19 दिसंबर 1927 का दिन था इलाहाबाद जेल में बंद एक स्वतंत्रता सेनानी रोज की तरह सुबह उठकर गीता का पाठ करने के बाद कसरत कर रहा था। इतन में ही एक संतरी उधर से गुज़रा तो उसने क्रांतिकारी से पूछा, “आपको तो थोड़ी देर में फांसी दी जाएगी, आप कसरत क्यों कर रहे हैं?” इस पर क्रांतिकारी ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा, “जिस वक्त के लिए जो काम तय हो उसे ज़रूर करना चाहिए। जब फांसी का वक्त आएगा उसे भी कर लेंगे, अभी तो कसरत का वक्त है।” फांसी की बात सुनकर अच्छे-अच्छे लोगों के मन में जहां भय आ जाता था, वहीं उस क्रांतिकारी की यह बेपरवाही देखकर वह संतरी भी सकते में पड़ गया था। फांसी से कुछ देर पहले मुस्कुरा रहे यह क्रांतिकारी ठाकुर रोशन सिंह थे।
माता-पिता ने बोए क्रांति के बीज
रोशन सिंह का जन्म 22 जनवरी को 1892 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के नवादा गांव में हुआ था। बचपन से ही उनके माता-पिता कौशल्या देवी और जंगी सिंह ने रोशन के मन में राष्ट्रवाद का बीज बो दिया था। प्रबल राष्ट्रवादी रोशन बचपन से ही तलवारबाज़ी, लाठी चलाने और बंदूक से निशाना लगाने में प्रवीण थे। व्यायाम करने से उनके बेहद प्यार था और वे कुश्ती भी किया करते थे। हिंदी, उर्दू के अच्छे जानकार रोशन सिंह ने जेल में जाकर बांग्ला और अंग्रेज़ी भी सीख ली थी।
असहयोग आंदोलन और जेल की सज़ा
1920-21 में जब महात्मा गांधी ने अंग्रेज़ों के खिलाफ असहयोग आंदोलन का एलान किया था तो देश भर में लोग उसमें कूद पड़े थे। देश में अलग-अलग जगहों पर अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ प्रदर्शन किए जा रहे थे और ठाकुर रोशन सिंह के नेतृत्व में शहाजहांपुर से बरेली भी एक दल प्रदर्शन करने पहुंचा गया था। बरेली में उन्हें कुतुबखाने पहुंचना था और पुलिस ने उस इलाके में धारा 144 लगा दी थी। सिर पर लाल साफा बांधे पुलिसकर्मी लाठी लिए वहां पहरा दे रहे थे। ठाकुर रोशन के नेतृत्व में लोगों को रोकने के लिए पुलिस ने गोलियां चलाईं और रोशन सिंह समेत अन्य प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया।
इस मामले में जहां उनके साथियों को 6 महीने की सज़ा हुई वहीं रोशन सिंह को दो वर्ष तक जेल में भेज दिया गया था। जेल में रोशन सिंह के साथ बहुत अमानवीय व्यवहार किया गया था। करीब 1 वर्ष तक उन्होंने वहां चक्की पीसी और जेलर ने भी वहां बहुत कठोर व्यवहार किया था। इस व्यवहार के बाद से वे इतने नाराज़ हो गए कि उन्होंने अपने साथ हुई इस क्रूरता का बदला लेने की कसम खाई थी।
जब रोशन सिंह ने डाली डकैती
जेल से रिहा होने के बाद क्रांतिकारी रोशन सिंह की मुलाकात पंडित राम प्रसाद बिस्मिल से हुई और वे 1924 में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) से जुड़ गए। एचएसआरए में उस दौरान बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी जैसे कई अन्य क्रांतिकारी शामिल थे। क्रांतिकारियों को अंग्रेज़ों से लड़ाई के लिए हथियारों की ज़रूरत थी तो उन्होंने अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर एक डकैती की योजना बनाई थी।
उन्होंने पीलीभीत के बमरौली में एक सूदखोर व्यापारी के यहां डाका डाल दिया और उन्हें करीब 4,000 रुपए और सोना-चांदी मिला था। इस डकैती के दौरान उन्होंने एक पहलवान की गोली मारकर हत्या कर दी थी जिससे वे अंग्रेज़ों की नज़र में आ गए थे। हालांकि, इस कांड में पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी थी।
काकोरी रेल एक्शन में फांसी की सज़ा
डकैती के बाद रोशन सिंह अंग्रेज़ों की नज़र में आ गए थे और उन्हें पकड़ने के प्रयास किए जा रहे थे। उसी समय काकोरी रेल एक्शन हुआ और रोशन सिंह को इस मामले में पकड़ लिया गया था। बताया जाता है कि रोशन सिंह एक अन्य क्रांतिकारी केशव चक्रवर्ती की तरह दिखते थे। केशव चक्रवर्ती काकोरी रेल एक्शन में शामिल थे जिसके चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था।
कहते हैं कि अंग्रेज़ों ने बमरौली कांड का बदला लेने के लिए उन्हें फांसी की सज़ा दिलाने पर पूरा ज़ोर लगा दिया था। रोशन सिंह ने न्यायाधीश को समझाने की कोशिश भी लेकिन उनके सभी तर्कों को खारिज कर दिया गया था। इसके बाद रोशन सिंह को रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खान और राजेंद्र नाथ लाहिड़ी के साथ मौत की सज़ा सुना दी गई।
‘मेरी मौत खुशी की वजह होगी’
रोशन सिंह को 19 दिसंबर 1927 को फांसी होनी थी लेकिन इससे पहले 13 दिसंबर को उन्होंने अपने पौत्र जगदीश सिंह को एक पत्र लिखा था। इस पत्र में रोशन सिंह ने लिखा था, “इस सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपको मुहब्बत का बदला दे। आप मेरे लिए हरगिज न दुख करें। मेरी मौत खुशी की वजह होगी। दुनिया मे पैदा होकर मरना ज़रूर है। दुनिया मे वदफैल (गलत काम) करके मनुष्य अपने को बदनाम न करे और मरते वक्त ईश्वर की याद रहे, यही दो बाते होनी चाहिए और ईश्वर की कृपा से मेरे साथ ये दोनो बाते है। इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस के लायक नहीं है।”
वे आगे लिखते हैं, “दो साल से मैं बाल-बच्चों से अलग हूँ। इस बीच ईश्वर-भजन का खूब मौका मिला। इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी नहीं रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्टमयी यात्रा समाप्त करके, मैं अब आराम की ज़िंदगी के लिए जा रहा हूँ। हमारे शास्त्रों मे लिखा है कि जो आदमी धर्म-युद्ध मे प्राण देता है उस की वही गति होती है जो जंगल मे रहकर तपस्या करने वालो की। जिंदगी ज़िंदा दिली को जान ऐ रोशन, वरना कितने मरते और पैदा होते रहते है।”
‘ॐ’ कहकर फांसी के फंदे को चूमा
चारों क्रांतिकारी तय तारीख से पहले जेल से गायब ना हो जाएं इससे ब्रिटिश सरकार डरी हुई थी और राजेंद्र लाहिड़ी को 17 दिसंबर को ही फांसी दे दी गई थी। वहीं, बिस्मिल, अशफाक और रोशन सिंह को 19 दिसंबर को फांसी दी गई। जब रोशन को फांसी के लिए ले जाने को अफसर आए तो उनके चेहरे पर मुस्कुराहट तैर रही थी। भारत माता का यह वीर सपूत हाथ में गीता लेकर चल दिया तेज़ आवाज़ में वंदेमातरम् का उद्घोष करता रहा। रोशन ने तीन बार ‘ॐ’ कहकर फांसी के फंदे को चूम लिया सदा के लिए ईश्वर में लीन हो गए।