स्वतंत्रता यूं ही नहीं प्राप्त हुई, इसके पीछे मां भारती के असंख्य सपूतों का बलिदान शामिल है। उन बलिदानियों ने मां भारती की सेवा के बदले कभी अपने यश-कीर्ति की चाह नहीं रखी, किसी प्रकार के इनाम की उम्मीद नहीं रखी लेकिन इनाम तो दूर कुछ ऐसे क्रांतिदूत भी हुए, जिन्हें न सिर्फ ग़लत समझा गया, अपमान का दंश भी झेलना पड़ा। ऐसे ही एक क्रांतिकारी का नाम था काशीराम। वर्ष 1883 में ग्राम बड़ी मढ़ौली (अम्बाला) में पण्डित गंगाराम के घर में जन्मे काशीराम की अपने ही देश में डाकू समझ कर हत्या कर दी गई।
शिक्षा पूरी करने के बाद काशीराम हॉन्ग-कॉन्ग के रास्ते अमरीका पहुंचे और विस्फोटक बनाने की एक फैक्ट्री में काम करने लगे। कुछ दिन बाद उन्होंने एक टापू पर सोने की खान का ठेका लिया, जल्दी ही उन्होने काफी पैसे कमाए और उनकी गिनती वहां के प्रतिष्ठित और धनाढ्य लोगों में होने लगी, लेकिन भारत के हालात उन्हें बेचैन करते रहे। आख़िरकार एक दिन वो सब छोड़कर भारत आ गये। सबसे पहले वो अपने गाँव पहुंचे और फिर बैंक में जमा पैसे निकालने की बात कह कर वहां से रवाना हो गए और फिर कभी गाँव वापस नहीं लौटे।
हॉन्ग-कॉन्ग और अमेरिका में रहने के दौरान ही वो ग़दर पार्टी और दूसरे क्रांतिकारियों के संपर्क में आ चुके थे। पंजाब में जिस क्रांतिकारी संगठन के साथ वो जुड़े थे, उसने हथियार खरीदने के लिए मोगा के सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई। योजना के मुताबिक़ 27 नवम्बर, 1914 को दिन के एक बजे 15 नवयुवक तीन इक्कों में सवार होकर फिरोजपुर की ओर चल दिये। रास्ते मे मिश्रीवाला गाँव पड़ता था। वहाँ थानेदार बशारत अली तथा जेलदार ज्वालसिंह कुछ सिपाहियों के साथ पुलिस अधीक्षक का इंतज़ार कर रहे थे। उनकी निगाह इन युवकों पर पड़ी, तो उन्होंने इक्कों को रुकने का इशारा किया। लेकिन जब वो नहीं रुके, तो थानेदार ने एक सिपाही को उनके पास भेजा।
युवकों ने जवाब दिया कि वो सब सरकारी कर्मचारी हैं और सेना में नए जवानों की भर्ती के लिए मोगा जा रहे हैं। लेकिन थानेदार उनके इस जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ और उसने उन्हें रोक लिया। थानेदार ने कहा कि जब तक पुलिस कप्तान के आने के बाद उनकी मंजूरी के बिना किसी को आगे नहीं जाने दिया जाएगा। क्रांतिकारी नवयुवकों को लगा कि कहीं उनका भेद न खुल जाए, ऐसे में जगतसिंह नाम के एक क्रांतिकारी ने अपनी पिस्तौल निकाली और थानेदार के साथ उस सिपाही को भी ढेर कर दिया। डरे हुए बाकी पुलिसकर्मी भागकर गाँव में छिप गये और डाकुओं के हमले का शोर मचाने लगे।
गोलियों की आवाज़ और पुलिसवालों की चीख-पुकार सुन गांववालों को भी यही लगा। जल्दी ही सैकड़ों की संख्या में लोग वहां एकजुट हो गए। इनमें से ज़्यादातर के पास बन्दूक, फरसे और भाले जैसे हथियार भी थे। एक तरफ़ तो पुलिस और दूसरी तरफ़ हथियारबंद गांववाले। गांववालों को समझाने का समय नहीं था, ऐसे में क्रान्तिवीरों ने भागना ही ठीक समझा। इनमें छह युवक तो ‘ओगाकी’ गाँव की ओर भागे, जबकि बाकी नौ वहीं नहर के आसपास सरकण्डों के पीछे छिप गये।
सरकण्डों में क्रांतिकारियों को छिपा देख, गांववालों ने सरकण्डों के झुण्ड में अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दीं। पुलिस वाले भी उनका साथ दे रहे थे। फायरिंग में एक युवक मारा गया। अपने साथी को मृत देख, बाकी सभी क्रान्तिकारी बाहर आ गये। उन्होंने चिल्लाकर गांववालों को समझाना चाहा कि वो डाकू नहीं, क्रांतिकारी हैं, और देश की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ रहे हैं, लेकिन गांववालों ने इसे मानने से इनकार कर दिया। आख़िरकार सभी 8 क्रांतिकारी पकड़ लिए गए। फिरोजपुर के सेशन न्यायालय में मुकदमा चला और 13 फरवरी, 1915 को सात लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई।
फांसी की सजा पाने वालों में एक क्रांतिकारी काशीराम भी थे। उनकी सारी चल-अचल सम्पत्ति जब्त कर ली गयी और 27 मार्च 1915 को यानी आज के ही दिन उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए एक समृद्ध और ख़ुशहाल जीवन छोड़कर भारत आने वाले काशीराम को डाकू मान लिया गया, जबकि वो भारत की स्वतंत्रता के लिए क़ुर्बान हुए थे।