पश्चिम बंगाल हिंसा की आग में जल रहा है। हिंदुओं के घरों-दुकानों, होटलों को निशाना बनाकर हमला किया जा रहा है। हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाने वाले पिता-पुत्र की घर में घुसकर पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। इन हमलों के पीछे कट्टरपंथी भीड़ है, जो वक्फ कानून के विरोध के नाम पर जुमे की नमाज के बाद भड़की और हिंदुओं को टारगेट करती चलती गई। इसका परिणाम यह है कि हिंदू घर छोड़कर पलायन करने को मजबूर हो गए हैं।
वास्तव में देखें तो ऐसा पहली बार नहीं है जब मजहबी भीड़ बंगाल में हिंदुओं को निशाना बनाकर हमला कर रही हो। ऐसा लगता है बीते कई दशकों से पश्चिम बंगाल में हिंदुओं पर हमले करने की मानो परंपरा शुरू गई चुकी हो, जो अब तक चली आई हो। पहले कांग्रेस सरकार, फिर वामपंथियों के शासन और अब ममता बनर्जी सरकार में हिंदू लगातार दोयम दर्जे का जीवन जीने को मजबूर होते जा रहे हैं।
हिंदुओं के त्योहार मनाने पर रोक लगाने की बात हो या फिर मंदिरों में हो रही तोड़-फोड़ हो या फिर घरों में घुसकर हिंदुओं की बहन-बेटियों के साथ बलात्कार करने, घरों में आग लगाने और या फिर कट्टरपंथी भीड़ द्वारा हिंदुओं की हत्या करने के मामले हों। इन सबके पीछे सिर्फ असामाजिक तत्व नहीं बल्कि मजहबी भीड़ है और सोची-समझी साजिश रचने वाली राजनीतिक शक्तियां हैं।
आज जब वक्फ संशोधन कानून का विरोध करने के नाम पर पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में मजहबी भीड़ लगातार हिंसक घटनाओं को अंजाम दे रही है, तब लोगों को आजाद भारत से ठीक एक साल पहले हुए हिंदुओं के नरसंहार की याद आ रही है और उस याद के चलते रूह कांप जा रही है।
क्या हुआ था तब?:
भारत की आजादी से ठीक एक साल पहले, 16 अगस्त 1946 को देश ने धार्मिक कट्टरता का वह भयावह रूप देखा, जो दशकों तक लोगों के जेहन में रहा। मुस्लिम लीग के नेता और पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने इस दिन ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की घोषणा की थी। इसके बाद कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में लाखों मुस्लिम एकत्र हुए और कुछ ही घंटों में हजारों हिंदुओं की हत्या कर दी गई थी। इस क्रूर नरसंहार, जिसे ‘द ग्रेट कलकत्ता किलिंग’ भी कहा गया, में मारे गए हिंदुओं की सटीक संख्या का अंदाजा आज तक नहीं लगाया जा सका।
दरअसल, साल 1946 में स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था और ब्रिटिश शासन भी अपने अंतिम दौर में था। अंग्रेजों ने सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने भारत में तीन सदस्यों वाला एक कैबिनेट मिशन भेजा था, जिसका उद्देश्य सत्ता हस्तांतरण की योजना को अंतिम रूप देना था।
16 मई 1946 को कैबिनेट मिशन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के साथ चर्चा की। यह तय हुआ कि एक भारतीय गणराज्य स्थापित होगा, जिसे सत्ता सौंपी जाएगी। लेकिन मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने अविभाजित भारत के उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों में एक अलग स्वायत्त और संप्रभु देश की मांग करते हुए और संविधान सभा का बहिष्कार कर दिया था।
साथ ही जुलाई 1946 में जिन्ना ने मुंबई में अपने आवास पर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा था कि मुस्लिम लीग ‘पाकिस्तान’ के लिए संघर्ष करेगी और यदि उनकी मांग पूरी न हुई तो ‘डायरेक्ट एक्शन’ होगा और फिर 16 अगस्त को ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ घोषित किया।
हिंदुओं के खून से रंगा गया कलकत्ता
15 अगस्त, 1946 तक किसी को नहीं पता था कि ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का मतलब क्या है। जिन्ना ने पूरे देश को इसकी धमकी दी थी, लेकिन बंगाल, जहां मुस्लिम लीग की सरकार थी और हसन शहीद सुहरावर्दी मुख्यमंत्री थे, वहां यह हिंसा चरम पर पहुंची। सुहरावर्दी पर हिंदुओं के खिलाफ इस नरसंहार की साजिश रचने का आरोप लगा।
16 अगस्त 1946 की सुबह तक सब सामान्य था, लेकिन दोपहर होते-होते कोलकाता के विभिन्न हिस्सों से तोड़फोड़, आगजनी और पथराव की खबरें आने लगीं। किसी को नहीं पता था कि ये घटनाएं भयानक नरसंहार में बदल जाएंगी। कोलकाता और आसपास के क्षेत्रों में मुस्लिमों की भीड़ जमा होने लगी। नमाज के समय मुस्लिमों का इकट्ठा होना आम था, लेकिन उस दिन उनकी संख्या असामान्य थी। दोपहर 2 बजे की नमाज के बाद लाखों मुस्लिम जमा हो गए, जिनमें से कई के पास लोहे की छड़ें और लाठियां थीं। ख्वाजा नजीमुद्दीन और सुहरावर्दी के उत्तेजक भाषणों के बाद यह भीड़ हिंसक हो गई और हिंदुओं पर टूट पड़ी।
रिपोर्ट्स के अनुसार, उस दिन मुस्लिमों की संख्या 5 लाख से अधिक हो सकती थी। दावा तो यहाँ तक किया जाता है कि ट्रकों में हथियारबंद मुस्लिमों को बाहर से लाया गया था। इसके बाद भीड़ ने हिंदुओं को निशाना बनाना शुरू किया। राजा बाजार, केला बागान, कॉलेज स्ट्रीट, हैरिसन रोड और बर्राबाजार जैसे इलाकों में हिंदुओं के घर और दुकानें जला दी गईं। शाम तक कर्फ्यू लागू हुआ और रात 8-9 बजे तक सेना की तैनाती शुरू हुई।
लोगों को लगा कि स्थिति नियंत्रण में आ जाएगी, लेकिन 17 अगस्त की सुबह हिंसा और भयावह हो गई। हिंदुओं को चुन-चुनकर मारा गया, महिलाओं का बलात्कार हुआ और उनकी संपत्तियां नष्ट कर दी गईं। नोआखाली में भी हिंदुओं का भीषण नरसंहार हुआ। जहां सेना पहुंची, वहां स्थिति कुछ संभली, लेकिन स्लम और ग्रामीण इलाकों में हिंसा अनियंत्रित रही।
सुहरावर्दी की हरकत:
बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री हुसैन सुहरावर्दी अपने भड़काऊ बयानों के लिए जाने जाते थे। कई इतिहासकार मानते हैं कि 16 अगस्त को कलकत्ता में हुई हिंसा के लिए सुहरावर्दी के कार्य और रवैये मुख्य रूप से जिम्मेदार थे। इस दावे के समर्थन में दो मुख्य बिंदु हैं।
पहला यह कि हिंसा से पहले सुहरावर्दी ने कई भाषण दिए, जो उनकी मौन सहमति यदि वह हिंसा के सक्रिय नहीं थे तब, हिंसा के प्रति संकेत करती है। नरसंहार से पहले ठीक पहलेएक विशाल जनसभा में सुहरावर्दी ने कथित तौर पर कहा था कि उन्होंने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ पर पुलिस को ‘नियंत्रित’ करने के उपाय कर लिए हैं। इससे ऐसा लगता है कि इसके जरिए दंगाइयों को खुला निमंत्रण दिया गया था।
दूसरा यह कि जब हिंसा भड़की, तो सुहरावर्दी ने पुलिस को रोकने की भरपूर कोशिश की थी। सुहरावर्दी खुद पुलिस कंट्रोल रूम में मौजूद रहे और प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, उन्होंने पुलिस आयुक्त को स्वतंत्र रूप से काम करने से रोकने की कोशिश की। यूके अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज को देखें तो उस समय फोर्ट विलियम में तैनात एक ब्रिटिश अधिकारी ने लिखा था, “मेरी निजी राय है कि सुहरावर्दी ने पूरी तरह यह अनुमान लगा लिया था कि क्या होने वाला है और हिंसा को भड़कने दिया। संभवतः अपने गुंडा गिरोहों के साथ इस उपद्रव को संगठित किया।”
इतिहासकार जोया चटर्जी अपनी किताब Bengal Divided: Hindu communalism and partition, 1932-1947 में लिखती हैं, “हिंसा आंशिक रूप से मुस्लिम लीग के नेतृत्व और कार्यकर्ताओं के बढ़ते अहंकार का परिणाम थी, जो हाल के चुनावों में अपनी सफलता से उत्साहित थे और बंगाल के लिए किसी न किसी रूप में पाकिस्तान हासिल करने की अपनी क्षमता पर आश्वस्त थे; और आंशिक रूप से यह हिंदुओं के उस दृढ़ संकल्प से उपजा, जो वे ‘मुस्लिम अत्याचार’ मानते थे, उसका विरोध करने के लिए तैयार थे। सुहरावर्दी स्वयं इस रक्तपात के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं, क्योंकि उन्होंने हिंदुओं को खुली चुनौती दी और दंगों को रोकने में घोर लापरवाही बरती।
मृतकों की संख्या:
16 अगस्त की दोपहर से शुरू हुआ हिंदुओं का नरसंहार 5 दिन तक जारी रहा। 20 अगस्त को जब हिंसा थमी तब तक कलकत्ता की सड़कें हिंदुओं के खून से रंग चुकी थीं। हिंदुओं को कोलकाता छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। अनुमान है कि 72 घंटों में करीब 6000 हिंदुओं की हत्या हुई और 20000 से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हुए। इतना ही नहीं इस हिंसा के चलते करीब 1 लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़कर पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर बारीकी से नजर रखने वाले अमेरिकी पत्रकार फिलिप टैलबॉट ने, ‘इंस्टीट्यूट ऑफ करंट वर्ल्ड अफेयर्स’ को लिखे पत्र में डायरेक्ट एक्शन डे के बाद हुई मौतों का जिक्र किया था। उन्होंने लिखा था
“राज्य सरकार ने मृतकों की संख्या 750 बताई थी, जबकि सेना का अनुमान 7,000 से 10,000 के बीच है। 3,500 शव तो एकत्र कर लिए गए थे, लेकिन यह कोई नहीं जानता कि हुगली नदी में कितने शव फेंके गए या शहर के बंद नालों में कितने लोग दम घुटने से मरे। 200 के लगभग हुई भीषण आगजनी की घटनाओं में कितने लोग जला दिए गए और कितने लोगों का उनके रिश्तेदारों ने चुपचाप अंतिम संस्कार कर दिया। सामान्य अनुमान के अनुसार, मृतकों की संख्या 4000 से अधिक और घायलों की संख्या लगभग 11000 थी।”
हालांकि, जिस तरह मुस्लिम भीड़ ने कोलकाता और आसपास के क्षेत्रों में हिंसा फैलाई, उससे नहीं लगता कि मृत हिंदुओं की संख्या इतनी कम रही होगी। बड़ी संख्या में हिंदुओं के शव नदियों में फेंके गए, जिससे सटीक आंकड़ा जानना असंभव है। स्थानीय प्रत्यक्षदर्शी जुगल चंद्र घोष ने कहा था कि उन्होंने चार ट्रक देखे, जिनमें 3 फीट ऊंचाई तक शव भरे थे, जिनसे खून और अंग बाहर निकल रहे थे। एक अन्य गवाह ने कहा था कि 17 अगस्त को कोलकाता की सड़कों पर सिर्फ ‘अल्लाह-हु-अकबर’, ‘नारा-ए-तकबीर’, ‘लड़ के लेंगे पाकिस्तान’ और ‘कायदे आजम जिंदाबाद’ के नारे गूंज रहे थे।
लेकिन….हमेशा की तरह, हिंदुओं की मौतें इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गई। इसके बाद हालात ऐसे बने कि ज्यादातर हिंदू कोलकाता लौट ही नहीं पाए और जो लौटे, उनके पास कुछ नहीं बचा था। लेकिन आंकड़ों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण वह विचारधारा है, जिसने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के दौरान बंगाल में हिंदुओं का कत्लेआम करवाया। यही वह मानसिकता है, जिसके चलते दिल्ली दंगों में हिंदुओं की हत्याएं हुईं और गुजरात के गोधरा में रामभक्तों को ट्रेन में जिंदा जलाया गया।
तथागत रॉय की पुस्तक ‘My People, Uprooted: A Saga of the Hindus of Eastern Bengal’ में वर्णन है कि कैसे मुस्लिमों ने सुनियोजित ढंग से हिंदू-विरोधी दंगों की तैयारी की और 16 अगस्त 1946 को इसे नरसंहार में बदल दिया। कलकत्ता के मेयर और कलकत्ता मुस्लिम लीग के सचिव एसएन उस्मान ने बांग्ला भाषा में लिखे हुए पत्रक बाँटे थे जिनमें लिखा हुआ था, “काफेर! तोदेर धोंगशेर आर देरी नेई। सार्बिक होत्याकांडो घोतबे”, जिसका मतलब था, “काफिरों! तुम्हारा अंत अब ज्यादा दूर नहीं है। अब हत्याकांड होगा।”
‘डायरेक्ट एक्शन डे’ इतिहास से एक कड़वा सबक देता है, (जिसे लिबरल और वामपंथी इस्लामोफोबिया करार देंगे) कि जहां भी इस्लामी कट्टरपंथ सत्ता में पहुंचता है, वहां खूनखराबा होता है। ऐसा खूनखराबा, जिसका जिक्र सदियों तक होता है। भारत में इस्लामी शासन के दौरान हिंदुओं का नरसंहार इसका ऐतिहासिक उदाहरण है। आधुनिक समय में इराक, सीरिया, नाइजीरिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हो रही घटनाएं भी इसे सत्यापित करती हैं। हमें यह समझना होगा कि ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ कम एक अलग देश की मांग और ज्यादा मुस्लिम कट्टरपंथियों की हिंदू नरसंहार की धार्मिक इच्छा का प्रतीक था।
अब अगर देखें तो, पश्चिम बंगाल में आज जो हो रहा है उसमें भी TMC नेताओं पर भी BJP ने लोगों को भड़काने का आरोप लगाया है। यहां तक कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कहा था कि वह बंगाल में वक्फ संशोधन कानून लागू नहीं होने देंगी। इसके अलावा प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि हिंसा के दौरान पुलिस मौके पर मौजूद नहीं थी और जिन इलाकों पर पुलिस तैनात भी थी तो अपनी जान बचाते भाग रही थी। इतना ही नहीं, हिंसक घटनाओं के चलते कलकत्ता हाई कोर्ट ने केन्द्रीय बलों की तैनाती करने के लिए भी कहा है। इससे भी यह स्पष्ट है कि बंगाल पुलिस हिंसा रोकने में असमर्थ थी। इसके चलते करीब 400 हिंदू घर छोड़कर पलायन करने को मजबूर हो गए हैं।