चित्तौड़ का दूसरा जौहर: जब स्वाभिमान के लिए अग्नि में जलकर अमर हुईं रानी कर्णावती और 13000 क्षत्राणियां

रानी कर्णावती राजस्थान के बूंदी से थीं और मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़गढ़ के सिसोदिया राजवंश के राणा संग्राम सिंह के साथ उनका विवाह हुआ था

8 मार्च 1535 को रानी कर्णावती ने 13,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर कर लिया था

8 मार्च 1535 को रानी कर्णावती ने 13,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर कर लिया था

रानी पद्मिनी के जौहर की गाथा का ज़िक्र लोग शौर्य की एक अमिट कहानी के साथ-साथ इतिहास के एक काले अध्याय के रूप में भी करते हैं। रानी पद्मिनी ने 1303 में दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय अपने सम्मान की रक्षा के लिए हजारों क्षत्राणियों के साथ अग्निकुंड में प्रवेश कर लिया था। लेकिन जौहर की यह गाथा अकेली ऐसी गाथा नहीं है। आक्रांताओं की बर्बरता से खुद को बचाने के लिए रानियों ने मृत्यु के साथ कई बार साक्षात्कार किया है। आज ही के दिन यानी 8 मार्च को 1535 में चित्तौड़ की रानी कर्णावती (इतिहास में कई जगह कर्मवती या कर्मावती भी दर्ज है) ने बहादुर शाह की बर्बरता से खुद को बचाने के लिए 13,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर कर लिया था।

रानी कर्णावती राजस्थान के बूंदी से थीं और मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़गढ़ के सिसोदिया राजवंश के राणा संग्राम सिंह के साथ उनका विवाह हुआ था, संग्राम सिंह को राणा सांगा के नाम से भी जाना जाता है। राणा सांगा और रानी कर्णावती के दो बेटे विक्रमजीत और उदय सिंह थे। अपने समकालीन राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात के उत्तरी आधे हिस्से और अमरकोट, सिंध के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा करके और दिल्ली, मालवा और गुजरात के सुल्तानों के साथ 18 युद्ध लड़कर राणा सांगा ने साम्राज्य का विस्तार किया था।

खतौली के युद्ध में राणा सांगा ने इब्राहिम लोदी को बुरी तरह पराजित किया और इदर की लड़ाई में गुजरात के सुल्तान को हराया था। उन्होंने मुगलों के साथ दो लड़ाइयां लड़ी थीं जिनमें एक बयाना की लड़ाई थी इसमें राणा सांगा ने बयाना पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद बाबर के साथ खानवा में हुई लड़ाई के दौरान वे युद्ध क्षेत्र में घायल हो गए और उन्हें वहां से ले जाया गया। बाद में राणा सांगा को ज़हर दे दिया गया और 1528 में उनकी मृत्यु हो गई

1528 में सांगा की मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे रतन सिंह मेवाड़ के नए शासक बने। सांगा की विधवा और रतन सिंह की सौतेली मां कर्णावती ने अपने दो बेटों के साथ रणथंभौर में अपना घर बना लिया था। ‘ए हिस्ट्री ऑफ राजस्थान’ में रीमा हूजा लिखती हैं, “इस बीच राणा रतन सिंह और बूंदी के राव सूरजमल के बीच संबंध लगातार बिगड़ते गए। 1531 में शिकार अभियान के दौरान मिले अवसर का फायदा उठाकर उन्होंने सूरजमल पर जानलेवा हमला कर दिया। गंभीर रूप से घायल सूरजमल ने जवाबी कार्रवाई में अपना खंजर रतन सिंह पर घोंप दिया और उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया। मेवाड़ के रतन सिंह और बूंदी के सूरजमल दोनों का ही इन चोटों के चलते निधन हो गया। रतन सिंह की असामयिक मृत्यु के बाद मेवाड़ की गद्दी उनके सौतेले भाई विक्रमादित्य (कर्णावती के पुत्र) को सौंप दी गई।”

एक शासक के तौर पर विक्रमादित्य को लापरवाह माना जाता था। कहा जाता है कि वह जानबूझकर पुराने दरबारियों और सरदारों का अपमान करते थे जिसके चलते कई वफादार रिश्तेदार और मेवाड़ी सरदार राजधानी छोड़कर अपने जागीरदारों और जागीर भूमि पर चले गए। चित्तौड़ में हालात बहुत ठीक ना होने के चलते गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने 1532 में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए एक सेना भेजी। रानी कर्णावती ने राणा विक्रमादित्य को बूंदी भेज दिया और बहादुर शाह के साथ एक समझौते के तहत उन्हें उपहार और धन की पेशकश की गई जिसके बाद वह गुजरात चले गए। हालांकि, चित्तौड़ पर ये खतरा पूरी तरह टला नहीं था।

1534 आते-आते बहादुर शाह ने एक बार फिर चित्तौड़ पर हमला कर दिया था। इस दौरान रानी कर्णावती ने चित्तौड़ की रक्षा के लिए हथियार उठाने का आह्वान किया और इसके बाद सभी लोगों ने मेवाड़ की रक्षा और सम्मान के लिए अपनी मृत्यु तक लड़ने की कसम खा ली थी। जो लोग मेवाड़ छोड़ गए थे वे भी योद्धा-कुलों की परंपरा के मुताबिक ही वापस आ गए थे। ‘ए हिस्ट्री ऑफ राजस्थान’ में लिखा है, जो लोग आए उनमें, “सूरजमल (रावत बाग सिंह) के उत्तराधिकारी थे, जिन्होंने अपने पूर्वजों के निवास की रक्षा के लिए अपनी नई राजधानी देवला (देवलिया) को छोड़ दिया था। ‘बूंदी का बेटा’, पांच सौ हारों के एक बहादुर दल के साथ आया था; साथ ही झालोर और आबू के सोनीगुरा और देवड़ा राव भी आए थे, जिनके साथ रजवाड़ा के सभी हिस्सों से कई सहायक सैनिक आए थे।”

कहा जाता है कि इस दौरान ही कर्णावती ने सम्राट हुमायूं से भी सहायता मांगी थी और उन्हें अपना भाई कहकर संबोधित किया था। उन्होंने हुमायूं को एक राखी भेजी थी और उस समय हुमायूं मेवाड़ से बहुत दूर एक अलग मोर्चे पर बंगाल में शेरशाह सूरी की सेनाओं से लड़ रहे थे। हालांकि, कई इतिहासकारों का यह तर्क भी है कि हुमायूं की खुद की नज़र मेवाड़ पर थी और इसलिए वे मदद करना नहीं चाहते थे। कुछ विद्वान तो यहां तक कहते हैं कि बहादुरशाह के कहने पर वह सारंगपुर में ही रुक गया था।

हालांकि, तमाम दिक्कतों के बावजूद मेवाड़ के योद्धाओं ने लंबे समय तक बहादुर शाह की सेना का सामना किया था। रानी कर्णावती खुद इस युद्ध में कूद पड़ी थीं। इस दौरान राणा विक्रमादित्य चित्तौड़ में नहीं थे तो स्थितियां चित्तौड़ के लिए मुश्किल होती गईं। अंतत: युद्ध क्षेत्र पर बहादुर शाह का सेना का कब्ज़ा हो गया और 1535 में चित्तौड़ में एक बार फिर जौहर भी भयावहता दिखाई दी। पुरुष सैनिकों ने भी साका करने का फैसला कर लिया था। साका में महिलाओं को जौहर की ज्वाला में कूदने का निश्चय करते देख पुरुष केसरिया वस्त्र धारण करते थे और मरने-मारने के निश्चय के साथ दुश्मन सेना पर टूट पड़ते थे। चित्तौड़ के सैनिक तलवार और भाले लिए अपने घोड़ों पर सवार होकर अंतिम लड़ाई के लिए निकल गए थे।

इधर रानी कर्णावती ने जौहर की तैयारी कर ली थी, इधर सैनिक युद्ध मैदान में बहादुर शाह की सेना से अंतिम लड़ाई लड़ रहे थे तो उधर रानी और अन्य क्षत्राणियां जौहर के लिए तैयार थीं। 8 मार्च 1535 को रानी कर्णावती ने 13,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर कर लिया था। 1535 ई. के एक ताम्र-पत्र में रानी कर्णावती और अन्य क्षत्राणियों द्वारा जौहर किए जाने का उल्लेख मिलता है। 8 मार्च को चित्तौड़ के किले पर गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने कब्ज़ा कर लिया था। वहीं, युद्ध समाप्त होते ही हुमायूं की सेना भी वहां पहुंच गई जिसके चलते बहादुर शाह को चित्तौड़ के किले से वापसी करनी पड़ी। वहीं, इतिहासकार जी. एन. शर्मा का कहना है कि जून 1536 से पहले हुमायूं चित्तौड़ नहीं आया था और उनका मानना ​​है कि बहादुर शाह के पीछे हटते ही राजपूतों ने चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया था।

Exit mobile version