बांग्लादेश आज अपना 55वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो भारत के साथ पाकिस्तान का भी जन्म हुआ था, इस्लाम को मानना वाला पाकिस्तान देश पूर्व और पश्चिम दो हिस्सों में बंटा हुआ था। बेशक ये दोनों हिस्से इस्लाम को मानते थे लेकिन भाषा और संस्कृति के मामले में एक-दूसरे से बहुत अलग थे। एक ओर पश्चिमी पाकिस्तान में पंजाबी, सिंधी, बलूची, पश्तो और अन्य स्थानीय भाषाओं के बोलने वाले लोग थे तो वहीं पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला भाषा बोली जाती थी। आज़ादी के अगले वर्ष ही बांग्लादेश में भाषा को लेकर विवाद शुरू हो गया था। 1948 में पाकिस्तान में उर्दू को राजकीय भाषा का दर्जा दे दिया गया और यह पूर्वी पाकिस्तान पर भी थोप दी गई जिनकी संस्कृति इससे अलग थी।
पश्चिमी पाकिस्तान के लोग खुद को ‘श्रेष्ठ’ समझते थे और पूर्वी पाकिस्तान की आबादी के साथ असमानता समेत हर तरह के भेदभाव किए जाते थे। पश्चिमी पाकिस्तान के लोग अपनी संस्कृति के वर्चस्व का प्रदर्शन करते और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की संस्कृति को हिंदू बताकर इसे शुद्ध करने की बातें कही जातीं। पूर्वी पाकिस्तान के लोगों में धीरे-धीरे इसे लेकर गुस्सा पनपता जा रहा था। पूर्वी पाकिस्तान में तब कोई प्रतिरोध भी होता तो पाकिस्तान की सेना द्वारा उसे आक्रामकता से दबा दिया जाता। ना केवल सांस्कृतिक तौर पर पूर्वी पाकिस्तान को दबाने की कोशिश हो रही थी बल्कि आर्थिक तौर पर भी वहां शोषण किया जा रहा था।
आर्थिक भेदभाव के अलावा पाकिस्तान में तब नौकरियों में जातीय, भाषाई और सांस्कृतिक भेदभाव आम बात थी और बीतते समय के साथ पूर्वी पाकिस्तान में रबींद्रनाथ टैगौर के संगीत और साहित्य पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस बीच वहां अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान की लोकप्रियता बढ़ रही थी और उन्होंने 1966 में संघीय संसदीय लोकतंत्र के लिए छह सूत्री आंदोलन की घोषणा कर दी। पाकिस्तान की सरकार को उनकी लोकप्रियता रास नहीं आ रही थी और शेख मुजीब पर देशद्रोह के आरोप लगाकर 1967 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
शेख मुजीब और कई अन्य बंगाली सैन्य अधिकारियों पर सरकार पर भारत के एजेंट्स के साथ मिलकर पाकिस्तान को विभाजित करने और इसकी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने की योजना में शामिल होने का आरोप लगाया गया था। दावा किया गया कि यह षड्यंत्र त्रिपुरा के अगरतला में किया गया था और इसे अगरतला षड्यंत्र केस ही नाम दिया गया। मुजीब की गिरफ्तारी के बाद पूर्वी बंगाल में आक्रोश फैल गया और बड़े पैमाने पर प्रदर्शन शुरू हो गए। फरवरी 1969 में शेख मुजीब से आरोप हटा दिए गए और उन्हें रिहा कर दिया गया। जब मुजीब कैद से बाहर आए तो वे निर्विवादित रूप से पूर्वी पाकिस्तान के नायक बन चुके थे। 23 फरवरी 1969 को छात्र नेता तुफैल अहमद के नेतृत्व में मुजीबुर रहमान के सम्मान में एक जनसभा आयोजित की गई और इसी सभा में तुफैल ने घोषणा की कि अब से शेख़ मुजीब को ‘बंग-बंधु’ के नाम से पुकारा जाएगा।

पूर्वी पाकिस्तान में जारी विरोध प्रदर्शनों के बीच 1970 में वहां आम चुनावों की घोषणा कर दी गई और इन चुनावों में शेख मुजीब की पार्टी ने पूर्वी पाकिस्तान की 169 सीटों में से 167 सीटें जीतीं और पाकिस्तान की संसद में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। 167 सीटें के सहारे आवामी लीग को पूर्ण बहुमत मिल गया था। उस समय तक पूर्वी पाकिस्तान में कई समूह अलग बांग्लादेश की वकालत कर रहे थे लेकिन मुजीब ने इसे लेकर कोई एलान नहीं किया था।

मार्च 1971 में पाकिस्तान की नैशनल असेंबली की बैठक ढाका में होनी थी जिसे राष्ट्रपति याह्या खान ने स्थगित कर दिया। इसके बाद पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह शुरू हो गए। कई शहरों में खुलेआम विद्रोह हुए तो मुजीब ने 7 मार्च को पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को संबोधित किया। इस दौरान उन्होंने कहा कि इस बार संघर्ष हमारी मुक्ति के लिए है और इस बार संघर्ष हमारी स्वतंत्रता के लिए है।

शेख मुजीब के इस भाषण के बाद पूर्वी पाकिस्तान में 17 दिनों तक असहयोग आंदोलन चलाया गया और इस दौरान अवामी लीग ने कर वसूलना शुरू कर दिया था। 23 मार्च 1971 को पाकिस्तान के गणतंत्र दिवस के मौके पर पूर्वी पाकिस्तान में बांग्लादेशी झंडे फहराए गए। एक और अवामी लीग और पाकिस्तानी सैन्य नेतृत्व के बीच
सत्ता का ट्रांसफर करने को लेकर बातचीत चल रही थी तो दूसरी ओर पाकिस्तान ने सैन्य तैयारी शुरू कर दी थी। 25 मार्च आते-आते यह वार्ता टूट गई और याह्या खान ने मार्शल लॉ घोषित कर ढाका छोड़ दिया। आवामी लीग पर प्रतिबंध लगा दिया गया और पाकिस्तानी सेना को मुजीब की गिरफ्तारी के आदेश दिए गए।
25 मार्च की देर रात और 26 मार्च के शुरुआती घंटों में शेख मुजीब ने एक टेलीग्राम चटगांव भेजा और वहां एम. ए. हन्नान और ईस्ट बंगाल रेजिमेंट के मेजर जियाउर रहमान ने मुजीब के टेलीग्राम मिलने के बाद स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इस टेलीग्राम में लिखा गया था, “यह मेरा आखिरी संदेश हो सकता है, आज से बांग्लादेश स्वतंत्र है। मैं बांग्लादेश के लोगों से आह्वान करता हूं कि आप जहां भी हों और जो कुछ भी आपके पास है, कब्जे वाली सेना का विरोध आखिरी दम तक करें। आपकी लड़ाई तब तक जारी रहनी चाहिए जब तक कि पाकिस्तानी कब्जे वाली सेना का आखिरी सैनिक बांग्लादेश की धरती से बाहर नहीं निकल जाता और अंतिम जीत हासिल नहीं हो जाती।”

मुजीब को अंतत: गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें पश्चिमी पाकिस्तान की जेल में भेज दिया गया। इस बीच पाकिस्तान की सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में आतंक मचाना शुरू कर दिया था। पाकिस्तानी सेना ने कट्टरपंथी संगठनों की मदद से लोगों को निशाना बनाया और बड़ी संख्या में महिलाओं के बलात्कार किए। बांग्लादेश के आधिकारिक पक्ष की मानें तो, पाकिस्तानी सेना ने कथित तौर पर 30 लाख लोगों को मारा था। इस बीच पाकिस्तान की सेना के जुर्म से पीड़ित लोगों ने बड़ी संख्या में भारत में शरण ली। उधर शेख मुजीब जेल में बंद थे और उनका कोर्ट मार्शल किया गया, मुजीब को मौत की सज़ा भी सुनाई गई लेकिन पाकिस्तान का सैन्य शासन उन्हें मार नहीं सका।
इस बीच पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ति वाहिनी ने भी गुरिल्ला युद्ध शुरू कर दिए थे, इनमें आम नागरिक, पूर्व सैनिक और छात्र शामिल थे। मुक्ति वाहिनी में लड़ने वाले लोगों को लेकर कहा गया कि इन्हें भारत की सेना ने प्रशिक्षित किया था। पाकिस्तानी की सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में अत्याचारों की इंतहा कर दी थी। 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया और भारत औपचारिक रूप से युद्ध में शामिल हो गया। पाकिस्तान ने ऑपरेशन चंगेज खान के तहत पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर और आगरा समेत कई भारतीय वायु सेना के कई ठिकानों को निशाना बनाया था। यह युद्ध पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर लड़ा जा रहा था। हालांकि, इसमें मुख्य लड़ाई पूर्वी पाकिस्तान में ही थी जहां भारत का लक्ष्य मुक्ति वाहिनी के साथ मिलकर बांग्लादेश को आज़ाद कराना था।
भारतीय सेना ने ‘ब्लिट्जक्रेग’ (तेज़ हमले) की रणनीति अपनाई और 16 दिसंबर तक पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल नियाज़ी ने 93,000 सैनिकों के साथ ढाका में आत्मसमर्पण कर दिया। संयुक्त राष्ट्र में युद्धविराम के प्रस्ताव आए लेकिन भारत ने इन्हें तब तक खारिज किया जब तक बांग्लादेश की आज़ादी सुनिश्चित नहीं हुई। सात जनवरी 1972 को शेख एक विशेष विमान के जरिए लंदन पहुंचे और वहां दो दिन रहने के बाद शेख ढाका के लिए रवाना हुए। भारत और इंदिरा गांधी को उनके योगदान के लिए धन्यवाद देने के लिए शेख कुछ घंटे के लिए दिल्ली में रुके थे।
आज़ादी के बाद बांग्लादेश को गरीबी, भुखमरी और राजनीतिक अस्थिरता का सामना करना पड़ा। 1975 में शेख मुजीब की हत्या और सैन्य तख्तापलट ने देश को अस्थिर किया लेकिन समय के साथ यह एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में उभर रहा था। हाल ही में शेख हसीना को तख्तापलट के ज़रिए प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया और मोहम्मद युनूस के नेतृत्व में बांग्लादेश की अंतरिम सरकार चल रही है।
कट्टरपंथ की और बढ़ता बांग्लादेश
बांग्लादेश की नींव 1971 में बंगाली राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर रखी गई थी। नवंबर 1972 में लागू हुए बांग्लादेश के मूल संविधान में ‘राष्ट्रवाद, समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता’ जैसे तत्वों को शामिल किया गया था। हालांकि, यह विचार लंबे समय तक टिकता उससे पहले ही 1975 में मुजीब की हत्या और उसके बाद सैन्य तख्तापलट ने इस दिशा को बदल दिया। लंदन टाइम्स ने 16 अगस्त 1975 के संपादकीय में लिखा, ‘अगर शेख मुजीब की इतनी दुखद हत्या हुई होती, तो बांग्लादेश को एक स्वतंत्र देश के रूप में उभरने की कोई ज़रूरत नहीं थी’।
जनरल जिया-उर-रहमान ने सत्ता संभालकर संविधान से धर्मनिरपेक्षता की भावना को हटाना शुरू कर दिया था। 1980 और 1990 के दशक में जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद ने इस्लामीकरण को और बढ़ावा दिया। इस्लाम को 1988 में राज्य धर्म घोषित किया गया। इस फैसले के बाद जमात-ए-इस्लामी जैसे कई कट्टर धार्मिक संगठनों को मजबूती मिलती गई और ये संगठन अलग-अलग क्षेत्रों में प्रभावी होते गए। सऊदी अरब से वित्तीय सहायता और वहाबी विचारधारा का प्रसार हुआ और इसके चलते मदरसों और धार्मिक संस्थानों को बढ़ावा दिया। इसने ग्रामीण और गरीब आबादी में कट्टरपंथी विचारों को जड़ें जमाने का मौका दिया।
कट्टरपंथ के बढ़ते प्रभाव के चलते वहां हिंदुओं समेत अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों पर खूब हमले हुए और हज़ारों-लाखों लोगों को मारा गया। शेख हसीना की सरकार ने कट्टरपंथ पर रोक लगाने की कोशिश की लेकिन राजनीतिक दबाव में जमात जैसे दलों को प्रतिबंधित करने में असफल रही। सोशल मीडिया और युवाओं में कट्टर विचारों का प्रसार भी बढ़ा। आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार और कमजोर संस्थानों ने असंतोष को बढ़ाया जिसे कट्टरपंथी समूहों ने खूब भुनाया।