हर साल 11 अप्रैल को हम उस महान समाज सुधारक को याद करते हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाज के वंचित और शोषित वर्गों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। महात्मा ज्योतिबा फुले, जिनका जन्म महाराष्ट्र के सतारा में हुआ था, उन विरले विचारकों में से थे जिन्होंने जाति, वर्ग और लिंग आधारित भेदभाव को खुली चुनौती दी। बुद्ध और कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले फुले, न केवल एक समाज सुधारक थे बल्कि डॉ. भीमराव आम्बेडकर के लिए भी प्रेरणा स्रोत थे। आम्बेडकर ने स्वयं उन्हें अपना ‘तीसरा गुरु’ माना था यह इस बात का प्रमाण है कि फुले की सोच कितनी गहराई तक भारतीय समाज पर असर छोड़ गई।
उस दौर में, जब स्त्रियों को शिक्षा से दूर रखा जाता था, महात्मा फुले ने अपने कदमों से इतिहास की धारा मोड़ी। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ाकर नारी शिक्षा की मशाल जलाई, जो आगे चलकर देश की पहली महिला शिक्षिका बनीं । ऐसे में उनके जयंती पर आइए इस लेख के माध्यम से आपको बताते हैं कि किस तरह से महात्मा ज्योतिबा फुले ने शिक्षा और समाज सुधार के क्षेत्र में कैसे ऐतिहासिक योगदान दिया, और किस तरह उनके विचारों ने आने वाली पीढ़ियों को विशेषकर डॉ. आम्बेडकर को एक नया दृष्टिकोण दिया।
प्रारंभिक जीवन
महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पुणे शहर में हुआ था। उनके पिता श्री गोविंदराव फुले खेती-बाड़ी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे, और इसी कारण परिवार को ‘फुले’ उपनाम से जाना गया। उस दौर में महाराष्ट्र सहित पूरे भारत में छुआछूत और जातीय भेदभाव की जड़ें गहराई तक फैली हुई थीं। हालात इतने अमानवीय थे कि अछूत जाति के लोगों को सड़क पर चलते हुए अपने पीछे झाड़ू बाँधना और गले में थूकने के लिए लोटा लटकाना पड़ता था ताकि ‘सवर्ण समाज’ उनके स्पर्श से ‘अपवित्र’ न हो जाए।
ज्योतिबा का जन्म भी एक ऐसी ही वंचित जाति में हुआ था। वे केवल एक वर्ष के थे जब उनकी माँ का निधन हो गया। उन दिनों अछूत जातियों के बच्चों के लिए स्कूल जाना लगभग असंभव था, लेकिन गोविंदराव ने समाज के दबाव के बावजूद अपने बेटे को पढ़ने भेजा। खेतों में फूलों की देखभाल करने के दौरान भी ज्योति पढ़ने का समय निकाल लेते थे, और धीरे-धीरे वे सातवीं कक्षा तक पहुँच गए।
केवल 13 वर्ष की उम्र में उनका विवाह आठ वर्षीय सावित्रीबाई फुले से हुआ। ज्योतिबा की पढ़ाई के प्रति लगन देखकर उनके पड़ोसी मुंशी गफ्फार और मिशनरी स्कूल के पादरी लेजिट ने उन्हें प्रोत्साहित किया और मिशनरी विद्यालय में दाखिला दिलवाया, जहाँ उन्होंने पहली बार सभी जातियों के छात्रों के साथ पढ़ाई की और मित्रता की।
लेकिन एक घटना ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। एक बार एक ब्राह्मण मित्र ने उन्हें अपने विवाह में आमंत्रित किया। वहां मौजूद कुछ कट्टरपंथी पंडितों ने उनकी जाति जानने पर उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित किया। इस अनुभव ने नवयुवक ज्योति के मन को भीतर तक झकझोर दिया और उन्होंने समाज में फैली असमानता, छुआछूत और कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष करने का संकल्प ले लिया।
कुछ समय बाद जब वे अपने मित्र सदाशिव गोविंदे से मिलने अहमदनगर गए, तो वहाँ उन्होंने ईसाई मिशन द्वारा चलाई जा रही स्त्री पाठशालाओं को देखा। इससे वे अत्यंत प्रभावित हुए और लौटकर पुणे में अपने मित्र भिड़े के घर में पहली स्त्री पाठशाला की शुरुआत की। यह एक क्रांतिकारी कदम था, क्योंकि उस समय लड़कियों को पढ़ाना समाज के खिलाफ जाने जैसा माना जाता था।
बड़ी संख्या में निर्धन और पिछड़े वर्ग की बालिकाएँ उस स्कूल में पढ़ने लगीं, लेकिन इसके साथ ही कट्टरपंथियों का तीखा विरोध भी शुरू हो गया। जब सावित्रीबाई पढ़ाने जाती थीं, तो लोग उन पर कूड़ा और पत्थर तक फेंकते थे। समाज के दबाव में आकर गोविंदराव को भी अपने बेटे को घर से निकालना पड़ा। इसके बाद ज्योति अहमदनगर चले गए, जहाँ उनके मित्र गोविंदे और उनकी पत्नी ने सावित्रीबाई को घर पर पढ़ाना शुरू किया।
पुनः पुणे लौटकर गोविंदे, अण्णा साहब और अन्य समाजसेवियों की मदद से ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने कई विद्यालयों की स्थापना की। धीरे-धीरे सावित्रीबाई ने इस आंदोलन की पूरी ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली और भारत में नारी शिक्षा की पहली torchbearer बनीं।
सत्यशोधक समाज की स्थापना और ‘महात्मा’ की उपाधि
जातीय भेदभाव, छुआछूत और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ एक संगठित आंदोलन खड़ा करने के लिए महात्मा ज्योतिबा फुले ने सितंबर 1873 में पुणे में ‘सत्यशोधक समाज’ की नींव रखी। उनका उद्देश्य शोषित वर्गों विशेषकर शूद्रों और अतिशूद्रों को शिक्षित करके उनके भीतर आत्मसम्मान और अधिकार की भावना जगाना था, ताकि वे ब्राह्मणवादी वर्चस्व से खुद को मुक्त कर सकें।
उस दौर में समाज सुधार के नाम पर कई संगठन सक्रिय थे जैसे राजा राम मोहन राय का ‘ब्रह्म समाज’, केशव चंद्र सेन का ‘प्रार्थना समाज’ और महादेव गोविंद रानाडे की ‘पुणे सार्वजनिक सभा’। हालांकि ये सभी संगठन सामाजिक बदलाव की बात करते थे, पर जाति व्यवस्था को पूरी तरह खत्म करने के पक्ष में नहीं थे। वे चाहते थे कि जाति रहे, लेकिन थोड़ी मृदु हो जाए। ज्योतिबा फुले इस आधे-अधूरे सुधार के पक्ष में नहीं थे उनका मानना था कि असमानता की जड़ तक पहुंचे बिना सच्चा बदलाव संभव नहीं है।
सत्यशोधक समाज ने जातीय श्रेष्ठता के ढांचे को ही चुनौती दी। समाज में कुलीन या उच्च जाति के लोगों की सदस्यता पर प्रतिबंध लगाया गया ताकि यह संगठन वंचितों की आवाज़ बना रहे। हालांकि फुले इस विचार के भी समर्थक थे कि अगर कोई व्यक्ति सच्चे मन से सामाजिक न्याय की लड़ाई में साथ देना चाहता है, तो उसकी जाति नहीं पूछी जानी चाहिए। इस संगठन के कार्यकर्ता सिर पर साफा, गले में ढोल और कंधे पर कंबल लेकर समाज में जाते और ढोल बजाकर लोगों को जागरूक करते थे। उनके संदेश स्पष्ट थे पुनर्जन्म, मूर्तिपूजा, दिखावटी रीति-रिवाज़, खर्चीले विवाह और अंधविश्वास से मुक्ति पाए बिना समाज का उत्थान असंभव है।
सिर्फ प्रचार और भाषण तक सीमित न रहकर फुले ने 1860 में विधवाओं और उनके बच्चों के लिए एक आश्रय केंद्र भी खोला। यह उस समय का साहसिक और मानवीय कदम था, जब विधवाओं को समाज में कोई स्थान नहीं दिया जाता था। 1876 में वे पुणे नगर पालिका के सदस्य नियुक्त हुए। इस पद पर रहते हुए उन्होंने बस्तियों में शराब के अड्डों को हटाकर पानी की व्यवस्था, पुस्तकालय और विद्यालय जैसे ज़रूरी संस्थान बनवाए। उन्होंने गरीबों को सस्ती दरों पर दुकानें दिलाईं और सरकारी सहायता को भिखारियों व ब्राह्मणों से हटाकर शिक्षा और साहित्य के विकास में लगाने की पहल की। पुणे के आसपास सुंदर बाग-बगिचे बनवाए और समाज के सौंदर्य एवं स्वच्छता की ओर भी ध्यान दिया।
फुले केवल एक क्रांतिकारी विचारक ही नहीं, बल्कि एक प्रभावशाली लेखक भी थे। उन्होंने मराठी में ‘ब्राह्मणांचे कसब’, ‘शिवाजीचा पोवाडा’, ‘शेतकऱ्यांचा आसूड’, ‘इशारा’, ‘कैफियत’ जैसी कई पुस्तकें लिखीं और ‘सतसार’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जो समाज सुधार के उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का माध्यम बनी। जब वे 60 वर्ष के हुए तो मुंबई में उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया गया और उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि से सम्मानित किया गया जो एक साधारण व्यक्ति के असाधारण संघर्ष की मान्यता थी।
आम्बेडकर ने कहा अपना ‘तीसरा गुरु’
महात्मा फुले और डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर जिन्हें हम सब स्नेह से बाबासाहेब कहते हैं इन दोनों महान विचारकों के बीच का संबंध केवल वैचारिक नहीं था, बल्कि गहराई से जुड़ा हुआ था। सामाजिक अन्याय और शोषण के विरुद्ध खड़े होने की उनकी सोच, दलितों और वंचितों को गरिमा और अधिकार दिलाने की उनकी जिद इन सबने उन्हें एक-दूसरे से आत्मिक रूप से जोड़ दिया। बाबासाहेब आंबेडकर ने अपने जीवन में जिन तीन विचारकों को गुरु का स्थान दिया, उनमें महात्मा फुले प्रमुख हैं।
28 अक्टूबर 1954 को मुंबई के पुरंदरे स्टेडियम में दिए गए अपने ऐतिहासिक भाषण में बाबासाहेब ने स्पष्ट रूप से कहा था, “हर किसी के जीवन में एक गुरु होता है। मेरे भी हैं तीन गुरु। मैं न कोई संन्यासी हूं, न वैरागी, लेकिन मेरा पहला और सबसे बड़ा गुरु बुद्ध हैं… मुझे पूरा विश्वास है कि केवल बौद्ध धर्म ही इस संसार का कल्याण कर सकता है। मेरे दूसरे गुरु कबीर हैं, क्योंकि मेरे पिता कबीरपंथी थे। इसलिए कबीर के जीवन और उनके उपदेशों का मुझ पर गहरा असर पड़ा। मेरी दृष्टि में, कबीर ने बुद्ध के दर्शन के सार को सही मायनों में समझा और समाज को बताया। और मेरे तीसरे गुरु महात्मा फुले हैं जिन्होंने हमें मानवता का पाठ पढ़ाया। उन्होंने महार, मांग, चाबर जैसे समाज के सबसे वंचित तबकों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया और आत्मसम्मान की ज्योत जलायी।” बाबासाहेब की यह स्वीकारोक्ति कोई साधारण वक्तव्य नहीं था, बल्कि यह दर्शाता है कि कैसे फुले की शिक्षाएं समानता, शिक्षा और सामाजिक न्याय उनके विचारों की नींव बनीं।