कर्नाटक में कांग्रेस के अंदरखाने दो गुटों के बीच की लड़ाई फिर खुलकर सामने आ गई है। सीएम सिद्दारमैया और डीके शिवकुमार के खेमे फिर आमने-सामने आ गए हैं। डिनर पार्टियों की इस राजनीति ने शीर्ष नेतृत्व के भी कान खड़े कर दिए हैं। इसकी शुरूआत हुई बीते महीने, जब 8 जनवरी को बेंगलुरु के रेडिसन ब्लू होटल में एससी-एसटी समुदाय के मंत्रियों की एक पार्टी रखी गई, लेकिन अचानक दिल्ली से एक फोन आया और इस पार्टी को रद्द कर दिया गया। बताया गया कि ये फ़ोन कांग्रेस के एक महासचिव (रणदीप सुरजेवाला) की तरफ़ से किया गया था। सूत्रों के मुताबिक सुरजेवाला ने कर्नाटक इकाई को आलाकमान का मैसेज दिया और बताया कि शीर्ष नेतृत्व नहीं चाहता कि ऐसी कोई मीटिंग हो।
हालांकि ये बैठक रद्द क्यों हुई? इसकी वजह थे डी.के शिवकुमार। रिपोर्ट्स की मानें तो शिवकुमार ने दिल्ली दरबार पहुंचकर शिकायत की और कहा कि सिद्दारमैया अलग-अलग वर्गों के मंत्रियों की डिनर पार्टी कर रहे हैं, लेकिन उन्हे भरोसे में लिए बिना।
डी.के. शिवकुमार ने पार्टी आलाकमान से स्पष्ट कहा कि ऐसी बैठकों से पार्टी में फूट का गलत संदेश जा रहा है, साथ ही मीडिया को निगेटिव रिपोर्टिंग का मौका भी मिल रहा है। 8 जनवरी को आयोजित जिस बैठक को लेकर ये विवाद हुआ था वो गृह मंत्री जी परमेश्वर ने बुलाई थी, जिन्हें मुख्यमंत्री सिद्दारमैया का दाहिना हाथ माना जाता है। दलित मंत्रियों-विधायकों की मीटिंग से पहले 2 जनवरी को ओबीसी वर्ग के मंत्रियों की भी ऐसी ही एक डिनर मीटिंग की जा चुकी थी। 2 जनवरी को हुई ये बैठक मंत्री सतीश जरकिलो के आवास पर आयोजित हुई थी।
माना जा रहा है कि ये बैठकें सिद्दारमैया गुट इसलिए आयोजित कर रहा था ताकि सरकार में अपनी पकड़ मजबूत की जा सके, वो भी बिना डी.के. शिवकुमार को भरोसे में लिए। इन बैठकों के बाद से ही कर्नाटक कांग्रेस में ताजा राजनीतिक संकट पैदा हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि मुख्यमंत्री सिद्दारमैया को ख़ुद सामने आकर एक बयान जारी करना पड़ा, और पहली बार ये स्वीकार करना पड़ा कि मुख्यमंत्री पद का फॉर्मूला ढाई-ढाई साल के लिए ही तय हुआ था और वो इस समझौते से बंधे हुए हैं।
अब जब सिद्दारमैया ने सार्वजनिक रूप से इस समझौते को स्वीकार कर लिया है, तो फिर सवाल उठने लगा है कि क्या ढाई साल बिता लेने के बाद सिद्दारमैया, डीके शिवकुमार के लिए कुर्सी छोड़ेंगे? क्योंकि सिद्दारमैया ने18 मई 2023 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी और इस नाते उनके ढाई साल इसी नवंबर में पूरे हो जाएंगे।
लेकिन कर्नाटक कांग्रेस की कहानी इतनी भी सीधी-सपाट नहीं है, क्योंकि इसी बीच मागड़ी विधायक एचसी बालकृष्ण ने दो टूक कह दिया कि डीके शिवकुमार जल्द ही मुख्यमंत्री बनने वाले हैं।
मुख्यमंत्री बनने से क्यों चूक गए डीके शिवकुमार
कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्दारमैया और डीके शिवकुमार के बीच कुर्सी की लड़ाई कब से और क्यों चल रही है? डी.के मुख्यमंत्री बनने से क्यों चूक गए? इसकी तह तक जाएं तो 2023 के विधानसभा चुनाव में जब 135 सीटों के साथ बहुमत से कांग्रेस सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री बनने को लेकर सिद्दरमैया और डीके शिवकुमार के बीच होड़ देखने को मिली। डी.के के समर्थक उन्हें इसलिए मुख्यमंत्री देखना चाहते थे, क्योंकि पूरे चुनाव में उन्होंने चाणक्य की भूमिका निभाई। शानदार चुनाव प्रबंधन कर पार्टी को जीत दिलाई और पार्टी की चुनावी फंडिंग का भी ध्यान रखा। दरअसल डी.के की गिनती देश के सबसे अमीर नेताओं में होती है, जिनके पास 800 करोड की तो घोषित संपत्ति हैं…बाकी का भगवान जाने…. उधर, पार्टी के रणनीतिकारों का मानना रहा कि डीके जनाधार वाले नेता नहीं सिर्फ इलेक्शन मैनेजर हैं, जबकि सिद्दारमैया जनाधार के मामले में शिवकुमार से 21 ठहरते हैं।
सिद्दरमैया के समर्थकों के मुताबिक़ कर्नाटक में उनकी पिछड़ी जाति और मुस्लिम गठजोड़ की राजनीति बेहद कामयाब रही है। राज्य की पिछड़ा- कुरबा जाति से आने वाले सिद्दरमैया के साथ पिछड़े, मुस्लिम और दलित तीनों हैं। इतना ही नहीं राज्य में मुख्यमंत्री बनने की लालसा लिए हुए दो और सीनियर नेताओं- सतीश जरकिहोली और जी परमेश्वरा का समर्थन भी सिद्दारमैया के साथ है। शिवकुमार की बात करें तो उनके साथ उनकी जाति के वोक्कालिगा नेता और साथ में लिंगायत नेता भी जुड़े हैं। लेकिन कांग्रेस आलाकमान का मानना था कि लिंगायत मतदाता परंपरागत रूप से भाजपा के वोटर रहे हैं, और वोक्कालिगा ने भी भले ही इस बार कांग्रेस को वोट किया लेकिन हर बार ऐसा ही हो- कहा नहीं जा सकता।
![शिवकुमार vs सिद्दारमैया](https://resize.indiatv.in/resize/newbucket/1200_-/2023/05/sidda-1684906339.jpg)
खैर सिद्दारमैया गुट आलाकमान को समझाने में सफल रहा कि डी.के नहीं बल्कि सिद्दारमैया को सीएम बनने से ही कर्नाटक के जातीय समीकरण अच्छी तरह साधे जा सकेंगे। पहले तो सिद्धारमैया गुट का मकसद सिर्फ इतना था कि डी.के शिवकुमार को किसी भी तरह मुख्यमंत्री बनने से रोका जाए। इसमें सफलता मिली तो फिर सिद्दारमैया गुट डी.के शिवकुमार को और कमजोर करने में जुट गया, ताकि भविष्य में भी वे सिर न उठा सकें और उनकी दावेदारी को कमजोर किया जा सके। इसके बाद सिद्दारमैया गुट ने एक व्यक्ति-एक पद का फॉर्मूले का शोर मचाना शुरू कर दिया। क्योंकि डी.के डिप्टी सीएम होने के साथ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी हैं। सिद्दारमैया गुट का मानना है कि मुख्यमंत्री के सामने डिप्टी सीएम की कोई बड़ी हैसियत नहीं होती। यहां तक कि उनकी फाइलों को भी CMO में रोका जा सकता है, लेकिन प्रदेश अध्यक्ष की ताकत को रोक पाना मुश्किल है। क्योंकि सरकार भले ही सिद्दारमैया चला रहे हैं, लेकिन संगठन में तो डी.के के ही चल रही है। ऐसे में डी.के को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने के लिए अभियान भी चलाया जाने लगा।
इस अभियान के बाद अब डी.के शिवकुमार के समर्थक भी कहां चुप बैठने वाले थे। उन्होंने सिद्दारमैया को अपने नेता का त्याग गिनाना शुरू कर दिया। डी.के समर्थकों ने दलील दी कि वो तब से पार्टी के लिए त्याग करते आ रहे हैं, जब एन. धरम सिंह कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने और वो चाहते तो वर्ष 2023 में ही टॉप लीडरशिप को ब्लैकमेल कर मुख्यमंत्री बन सकते थे, लेकिन उन्होंने सिद्दारमैया की राह में कांटे नहीं बिछाए बल्कि उन्हे सीएम बनने दिया। डी.के शिवकुमार के समर्थकों के मुताबिक़ ये भी पार्टी के लिए उनका बड़ा त्याग था। इसी बीच नए साल की शुरुआत होते ही कर्नाटक में कांग्रेस में लॉबिंग तेज हो गई। हालात इतने बिगड़े कि सिद्दारमैया को भी झुकना पड़ा और उन्होंने सत्ता हस्तांतरण यानी पॉवर ट्रांसफर की बात भी स्वीकार की और यह भी कहा कि अंतिम निर्णय पार्टी नेतृत्व को लेना है। इस बीच सिद्दारमैया के करीबी और उनके राजनीतिक सलाहकार बीआर पाटिल ने एक फरवरी को इस्तीफा दिया तो राजनीतिक संकट और गहरा गया।
कलबुर्गी जिले के अलांद से चार बार के विधायक हैं बी.आर पाटिल
सूत्रों के मुताबिक पाटिल पार्टी की आंतरिक गुटबाजी के शिकार हो गए, जिसके कारण सिद्दारमैया सरकार में उन्हें मंत्री बनने का मौका नहीं मिला। सिद्दरमैया जब उन्हें मंत्री बनाने में सफल नहीं हुए तो दिल रखने के लिए उन्हें अपना राजनीतिक सलाहकार बना लिया। लेकिन, मंत्री रहने का भौकाल अलग ही होता है। सलाहकार का महत्व तो तभी है, जो उसकी सलाह पर अमल भी हो। बस क्या था कि पाटिल ने उचित महत्व नहीं मिलने के कारण इस्तीफा दे दिया। जिसके बाद से कर्नाटक की कांग्रेस सरकार में अंदरखाने की लडाई फिर तेज हो गई है।
बताया जाता है कि पाटिल कलबुर्गी की जिस सीट से विधायक है, वह कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का इलाका है। कलबुर्गी से ही खरगे के बेटे प्रियांक खरगे उनकी राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं। लेकिन पाटिल और प्रियांग खरगे में पटती नहीं है। कहा जाता है कि खरगे के वीटो लगा देने के कारण ही पाटिल मंत्री नहीं बन सके। दरअसल, कलबुर्गी में प्रियांक का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है, जिसके चलते मुख्यमंत्री के क़रीबी होने के बावजूद पाटिल ख़ुद को दरकिनार महसूस कर रहे हैं। वर्ष 2023 में सरकार बनने के बाद पाटिल को मंत्री बनाने की बात हुई थी, लेकिन उनकी जगह कलबुर्गी से प्रियांक और एक अन्य विधायक शरन प्रकाश को मंत्री पद मिल गया। यहां पूरी कोशिश के बाद भी सिद्दारमैया की नहीं एक नहीं चली।
सिद्दरमैया के घोटाले में फंसते ही डी.के & कंपनी हुई मजबूत
पिछले साल 4000 करोड़ के मैसूर अर्बन डेवलपमेंट अथॉरिटी भूमि घोटाले में मुख्यमंत्री के फंसते ही डी.के एंड कंपनी की मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी और मजबूत हो गई। सिद्दारमैया के खिलाफ केस भी दर्ज हो चुका है। वो इस केस को रद्द कराने के लिए हाईकोर्ट भी पहुंचे, लेकिन उन्हें कोई राहत नहीं मिली। MUDA केस की वजह से सिद्दरमैया की अब तक रही बेदाग छवि को गहरा धक्का लगा है। इसीलिए माना जा रहा है कि कांग्रेस नेतृत्व इस साल नवंबर में सिद्दारमैया का ढाई साल पूरा होते ही डीके शिवकुमार पर दांव खेल सकता है या फिर दोनों की लड़ाई में किसी तीसरे के हाथ बाजी लग सकती है।
एक और अहम बात है कि कुछ ऐसा ही फॉर्मला छत्तीसगढ़ में भी तय हुआ था, जहां भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव को ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री बनाने की बात तय हुई थी, लेकिन भूपेश बघेल पूरे पांच साल तक बने रहे और सिंहदेव को साइडलाइन कर दिया गया। बाद में चुनाव में कांग्रेस को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी थी। कांग्रेस नेतृत्व ने इस घटना को सबक के तौर पर लिया होगा तो फिर कर्नाटक में परिवर्तन हो सकता है।
वैसे सिद्दारमैया और शिवकुमार के बीच मतभेद कोई नया नहीं है। सिद्दारमैया के पहले कार्यकाल में भी मतभेद रहा है। साल 2015 में सिद्दारमैया ने पहले कार्यकाल में जाति जनगणना भी कराई थी, लेकिन उसकी रिपोर्ट को आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया। इसकी वजह भी डी.के शिवकुमार का विरोध ही था। बहरहाल, अब सवाल उठता है कि कर्नाटक में सिद्दारमैया कितने दिनों के मेहमान रह गए हैं? क्या ढाई साल पूरा होने पर ही वो गद्दी से उतरेंगे? या फिर घमासान रोकने के लिए कांग्रेस आलाकमान पहले ही चेहरा बदलेगा या फिर डीके शिवकुमार और सिद्दारमैया की लड़ाई में जरकिहोली या जी परमेश्वर या फिर किसी दूसरे की लॉटरी निकलेगी?