इलाहाबाद हाईकोर्ट के ‘रेप की कोशिश’ से जुड़े मामले को लेकर दिए एक फैसले के बाद लगातार विवाद हो रहा है और कई दिनों के इंतज़ार के बाद आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की भी नींद टूट गई है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (26 मार्च) को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विवादित आदेश पर रोक लगा दी है। दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि किसी नाबालिग पीड़िता के स्तनों को पकड़ना या उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ना बलात्कार या बलात्कार का प्रयास के तहत अपराध नहीं है और इस फैसले के बाद महिलाओं सुरक्षा को लेकर बहस शुरू हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर रोक लगाते हुए यह फैसले देने वाले जज को खूब खरी-खरी सुनाई है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया था और जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही थी। ‘बार ऐंड बेंच’ की रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह आदेश हाईकोर्ट के न्यायाधीश की ओर से संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “हमें यह कहते हुए बहुत कष्ट हो रहा है कि यह निर्णय लिखने वाले की ओर से संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है। यह (उच्च न्यायालय का आदेश) तत्काल नहीं था और इसे सुरक्षित रखने के चार महीने बाद सुनाया गया। इस प्रकार, इसमें विवेक का प्रयोग किया गया। हम आमतौर पर इस स्तर पर स्थगन देने में हिचकिचाते हैं। लेकिन चूंकि अनुच्छेद 21, 24 और 26 में की गई टिप्पणियां कानून के सिद्धांतों से अनभिज्ञ हैं और अमानवीय दृष्टिकोण को दर्शाती हैं, इसलिए हम उक्त अनुच्छेदों में की गई टिप्पणियों पर रोक लगाते हैं।”
जस्टिस बीआर गवई ने हाईकोर्ट के जज के खिलाफ ‘कठोर शब्दों के इस्तेमाल के लिए खेद जताते’ हुए कहा, “यह एक गंभीर मामला है और यह न्यायाधीश की ओर से पूरी तरह असंवेदनशीलता है।”
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार और उच्च न्यायालय के समक्ष पक्षकारों को नोटिस जारी करते हुए उनसे जवाब मांगा है और अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से भी सहायता मांगी है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने क्या कहा था?
जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा ने नाबालिग पीड़िता के साथ किए गए गंभीर यौन उत्पीड़न को लेकर अपने आदेश में कहा था…
“पवन और आकाश के खिलाफ यह आरोप है कि उन्होंने पीड़िता के स्तनों को पकड़ लिया और आकाश ने उसके निचले वस्त्र को नीचे खींचने का प्रयास किया। उन्होंने पीड़िता के पायजामे का नाड़ा तोड़ दिया और उसे पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश की लेकिन गवाहों के हस्तक्षेप के कारण वे पीड़िता को छोड़कर घटना स्थल से भाग गए। यह तथ्य यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त नहीं है कि अभियुक्तों ने पीड़िता के साथ बलात्कार करने का निश्चय किया था क्योंकि इन तथ्यों के अलावा उन पर कोई अन्य ऐसा कार्य करने का आरोप नहीं लगाया गया जो बलात्कार की मंशा को सिद्ध करे।”
“शिकायत या सीआरपीसी की धारा 200/202 के तहत दर्ज गवाहों के बयान में कहीं भी यह आरोप नहीं लगाया गया कि अभियुक्त आकाश ने पीड़िता के पायजामे का नाड़ा तोड़ने के बाद उत्तेजना महसूस की थी। आकाश के खिलाफ आरोप यह है कि उसने पीड़िता को पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश की और उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ दिया। गवाहों ने यह भी नहीं कहा कि इस घटना के कारण पीड़िता नग्न हो गई या उसके कपड़े पूरी तरह उतर गए। ऐसा कोई आरोप नहीं है कि अभियुक्त ने पीड़िता के साथ लैंगिक संपर्क (penetrative sexual assault) करने का प्रयास किया था।”
“अभियुक्त पवन और आकाश के खिलाफ लगाए गए आरोप और मामले के तथ्य इस अपराध को बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं रखते हैं। बलात्कार के प्रयास का आरोप सिद्ध करने के लिए यह आवश्यक है कि अभियोजन यह साबित करे कि यह अपराध केवल तैयारी (preparation) की अवस्था तक सीमित नहीं था बल्कि अपराध को अंजाम देने की दिशा में ठोस कदम उठाए गए थे। किसी अपराध की तैयारी और उसके वास्तविक प्रयास के बीच मुख्य अंतर दृढ़ निश्चय (determination) की तीव्रता में होता है।”
हाईकोर्ट के इस फैसले का ना केवल पक्षकारों ने बल्कि सामाजिक राजनीतिक क्षेत्र के कई लोगों ने विरोध किया था। इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई थी। हालांकि, 24 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने जनहित याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया था और बाद में स्वत: संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई की है।