बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में एक मामले की सुनवाई थी। मामला था रोहिंग्या ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव और दिल्ली (एनसीटी) की सरकार के बीच, जिसमें फैसला आना था। ये जनहित याचिका रोहिंग्या ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव नाम के एनजीओ की ओर से थी, जिसमें स्कूलों में रोहिंग्या छात्र-छात्राओं की भर्ती और उससे जुड़े लाभ उन्हें भी दिलवाने के लिए अदालत को निर्देश देने के लिए कहा गया था। गौरतलब है कि स्कूल और उससे जुड़े लाभ आधार कार्ड या नागरिकता नहीं होने पर भी देने की बात थी। ये मामला महत्वपूर्ण इसलिए हो जाता है क्योंकि हाल ही में अमेरिका से अवैध घुसपैठिया होने के कारण कई भारतीय लोगों को वापस भेजा गया था और तब तथाकथित वोक और प्रगतिशील कहलाने वाली जमातों के छाती कूटने के साथ-साथ और लोग भी ये पूछ रहे थे कि छप्पन इंची सरकार भारत से घुसपैठियों को वापस नहीं भेज सकती क्या? ये मामला इस सवाल का जवाब भी है।
इस मामले की सुनवाई जस्टिस सूर्य कान्त और जस्टिस एनके सिंह की पीठ कर रही थी। याचिकाकर्ता एनजीओ की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन गोंसाल्विस कह रहे थे कि रोहिंग्या शरणार्थी बड़ी बुरी दशा में हैं। उन्होंने अदालत को बताया कि बेचारे स्कूलों में दाखिला तक नही ले पा रहे क्योंकि अधिकांश के पास आधार कार्ड और नागरिकता तक नहीं है, इसलिए उन्हें स्कूल से जुड़े लाभ भी नहीं मिल रहे। इस पर अदालत ने पूछा कि ये लोग रह कहाँ रहे हैं, ये बताया जाए ताकी उन तक मदद/राहत पहुंचाई जा सके। साथ ही उन्होंने ये भी जोड़ा कि इस पता बताने की सूची में बच्चों के व्यक्तिगत विवरण सार्वजनिक न किये जाएँ। इसके लिए अदालत ने कहा कि बच्चों के बारे में नहीं, हमें उनके अभिभावकों, माता-पिता का पता दो, उनके परिवार में कितने सदस्य हैं, कोई प्रमाण जिससे उनका होना सुनिश्चित हो। कोई निबंधन का प्रमाण, जिससे उनका अस्तित्व में होना सिद्ध होता हो, वो देने अदालत ने कहा। इस पर वकील गोंसाल्विस ने कहा कि उनके पास यूएनएचसीआर द्वारा जारी किये कागज (पहचान पत्र) हैं, जिससे उनका शरणार्थी होना सिद्ध होता है।
अदालत ने कहा कि एक बार ये सिद्ध हो जाये कि इतने लोग अस्तित्व में हैं, तब अदालत तय करेगी कि उनके लिए क्या-क्या किया जाना है। साथ ही अदालत ने कहा कि शिक्षा के मामले में कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। वो कहाँ रह रहे हैं, एक बार ये तय हो जाये तो फिर संतुष्ट होने पर अदालत उसका प्रबंध करेगी। इस मामले की अगली सुनवाई 28 फरवरी को होनी है। इससे पहले ही दिल्ली हाई कोर्ट ने ऐसे ही एक मामले में म्यांमार से भारत आए रोहिंग्या लोगों से जुड़ी याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया था। पिछले वर्ष अक्टूबर में इस याचिका पर कहा था कि ये मामला केंद्र सरकार का है न कि अदालत का। ये मामला (सोशल जूरिस्ट बनाम दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन और अन्य) फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए लंबित है।
अधिवक्ता कोलिन गोंसाल्विस ने सरकार से रोहिंग्या लोगों के लिए जो मांगे रखी हैं उनमें, सरकारी स्कूलों में 10 और 12 तक की मुफ्त शिक्षा, मुफ्त कॉलेज शिक्षा, सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज और अन्त्योदय योजना के अंतर्गत मुफ्त अनाज जैसी चीजें हैं। यानी जिसके लिए भारतीय नागरिकों को आधार कार्ड जैसे दस्तावेज चाहिए, वो ऐसे ही म्यांमार से घुसपैठ करके आ गए लोगों को उठा कर दे दिए जाएँ। इसकी तुलना भारत आकर शरण मांगने वाले पाकिस्तानी हिन्दुओं से की जाये तो तथाकथित प्रगतिशीलों का ‘हिन्दू-फोबिया’ तुरंत नजर आ जाता है। पाकिस्तान में प्रताड़ना झेल रहे कई हिन्दू हर वर्ष पलायन करके भारत आते हैं, इनमें से कइयों को नागरिकता ना मिलने के कारण वापस जाना पड़ता है। पाकिस्तानी हर वर्ष ऐसे लौटने वालों की परेड करवाकर लोगों को दिखाते हैं कि भारत में प्रताड़ित होने के कारण ये वापस लौट आये। नागरिकता का आवेदन वर्षों लंबित रहने के बाद कई लोग लौट जाते हैं। इसके पीछे कानूनों का भी योगदान है।
सीएए से हालात थोड़े से बदले लेकिन कुछ नयी दिक्कतें भी आई। जो लोग 31 दिसम्बर 2014 से पहले आ गए उनके लिए राहत हुई लेकिन उन्हीं के परिवार के जो सदस्य इस तिथि के बाद आये उनके लिए बार-बार वीजा बनवाना एक समस्या बना हुआ है। बाद में आये सभी लोगों पर अभी भी पुराना नागरिकता कानून (1955) लागू होता है। जितनी तेजी रोहिंग्या लोगों के लिए दिखाई जाती है उसकी दस प्रतिशत गति भी हिन्दू शरणार्थियों के लिए मोहल्ले बसाने, उन्हें बिजली-पानी या स्कूल जैसी बुनियादी सुविधाएँ दिलवाने में नहीं दिखती है। जिन्हें लौटना पड़ रहा है उनमें से कई वहाँ जान और धर्म पर खतरे की वजह से भागे थे। उनका लौटना मौत के मुंह में जाने जैसा है। भारत में रुकने के लिए वीजा बनवाना 7000 रुपये का खर्च है जो कइयों के लिए संभव नहीं होगा क्योंकि नागरिकता और आधार-पैन कार्ड जैसे दस्तावेजों के बिना नौकरी ढूंढना भी लगभग असंभव है।
संस्थाओं के स्तर पर भी ये अंतर दिखाई देता है। हिन्दुओं के लिए जो गिनी-चुनी संस्थाएं हैं भी वो जैसे-तैसे जनता के चंदे पर चलती हैं। इसके मुकाबले रोहिंग्या मुस्लिमों के लिए काम कर रहे अधिवक्ता कोलिन गोंसाल्विस की संस्था ‘ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क’ (एचआरएलएन) को यूरोप के चार चर्चों से कुछ वर्ष पहले ही 50 करोड़ रुपए (सीएए-एनआरसी आन्दोलन से जुड़े दिल्ली दंगों के समय) मिले थे। सोरोस के एनजीओ से भी कोलिन गोंसाल्विस की संस्था के तार जुड़े हैं। वो इससे पहले अक्षय पात्र और इस्कोन के खिलाफ चले कानूनी और आन्दोलन जैसे अभियान से जुड़ा रहा है। नीदरलैंड की ग्लोबल स्टेटलेसनेस फण्ड से भी इसकी संस्था को पैसे मिलते हैं। यानी जो आर्थिक, कानूनी या आन्दोलनकारी/एक्टिविस्ट का समर्थन अवैध रोहिंग्या घुसपैठियों को मिल रहा है और जो पाकिस्तान से वैध तरीके से आये हिन्दू शरणार्थियों को मिल रहा है, उसमें भी जमीन आसमान का अंतर है। ऐसे में सोचना पड़ता है कि एक्टिविस्ट, उनके कानूनी सलाहकार-वकील और कई राजनेता जो इन्हें संरक्षण देते रहे, वो हमारे देश को ले कहाँ जाना चाहते हैं? कई मोर्चों पर चल रहे इस युद्ध का सामना सिर्फ सीमाओं पर नहीं, भारत की जनता को हर गली-मोहल्ले में करना होगा।