पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से भारी मात्रा में नकदी मिलने के बाद न्यायिक जवाबदेही को लेकर बहस नए सिरे से शुरू हो गई है। इस बहस के बीच उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के चेयरमैन जगदीप धनखड़ ने कहा है कि यह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) एक्ट को फिर से लाने का सही समय है। इस एक्ट को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक बताकर खारिज कर दिया था। NJAC भारत में न्यायपालिका के उच्च पदों पर जजों की नियुक्ति और तबादले की प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए प्रस्तावित एक संवैधानिक निकाय था। इसे भारत सरकार द्वारा मौजूदा कॉलेजियम सिस्टम के विकल्प के रूप में पेश किया गया था।
NJAC की शुरुआत और उद्देश्य
जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के उद्देश्य से NJAC की शुरुआत की गई थी। जजों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रक्रिया के तहत की जा रही थी जो प्रक्रिया न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है। 1993 में दूसरे न्यायाधीश मामले के बाद कॉलेजियम की प्रक्रिया पूरी तरह से शुरू हो गई थी, कॉलेजियम में मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज मिलकर नियुक्तियों का फैसला करते हैं। इस प्रणाली की आलोचना होती थी कि यह अपारदर्शी है और इसमें पक्षपात या भाई-भतीजावाद की संभावना रहती है। कॉलेजियम की प्रक्रिया को बदलने के लिए NJAC को लाया गया था और इसका मुख्य उद्देश्य था कि नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका और विधायिका की भी भागीदारी हो।
NJAC की संरचना
2014 में संसद द्वारा पारित किए गए 99वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के तहत राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) और NJAC अधिनियम की स्थापना की गई थी। इस संशोधन के ज़रिए संविधान में अनुच्छेद 124A, 124B और 124C जोड़े गए थे। इन अनुच्छेदों में NJAC की संरचना, कार्यों और संसद की विधि निर्माण की शक्ति का ज़िक्र किया गया था। NJAC की संरचना इस प्रकार थी:-
- भारत के मुख्य न्यायाधीश- पदेन अध्यक्ष
- सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश – पदेन सदस्य
- केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री – पदेन सदस्य
- दो प्रतिष्ठित व्यक्ति – जिन्हें मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता की समिति द्वारा चुना जाना था। इनमें से एक व्यक्ति अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी, अल्पसंख्यक या महिला समुदाय से होना था। इनका कार्यकाल तीन साल का तय था।
इस संरचना का मकसद था कि न्यायपालिका के साथ-साथ सरकार और समाज के प्रतिनिधियों की भी इसमें भागीदारी हो।
NJAC का विधायी सफर
NJAC को लागू करने के लिए दो विधेयक लाए गए थे- ‘संविधान (121वां संशोधन) विधेयक, 2014’ और ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक, 2014’ को 13 अगस्त 2014 को लोकसभा और 14 अगस्त 2014 को राज्यसभा में सर्वसम्मति से पारित किया गया। इसके बाद निर्धारित संख्या में राज्य विधानसभाओं ने इन विधेयकों को मंजूरी दी और अंततः राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई। ‘संविधान (121वां संशोधन) विधेयक, 2014’ को संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम के रूप में लागू किया गया, जबकि ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014’ को 31 दिसंबर 2014 को भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया गया। यह तय हुआ था कि दोनों ही अधिनियम उस दिन प्रभावी होंगे जिस दिन केंद्र सरकार उन्हें राजपत्र में अधिसूचित करेगी। ये अधिनियम 13 अप्रैल 2015 से प्रभावी हुए थे।
NJAC की कानूनी चुनौती
NJAC के लागू होते ही जहां एक ओर लोगों ने इसकी तारीफ की तो दूसरी ओर इसकी संवैधानिक वैधता पर सवाल उठने शुरु हो गए। कई वकीलों और संगठनों ने इस पर सवाल उठाए और इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। तर्क दिया गया कि NJAC न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करता है। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन इस मामले में प्रमुख याचिकाकर्ता था। मामले को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ के सामने रखा गया। सुनवाई के बाद, 16 अक्टूबर 2015 को पीठ ने 4:1 के बहुमत से NJAC अधिनियम और 99वें संशोधन को असंवैधानिक और शून्य घोषित कर दिया। इस पीठ में जस्टिस जे.एस. खेहर, मदन लोकुर, कुरियन जोसेफ और आदर्श कुमार गोयल ने इसे खारिज किया जबकि जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर ने इसका समर्थन किया था।
इस NJAC अधिनियम को रद्द किए जाने का सबसे महत्वपूर्ण तर्क था कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरा था। जजों के बहुमत की राय थी कि सरकार की विधायिका और कार्यकारी शाखाओं को जजों की नियुक्ति में सीधे तौर पर दखल रखने की अनुमति देने से न्यायपालिका की निष्पक्षता और अखंडता से समझौता हो सकता था। न्यायमूर्ति खेहर ने तर्क दिया कि NJAC अधिनियम के तहत नियुक्त जज उन नेताओं के प्रति आभारी महसूस कर सकते हैं जिन्होंने उनकी स्थिति को सुरक्षित रखने में मदद की। जस्टिस खेहर और लोकुर ने तर्क दिया कि NJAC अधिनियम ने कॉलेजियम प्रणाली के सिद्धांतों को कमजोर कर दिया है।
न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने इस मामले पर अपनी राय बहुमत की राय के विपरीत दी थी। उन्होंने कहा कि NJAC अधिनियम ने न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही पेश की है जिसकी बहुत ज़रूरत थी। इस दौरान उन्होंने कॉलेजियम प्रणाली की अपारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही की कमी की आलोचना भी की थी। इस अधिनियम को रद्द किया जाना भारत के कानूनी इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में शामिल था।
आज की स्थिति और आगे की राह
सुप्रीम कोर्ट द्वारा NJAC अधिनियम और NJAC को रद्द किए जाने के बाद न्यायमूर्तियों की नियुक्ति करने वाली कॉलेजियम प्रणाली एक बार फिर चलन में आ गई और अब तक जज उसके द्वारा ही नियुक्ति किए जाते रहे हैं। हालांकि, सरकार और न्यायपालिका के बीच इस मुद्दे पर तनाव बना रहता है और अलग-अलग मंचों पर न्यायिक सुधारों की मांग उठती रही है। 2023 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने न्यायपालिका में प्रतिभाशाली युवाओं का चयन करने के लिए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन का सुझाव दिया था जो अंतत: जजों की नियुक्ति से ही संबंधित होता है।
साथ ही, इसी महीने की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस संजय किशन कौल ने सुझाव दिया कि अगर सरकार NJAC से नाखुश है तो वह नया कानून बनाए लेकिन कॉलेजियम की सिफारिशों को लंबित रखने की प्रथा बंद करे। न्यायपालिका में सुधारों की राह लंबी हो सकती है और इन सुधारों के दौरान न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे यह भी बेहद अहम है। अब जब एक बार फिर NJAC लाए जाने की चर्चा है तो इसका उद्देश्य न्याय प्रणाली को अधिक पारदर्शी और प्रभावी बनाना होना चाहिए ना कि न्यायपालिका पर दबाव बनाना।