यह उन दिनों की बात है जब भारत की राजनीति में दो मुख्य विचारधाराएं उभर रही थीं। जहाँ कांग्रेस अपने प्रस्तावों के द्वारा भारतवासियों के लिए अधिक से अधिक अधिकारों की मांग कर रही थी, तो वहीं क्रान्ति की मशाल जलाए कुछ जाँबाज़ क्रांतिदूत अलग ही इरादा ठान कर बैठे थे। इन दीवाने युवकों का मानना था कि अगर अंग्रेजों की सत्ता उखाड़नी है तो सशस्त्र विद्रोह ही एक मात्र रास्ता है। आगे चलकर जब अंग्रेज़ सरकार ने हिंदुस्तान में अपना राज क़ायम रखने के लिए फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई और वर्ष 1905 में धर्म के आधार पर ‘बंगाल का विभाजन’ किया तो सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन को इससे और भी बल मिला।
महाराष्ट्र में ‘अभिनव भारत’ नाम के एक युवक संगठन की नींव पड़ी और ये संगठन अखाड़ों के माध्यम से क्रान्ति की भावना फैलाने में जुट गया। विनायक दामोदर सावरकर और उनके भाई गणेश सावरकर इस संगठन के प्रमुख व्यक्ति थे। आजादी के इस आन्दोलन से प्रभावित होकर एक और युवक अभिनव भारत की मंडली में शामिल हो जाता है- नाम था अनंत लक्ष्मण कन्हेरे।
आन्दोलन के चलते अब सावरकर पर कड़ी नज़र रखी जाने लगी थी। सावरकर के लन्दन प्रवास के अंतिम दिनों में भारत में उनके परिवार पर तो अंग्रेजों ने कहर ढा रखा था और परिवार पर विपत्तियों का पहाड़ टूट रहा था। जैक्सन नाम का एक अंग्रेज़ अधिकारी क्रांतिकारियों के ऊपर नज़र रखता था। जैक्सन संस्कृत भाषा को समझता था और वह लोगों से मराठी में बात करने के अलावा उनसे संस्कृत के बारे में भी अक्सर चर्चा करता था। वह लोगों को यह कहकर फुसलाता था कि वो तो पूर्व जन्म में वैदिक-साक्षर ब्राह्मण था। इसी जैक्सन की वजह से बाबा साहब को गिरफ़्तार किया गया था। उनका दोष सिर्फ़ इतना ही था कि उन्होंने कवि गोविन्द की कविताओं की एक पुस्तक का प्रकाशन करवाया था।
अंग्रेजों के अत्याचार बढ़ते जा रहे थे, ऐसे में किसी न किसी के सीने में तो आग लगनी ही थी। चिंगारी तो कई सीनों में भड़क रही थी लेकिन इस बार शोले भड़के थे अनंत लक्ष्मण कन्हेरे के सीने के अंदर। कृष्णजी कर्वे के नेतृत्व में एक क्रांतिकारी गुट जैक्सन को सज़ा देने का मन बना लेता है। तभी जैक्सन को मुंबई के आयुक्त के पद पर पदोन्नत किये जाने की ख़बर आती है। कृष्णाजी कर्वे, विनायक देशपांडे और अनंत कन्हेरे जैक्सन के स्थानांतरण से पहले ही उसे उसे ख़त्म करने का फ़ैसला लेते हैं। पता चलता है कि नासिक निवासीगण, विजयानंद थिएटर में जैक्सन के लिए विदाई समारोह का आयोजन करने वाले हैं। अनंत ख़ुद जैक्सन को मारने की ज़िम्मेदारी लेते हैं।
मूल योजना यह थी कि अनंत का प्रयास विफल होने पर विनायक देशपांडे जैक्सन को गोली मारेगा। अगर ये दोनों विफल रहे तो कर्वे के पास भी हथियार था।
प्लान विफल रहने, या पकड़े जाने की स्थिति में अभिनव भारत को नुक़सान न पहुंचे, इसलिए लक्ष्मण तय करते हैं कि वो जीवित अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे और इसके लिए वो अपने पास ज़हर रख लेते हैं, ताकि पकड़े जाने पर उसका इस्तेमाल कर सकें।
आख़िरकार 21 दिसंबर 1909 को, जब जैक्सन नाटक देखने पहुँचा तो अनंत लक्ष्मण कन्हेरे ने सामने से आकर पिस्तौल से उन पर चार गोलियाँ चला दीं। भारतीय अधिकारियों में से एक, पलशीकर और मारुतराव ने वहाँ मौजूद अन्य लोगों की सहायता से अनंत को पकड़ लिया। अनंत ना तो खुद को गोली मार पाए और न ही ज़हर खा पाए। उस वक्त वो महज़ 18 वर्ष के थे। केस चला तो अनंत ने हत्या में अपनी भूमिका ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर ली। 19 अप्रैल 1910 यानी आज के ही दिन अनंत लक्ष्मण कन्हारे को 19 वर्ष की उम्र में ठाणे जेल में फांसी दे दी गई थी। उनके साथ कृष्णाजी कर्वे और विनायक देशपांडे को भी फाँसी पर चढ़ा दिया गया। मामले के अन्य आरोपियों शंकर रामचंद्र सोमन, नारायण जोशी और गणेश बालाजी वैद्य को आजीवन कारावास की सज़ा दी गयी थी साथ ही दत्तात्रेय पांडुरंग जोशी को भी दो साल के कठोर कारावास की सज़ा सुनाई गयी थी।
इन क्रांतिदूतों की अस्थियां तक उनके परिजनों को नहीं सौंपी गई, बल्कि अंग्रेज़ों ने उन्हें भी ठाणे के पास समुद्र में फेंक दिया था। अनंत लक्ष्मणराव कन्हारे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन नायकों में शामिल हैं, जिन्होने ब्रितानी हुकूमत के ख़िलाफ़ न सिर्फ क्रांति की मशाल थामी, बल्कि उसे ज्वाला में बदलने के लिए अपने प्राण भी दिए। इस बलिदान के बावजूद उन्हें इतिहास में वो स्थान नहीं मिला जिसके वो हकदार थे। या फिर स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों के पास इतनी गुंजाइश नहीं थी कि वो बड़े-बड़े खद्दरधारी नेताओं के जीवनचरित्र के अतिरिक्त कुछ जगह अनंत कन्हारे जैसे युवा क्रांतिकारियों के लिए भी बचा पाते।
(साभार: डॉ मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखित ‘क्रांतिदूत’ पुस्तक श्रंखला)