिक उत्थान हो सकेगा। इस प्रकार गंगा स्नान कर्मयोग के संकल्प का आह्वान है। कर्मयोग जिसके संबंध में स्वामी विवेकानंद कहते हैं – “आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो परम शान्ति एवं निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म का, तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल की शान्ति एवं निस्तब्धता का अनुभव करते हैं। उन्होंने संयम का रहस्य जान लिया है–अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके हैं। किसी बड़े शहर की भरी हुई सड़कों के बीच से जाने पर भी उनका मन उसी प्रकार शान्त रहता है, मानो वे किसी नि:शब्द गुफा में हों, और फिर भी उनका मन सारे समय कर्म में तीव्र रूप से लगा रहता है। यही कर्मयोग का आदर्श है, और यदि तुमने यह प्राप्त कर लिया है, तो तुम्हें वास्तव में कर्म का रहस्य ज्ञात हो गया।” (विवेकानंद, स्वामी, कर्म का चरित्र पर प्रभाव)
दृढ़व्रत से सत्कर्म कारते हुये ही नैतिकता के सर्वोच्च मानदंड का साक्षात्कार किया जा सकता है। यही सर्वोच्च स्थिति सच्चिदानंद कि स्थिति है। यह विकास क्रम धीमा होता है पर निरंतर कर्म करते हुये इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसी को ध्यान रखते हुये रश्मिरथी में रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं –
धीमी कितनी गति है, विकास कितना अदृश्य हो चलता है।
इस महावृक्ष में एक पत्र, सदियों के बाद निकलता है ।।