यह तथाकथित मुख्यधारा की सेक्युलर मीडिया न तो निष्पक्ष है और न ही धर्मनिरपेक्ष। असल में यह एक विशेष वर्ग के कट्टरपंथी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सेक्युलरिज्म का ढोंग रचती है। आपने अक्सर देखा होगा कि कैसे ये मीडिया संस्थान अपराधी मौलवियों को बचाने के लिए उन्हें तांत्रिक बताकर पेश करते हैं और तथ्य तोड़-मरोड़कर परोसते हैं। जब पूरा पेड़ ही ज़हरीली सोच से सींचा जाए, तो उसके फल भी ज़हरीले ही होंगे और ऐसे ही एक ज़हरीले फल का नाम है कविश अज़ीज़(Kavish Aziz)।
कविश अज़ीज़(Kavish Aziz) सिर्फ़ एक नाम भर नहीं है—बल्कि यह उस सोच का प्रतीक है जिसने पत्रकारिता जैसे पेशे को अपने कट्टर विचारों का माध्यम बना डाला। आपको जानकर हैरानी होगी कि कविश उन मीडिया संस्थानों का हिस्सा रह चुकी हैं, जिन्हें देश की जनता निष्पक्ष और विश्वसनीय मानती है। जी हाँ, अमर उजाला और दैनिक भास्कर जैसे प्रतिष्ठित अख़बारों ने कभी इस व्यक्ति को अपने मंच पर स्थान दिया था। सोचिए, जब ऐसे व्यक्ति संपादकीय कक्ष में बैठते हैं, तो उनकी कलम से निकले शब्द किस दिशा में जाते होंगे? यह संयोग नहीं है कि इन्हीं अख़बारों में हिंदू मान्यताओं को अपमानित करने और इस्लामिक कट्टरपंथ को बचाने वाली खबरें बार-बार देखने को मिलती थीं। जब पत्रकारिता के नाम पर ऐसी विषैली सोच अपनी जड़ें जमा लेती है, तो समाज में जहर घुलना तय है।
अगर आप कविश अज़ीज़(Kavish Aziz)का X हैंडल देख लें, तो उसकी सोच किसी पत्रकार की नहीं, बल्कि इस्लामिक कट्टरपंथी प्रचारक की लगेगी। हाल ही में इसने भारतीय इतिहास के महानायक, हिंदू हृदय सम्राट छत्रपति संभाजी महाराज ‘छावा'(Chhaava) के लिए अपमानजनक शब्द कहे और सैकड़ों मंदिरों के विध्वंसक औरंगज़ेब का महिमामंडन करने की कोशिश की। सवाल उठता है—क्या यही है भारतीय मीडिया का असली चेहरा? क्या अमर उजाला और दैनिक भास्कर जैसे संस्थानों में अब भी ऐसे लोगों की घुसपैठ बनी हुई है?
यह सिर्फ़ सोशल मीडिया तक सीमित बात नहीं है। अगर आज ये तथाकथित पत्रकार खुलेआम हिंदू महापुरुषों का अपमान कर रहे हैं, तो सोचिए कि जब ये मुख्यधारा मीडिया में काम करते थे, तब उनके लेख और रिपोर्ट कितने पक्षपातपूर्ण रहे होंगे। यह मामला सिर्फ़ एक व्यक्ति का नहीं है—बल्कि यह उस पूरी ब्रिगेड की सोच का प्रतिबिंब है, जो सेक्युलरिज्म की आड़ में हिंदू धर्म और संस्कृति पर प्रहार करती आई है।
Kavish Aziz का विवादित ट्वीट
हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘छावा'(Chhaava) ने देशभर के सिनेमाघरों में धूम मचाई है। यह फ़िल्म हिंदू वीर योद्धा छत्रपति संभाजी महाराज के अदम्य साहस और बलिदान की कहानी बयां करती है। फ़िल्म के एक दृश्य में मुगल आक्रांता औरंगज़ेब द्वारा महाराज को दी गई अमानवीय यातनाएं दिखाई गई हैं—जहाँ उनके शरीर को लहूलुहान करने के बाद घावों पर नमक रगड़ा जाता है, नाखून नोचे जाते हैं और अंत में लोहे की सरिया डालकर उनकी आँखें निकाल ली जाती हैं। यह दृश्य हर हिंदू हृदय को व्यथित कर देता है।
कविश अज़ीज़(Kavish Aziz) ने इस मार्मिक दृश्य पर ट्वीट करते हुए लहूलुहान छत्रपति संभाजी महाराज को “आर्ट” और अत्याचारी औरंगज़ेब को “आर्टिस्ट” कह डाला। ज़रा सोचिए—जिस आक्रमणकारी ने भारत की संस्कृति और सनातन परंपरा को नष्ट करने के लिए हजारों मंदिरों को ध्वस्त किया, संतों का सरेआम नरसंघार किया और हिंदू राजाओं पर अत्याचार किए, उसका इस तरह महिमामंडन करना किस समाज के लिए स्वीकार्य हो सकता है? लेकिन शायद यही वह सोच है जो नकली सेक्युलरिज्म के चोले में छिपी कट्टर मानसिकता के भीतर पलती है—जहाँ हिंदू महापुरुषों का अपमान करना और इस्लामिक आक्रांताओं का महिमामंडन करना सामान्य बात मानी जाती है।
इस विवादित ट्वीट के बाद सोशल मीडिया पर लोगों का आक्रोश फूट पड़ा। हर ओर से अज़ीज़(Kavish Aziz) के इस बयान की कड़ी आलोचना होने लगी। लोगों ने उसे “रिपीट ऑफेंडर” कहकर धिक्कारा, क्योंकि यह पहली बार नहीं है जब उसने इस तरह का बयान दिया है। इस मामले को लेकर पूर्व पत्रकार दिव्या गौरव त्रिपाठी ने लखनऊ के मड़ियांव थाने में शिकायत भी दर्ज कराई है। बावजूद इसके, अब तक अज़ीज़ ने न तो माफी मांगी है और न ही खेद प्रकट किया है।
सोचने वाली बात है—जब ऐसे पूर्वाग्रह से ग्रस्त लोग पत्रकारिता जैसे ज़िम्मेदार पेशे में काम करते हैं, तो उनकी रिपोर्टिंग और लेखन कितना निष्पक्ष और विश्वसनीय हो सकता है? क्या ऐसे लोग जनता के सामने सच्चाई ला सकते हैं? शायद नहीं।
अमरउजाला ने मौलवी को बताया था तांत्रिक
यह कोई पहली बार नहीं है जब तथाकथित सेक्युलर मीडिया ने सच को तोड़-मरोड़ कर पेश किया हो। हाल ही में 7 फरवरी को एक घटना ने हर किसी का ध्यान अपनी ओर खींचा—जहाँ लोनी पुलिस ने 65 वर्षीय मौलाना फिजू को बार-बार दुष्कर्म करने के आरोप में गिरफ्तार किया। यह मौलाना इकराम नगर का निवासी था और उस पर आरोप है कि उसने 30 वर्षीय महिला और उसकी 16 वर्षीय नाबालिग बेटी के साथ घिनौनी हरकतें कीं। लेकिन इस दिल दहला देने वाली घटना की रिपोर्टिंग में भी सेक्युलरिज्म का मुखौटा ओढ़े मीडिया संस्थानों ने अपने दोहरे मापदंड का परिचय दिया।
अमर उजाला ने इस अपराधी मौलाना को “तांत्रिक” बता दिया! सोचिए ज़रा—क्या यह सिर्फ एक भूल थी, या एक सोची-समझी चाल? आखिर क्यों बार-बार जब किसी मौलवी पर आरोप लगता है, तो उसे तांत्रिक या अन्य हिंदू पहचान के नाम से दिखाने की कोशिश की जाती है? क्या यह महज संयोग है कि इस तरह की हेरफेर The Hindu और अमर उजाला जैसे मीडिया संस्थानों में बार-बार देखने को मिलती है? नहीं! यह वही मानसिकता है जो तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करती है ताकि किसी विशेष समुदाय की छवि पर आँच न आए, जबकि हिंदू साधु-संतों के मामलों में यही मीडिया बिना किसी संकोच के उन्हें ढोंगी और पाखंडी करार दे देती है।
‘हिंदू स्कूलों और मंदिरों को तोड़ दिया जाए’: औरंगजेब
क्योंकि बात हो रही है औरंगजेब के महिमामंडन की, तो आइए इतिहास में भी झांककर देख लेते हैं कि सच क्या है। औरंगजेब का नाम सुनते ही दिल में एक सिहरन-सी दौड़ जाती है। सत्ता की भूख ने उसे इतना निर्मम बना दिया था कि उसने अपने ही खून के रिश्तों का गला घोंट दिया। दारा शिकोह—वही दारा, जिसने कभी बेकाबू हाथी के सामने खड़े होकर औरंगजेब की जान बचाई थी, उसी भाई का सिर कलम करवाना और फिर उस कटे हुए सिर को एक बक्से में बंद करके पिता शाहजहां के पास भिजवाना—यह सिर्फ सत्ता की भूख नहीं थी, यह इंसानियत को रौंद देने वाली वह दरिंदगी थी जिसकी गूंज आज भी इतिहास के पन्नों से सुनाई देती है। सोचिए, एक पिता की आंखों के सामने उसके बेटे का कटा हुआ सिर रखा जाए, तो दिल पर क्या बीतेगी? यह घटना औरंगजेब के क्रूर हृदय का सबसे भयावह उदाहरण है।
लेकिन उसके अत्याचार यहीं नहीं रुके। 9 अप्रैल 1669 को उसने आदेश दिया—‘हिंदू स्कूलों और मंदिरों को तोड़ दिया जाए’—यह फरमान सिर्फ पत्थरों की दीवारें गिराने के लिए नहीं था, बल्कि यह हिंदू समाज की आत्मा पर प्रहार था। इस आदेश के बाद काशी विश्वनाथ मंदिर, सोमनाथ मंदिर समेत सैकड़ों मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया। इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब’ में इस घटना का सटीक उल्लेख किया है। यही नहीं औरंगजेब के दरबार के लेखक साकी मुस्तैद खान ने भी अपनी किताब ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ के चैप्टर 12 में इसका विवरण दिया है। इतना ही नहीं, 1965 में प्रकाशित वाराणसी गजेटियर के पेज नंबर 57 पर भी इस आदेश के प्रमाण दर्ज हैं।
इतिहास के इन पन्नों को पलटते समय दिल में एक सवाल उठता है—क्या आज भी उसी मानसिकता के निशान हमारे समाज में मौजूद हैं? जब तथाकथित सेक्युलर मीडिया कट्टरपंथी सोच को बचाने में जुटी दिखाई देती है और हिंदू धर्म के महापुरुषों का अपमान करने वालों को संरक्षण देने का प्रयास करती है, तो यह औरंगजेब के आदेशों की गूंज जैसा ही प्रतीत होता है। चाहे वह कविश अज़ीज़(Kavish Aziz) का विवादित ट्वीट हो या अमर उजाला द्वारा मौलवी को तांत्रिक बताने की कोशिश—इन घटनाओं से यही संदेश मिलता है कि आज भी सच को तोड़-मरोड़कर पेश करने की प्रवृत्ति जीवित है। फर्क बस इतना है कि आज यह तलवार और ताकत के बजाय शब्दों और प्रोपेगेंडा के माध्यम से किया जा रहा है।
लेकिन भारत अब बदल रहा है। छत्रपति संभाजी महाराज के बलिदान की गाथा आज सिनेमा के माध्यम से लोगों के दिलों तक पहुंच रही है। यह उसी हिंदू समाज का प्रतीक है जिसने सदियों तक अत्याचार सहने के बावजूद अपनी संस्कृति और स्वाभिमान को जीवित रखा। यही कारण है कि आज जब कोई इस विरासत का अपमान करता है, तो समाज उसे चुपचाप सहन नहीं करता। कविश अज़ीज़ के ट्वीट पर उपजा जनाक्रोश इस बात का प्रमाण है कि अब यह देश न तो झूठे सेक्युलरिज्म के नाम पर हिंदू धर्म के अपमान को स्वीकार करेगा और न ही कट्टरपंथी सोच का महिमामंडन करने वालों को माफ करेगा।