स्वामी श्रद्धानंद एक ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने धर्म और देश के लिए अपना बलिदान दे दिया। हिंदू समुदाय उन्हें श्रद्धापूर्वक याद करता है। स्वामी श्रद्धानंद देश के महान आर्य समाजी, समाजसेवी, शिक्षाविद और स्वतंत्रता सेनानी थे। वे देश के संभवत: अकेले ऐसे संत थे, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए आवाज उठाई। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए 4 मार्च 1919 को नई दिल्ली में जामा मस्जिद से मुस्लिमों की एक विशाल सभा को संबोधित किया। स्वामी जी ने अपना उपदेश वेद मंत्र से शुरू किया था और समापन शांति पाठ के साथ। अपने संबोधन में उन्होंने मुस्लिमों को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने भारत में खिलाफत आंदोलन का भी समर्थन किया। लेकिन, दुर्भाग्य देखिए कि जिस मुस्लिमों के लिए उन्होंने आवाज उठाई, उन्हीं में से एक कट्टरपंथी ने उनकी हत्या कर दी। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य ये था कि उस दौरान महात्मा गाँधी ने उस हत्यारे का बचाव तक कर दिया।
स्वामी श्रद्धानंद का जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब के जालंधर जिले के तलवान गाँव में हुआ था। उनके पिता लाला नानक चंद खत्री परिवार से ताल्लुक रखते थे और तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार में वे संयुक्त प्रांत में पुलिस इंस्पेक्टर थे। स्वामी श्रद्धानंद का बचपन का नाम बृहस्पति था, लेकिन उनके पिता उन्हें मुंशी राम कहते थे। संपन्न घराने से संबंध रखने के कारण उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी में हुई। आगे चलकर उन्होंने लाहौर (अब पाकिस्तान में) से कानून की डिग्री हासिल की। कानून की डिग्री लेने के बाद उन्होंने एक वकील के रूप में फिल्लौर और जालंधर में वकालत की। आगे चलकर शिवा देवी नाम की महिला के साथ उनका विवाह हो गया। हालाँकि, 35 वर्ष छोटी अवस्था में ही शिवा देवी स्वर्ग सिधार गईं। उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं।
इसी दौरान उनकी मुलाकात स्वामी दयानंद से सितंबर 1879 में उत्तर प्रदेश के बरेली में हुई। स्वामी दयानंद वहाँ आर्य समाज के प्रचार के लिए गए थे। उनके विचार सुनने के बाद श्रद्धानंद का मन पूरी तरह बदल गया और वे आर्य समाज के अनुयायी बन गए।नवंबर 1898 में दयानंद सरस्वती के नेतृत्व में पंजाब के आर्य समाजों के केंद्रीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा ने गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव किया। इसके बाद श्रद्धानंद इसके लिए 30,000 रुपया एकत्र करने की अपनी यात्रा में निकल गए। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक वे पैसे जुटा नहीं लेंगे तब तक वे अपने घर लौटेंगे। इस काम को आठ महीने में पूरा करके 16 मई 1900 को पंजाब के गुजराँवाला स्थान पर एक वैदिक पाठशाला स्थापना कर दी गई। हालाँकि, वे गुरुकुल किसी नदी और पर्वत के निकट कोई स्थान चाहते थे। इसी दौरान बिजनौर के रईस ठाकुर अमन सिंह ने 1,200 बीघे का अपना काँगड़ी गाँव और 11,000 रुपए दान में दिए। इसके बाद इस गुरुकुल को होली के दिन सोमवार 4 मार्च 1902 को गुजरांवाला से काँगड़ी लाया गया।
स्वामी श्रद्धानंद सिर्फ समाज सेवा और धर्म प्रचार से ही नहीं जुड़े थे। वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनानी भी थे। उन्होंने भारत की मुक्ति के लिए कांग्रेस के साथ मिलकर काम करना शुरू किया। वे 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड और दिल्ली में रॉलेट एक्ट के खिलाफ देशव्यापी विरोध में शामिल हुए। रॉलेट एक्ट के खिलाफ श्रद्धानंद ने दिल्ली के चाँदनी चौक में एक जुलूस का भी नेतृत्व किया। स्वामी श्रद्धानंद महात्मा गाँधी के करीबी सहयोगियों में से एक थे। उन्होंने 12 अप्रैल 1917 को कनखल में संन्यास धारण कर लिया और वे स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से पहचाने जाने लगे।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही सन 1920 के दशक में उन्होंने महसूस किया कि मुस्लिम लीग के तहत मुस्लिम अपने लिए अलग मुल्क की माँग कर रहे हैं और कांग्रेस मुस्लिमों का विश्वास एवं समर्थन के लिए उन्हें रिझा रही थी। कांग्रेस के मुस्लिम सदस्य भी अपने समुदाय पर अधिक ध्यान दे रहे थे। इससे उनका मन विचलित हो गया और उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और हिंदू महासभा में शामिल हो गए। उन्होंने देश में हिंदू धर्म और आर्य समाज के विकास के लिए काम किया। अब वे स्वामी दयानंद सरस्वती के नेतृत्व में हिंदू धर्म के उत्थान के लिए काम करने लगे। उन्होंने देश भर में शुद्धि आंदोलन चलाया और इसके तहत हजारों मुस्लिमों और ईसाइयों का शुद्धिकरण करके उन्हें दोबारा हिंदू धर्म में शामिल किया। इतना ही नहीं, वे अपने किशोरावस्था से ही हिंदू धर्म में व्याप्त भेदभाव और छुआछूत का विरोध करते रहे। साथ ही वे महिलाओं को शिक्षा देने के घोर समर्थक थे। आर्य समाजी की तरह वे पोंगापंथ, कर्मकांड एवं अंधविश्वास के भी प्रबल विरोधी थे।
स्वामी श्रद्धानंद हिंदी भाषा के प्रबल पक्षधर थे। वे चाहते थे कि देश की राष्ट्रभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी हो। उन दिनों ‘सतधर्म प्रचारक’ नाम का अखबार उर्दू में छपता था। इसके बाद उन्होंने इसे हिंदी छपवाना शुरू कर दिया। वे देशवासियों में सदाचार, निर्भयता, कर्मठता का भी प्रचार-प्रसार करते थे। वे चाहते थे कि राष्ट्र धर्म को बढ़ाने के लिए देश के हर शहर/कस्बे में ‘हिंदू-राष्ट्र मंदिर’ हो, जिस पर गायत्री मंत्र भी अंकित हो। इस मंदिर में कम-से-कम 25,000 लोग एक साथ बैठ सकें, इतना विशाल हो। इस मंदिर में वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत आदि की कथा हुआ करे। मंदिर में अखाड़े भी हों, जहाँ व्यायाम एवं कुश्ती आदि के जरिए शारीरिक शक्ति भी बढ़ाई जा सके।
देश, समाज और राष्ट्र के लिए लगातार किए जा रहे स्वामी श्रद्धानंद के कार्यों से कट्टरपंथी मुस्लिम विचलित हो गए, क्योंकि स्वामी जी ने बड़े पैमाने पर धर्मांतरित मुस्लिमों का शुद्धिकरण शुरू करके उन्हें वापस हिंदू धर्म से जोड़ना शुरू कर दिया था। कहा जाता है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के लगभग 90 गाँवों में हिंदू से मुस्लिम बने लोगों का शुद्धिकरण किया था। उन्होंने कहा था कि जो हिंदू विधर्मी हो गए हैं, वे वापस हिंदू धर्म में आ सकते हैं। आर्य समाज की सफलता का भी यही कारण था कि वह लचीला था। उसके पूर्ववर्ती धर्मगुरुओं की तरह रूढ़िवादी नहीं था, जो कहते थे कि एक बार धर्म गँवाने के बाद इसमें वापसी नहीं हो सकती। समुद्र या नदी पार कर लेने पर धर्म का नाश हो जाता है। स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके अनुयायी स्वामी श्रद्धानंद ने इसका खुलकर विरोध किया और बड़े पैमाने पर घर वापसी शुरू कर दी।
स्वामी श्रद्धानंद की शुद्धि अभियान में एक कट्टरपंथी मौलाना की बेटी ने इस्लाम अपना लिया था। उस दौर में एक मौलाना ताज मोहम्मद था। उसकी बेटी का नाम अजहरी बेगम था। अजहरी बेगम को तालीम के नाम पर मुस्लिमों का धर्मशास्त्र कुरान पढ़ाया गया। कुछ समय के बाद अजहरी बेगम के मन में हिंदू धर्म को जानने की इच्छा हुई। इसके बाद उन्होंने मौलाना ताज मोहम्मद से हिंदू धर्मग्रंथों की माँग की, ताकि वह पढ़ सके। इससे घरवाले नाराज हो गए, लेकिन अजहरी बेगम के मन में तो कुछ और ही था। वह 12 साल की थी, तब अपना घर छोड़कर स्वामी श्रद्धानंद के पास जा पहुँचीं। वहाँ अजहरी बेगम ने शुद्धिकरण कराकर हिंदू धर्म अपना लिया और अपना नाम शांति देवी रख लिया। अजहरी के परिजनों को जब इसकी जानकारी हुई तो वे स्वामी श्रद्धानंद के पास गए और बेटी को लौटाने की माँग करने लगे। इस पर स्वामी जी ने कहा कि शांति देवी की मर्जी के बिना उसे कोई कहीं नहीं ले जा सकता। शांति देवी ने भी अपने घर लौटने से मना कर दिया।
इस घटना को लेकर कट्टरपंथियों ने स्वामी श्रद्धानंद के खिलाफ अपहरण का झूठा केस दर्ज करा दिया। हालाँकि, कोर्ट में यह आरोप सिद्ध नहीं हो पाया। आखिरकार स्वामी जी 4 दिसंबर 1926 को इन आरोपों से बरी हो गए। इसके बाद वे दोबारा अपने अभियान में लग गए। स्वामी श्रद्धानंद के शुद्धिकरण अभियान कट्टरपंथियों के लिए भारी मुसीबत बन गया। इससे वे तिलमिला गए। स्वामी श्रद्धानंद को शुद्धिकरण अभियान के लिए अक्सर धमकी मिलती थी, लेकिन वे कभी विचलित नहीं हुए। ख्वाजा हसन निजामी और मौलाना अब्दुल बारी जैसे लोग स्वामी श्रद्धानंद के खिलाफ मुस्लिमों को भड़काने लगे। लखनऊ का कट्टरपंथी मौलाना अब्दुल बारी ने स्वामी श्रद्धानंद के खिलाफ फतवा भी जारी किया। उसमें कहा गया था, “मुस्लिम अगर हिन्दू हो जाता है तो यह ‘मुर्तद’ (दीन का त्याग) है। वह इंसान वाजिब-उल-क़त्ल (मार देने योग्य) है।”
इसी बीच 23 दिसंबर 1926 को स्वामी श्रद्धानंद को निमोनिया का गंभीर दौरा पड़ा। वे दिल्ली के चाँदनी चौक स्थित अपने घर में बिस्तर पर आराम कर रहे थे। इसी दौरान एक अब्दुल रशीद नाम के एक कट्टरपंथी मुस्लिम उनके कमरे में दाखिल हुआ और अपने रिवॉल्वर से गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। रशीद ने स्वामी श्रद्धानंद को तीन गोलियाँ मारी थीं। इससे मौके पर ही उनका देहांत हो गया। अब्दुल रशीद को रंगे हाथ पकड़ लिया गया था। उस पर मुकदमा चला और सिर्फ दो साल में ही वह बरी हो गया।
कहा जाता है कि अब्दुल रशीद को बचाने में महात्मा गाँधी का बहुत बड़ा योगदान था। महात्मा गाँधी ने स्वामी श्रद्धानंद के पुत्र इंद्र विद्यावाचस्पति को इस संबंध में एक पत्र तक लिख दिया। उस पत्र में महात्मा गाँधी ने यहाँ तक कहा कि ‘अब्दुल भाई’ को माफ़ कर दो। महात्मा गाँधी ने स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के बाद एक मंच से कहा था, “राशिद मेरा भाई है और मैं बार-बार यह कहूँगा। हत्या के लिए मैं उसे दोषी नहीं ठहराता। दोषी वह लोग हैं, जो एक दूसरे के खिलाफ नफरत फैलाते हैं। उसकी (राशिद की) कोई गलती नहीं है और ही उसे दोषी ठहराकर किसी का भला होगा।” इस तरह गाँधी जी के प्रयासों से राशिद को छोड़ दिया गया। भारतीय डाकघर ने 1970 में उन पर एक डाक टिकट जारी किया।