राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के के हस्ताक्षर के बाद वक्फ कानून अस्तित्व में आ गया है तथा सरकार ने अधिसूचना भी जारी कर दी है। इस तरह अब देश में पुराना वक्फ कानून समाप्त एवं नया कानून लागू हो चुका है। लोकसभा एवं राज्यसभा दोनों सदनों के संपूर्ण बहस को देखें तो विरोध करने वालों ने तथ्यों के आधार पर ऐसे तर्क नहीं दिए जिनसे वाकई साबित हो सके कि वक्फ कानून में बदलाव का यह कदम संविधान विरोधी, इस्लाम विरोधी एवं मुस्लिम विरोधी है तथा इसका उद्देश्य सरकार द्वारा मुसलमानों की जमीनों पर कब्जा करना है। सरकार के सांसदों द्वारा दिए गए अन्य नेताओं के भाषणों को छोड़ दीजिए तो अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरण रिजिजू द्वारा विधेयक प्रस्तुत करते समय तथा गृह मंत्री अमित शाह के ही वक्तव्य में एक-एक तथ्य संसद की रिकॉर्ड पर रखे गए।
संसद में गलत तथ्य रखने के विरुद्ध विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव आ सकता है। साफ है कि दोनों नेताओं ने जो कहा वह सच था। विपक्ष के पास अपने आरोपों को साबित करने के लिए तथ्य थे ही नहीं। विपक्ष के ज्यादातर भाषण राजनीतिक आरोपों के अलावा कुछ नहीं थे। कुछ तो तथ्यों से परे थे। उदाहरण के लिए यह कहना कि वक्फ न्यायाधिकरण के विरुद्ध न्यायालय जाया जा सकता है। कांग्रेस तथा यूपीए सरकार द्वारा बनाए गए कानून में वक्फ ट्रिब्यूनल के फैसले को अंतिम माना गया और सिविल न्यायालय में इसके विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती। उच्च न्यायालय में मामला रिट के माध्यम से ले जाया गया। हम जानते हैं कि रिट कितना कठिन होता है। जिस संस्था की संपत्तियों को लेकर 40 हजार से ज्यादा विवाद हों और उनमें लगभग 10 हजार मुसलमानों द्वारा लाए गए हों उसके वर्तमान ढांचे को बनाए रखना किसी लोकतांत्रिक, संवैधानिक और प्रगतिशील व्यवस्था का पर्याय नहीं हो सकता।
इसमें सुधार की मांग मुसलमानों की ओर से भी की जा रही थी। इस्लाम में दीन की सेवा के लिए अपनी संपत्तियों को वक्फ करने की अनुमति है। इसे छीना नहीं जा सकता। हालांकि वक्फ नाम इस्लामी नहीं यह अरबी शब्द है। आप किसी तरीके से संपत्ति इस्लाम के तहत दान कर सकते हैं। वक्फ में सरकार ने स्पष्ट किया कि गैर मुसलमानों का हस्तक्षेप नहीं होगा। गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि वक्फ में मुतवल्ली और वाकिफ दोनों मुस्लिम समुदाय के होंगे। तो समस्या कहां है? वक्फ बोर्ड की भूमिका इन संपत्तियों के उनके उद्देश्यों के अनुरूप उचित प्रबंधन ,प्रशासन और नियंत्रण तक सीमित है। जो वक्फ बोर्ड संविधान के तहत बना और संसद ने पारित किया वह इस्लाम मजहब का विषय नहीं हो सकता। संसद में पारित सभी कानून उच्चतम न्यायालय के पुनरीक्षण की परिधि में आते हैं। तो इसकी संवैधानिकता का निर्णय उच्चतम न्यायालय में हो जाएगा। संविधान का सामान्य जानकार भी बता सकता है कि इसमें किसी धारा का उल्लंघन नहीं है।
अल्पसंख्यकों के अधिकारों के साथ अपने पंथ या मजहब का प्रचार करने, उसके लिए संस्थाएं बनाने आदि के मौलिक अधिकारों की हमारे देश में खासकर मुसलमानों के संदर्भ में दुर्भाग्य से गलत अवधारणा बनी और यही मानसिकता मजबूत हो गई है। इसी कारण ऐसे सारे वैधानिक कदमों को सीधे इस्लाम विरोधी या मुसलमानों के मजहबी मामलों में हस्तक्षेप बता कर दुष्प्रचार किया जाता है और इसका आम मुसलमानों पर असर भी दिखाई देता है। हालांकि धीरे-धीरे इस सोच में भी बदलाव आ रहा है। वक्फ विधेयक पर संसद में बहस के दो दिनों तक हमने देखा कि देश भर में इसके समर्थन में भी प्रदर्शन हुए और अनेक प्रतिष्ठित मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं तथा जमातों के प्रमुखों ने पक्ष में वक्तव्य दिया। उदाहरण के लिए अजमेर शरीफ के प्रमुख हाजी सैयद सलमान चिश्ती ने कहा कि यदि वक्फ बोर्ड में सुधार किया जाए जिससे मुस्लिम समुदाय को कौशल, शिक्षा और रोजगार के लाभ मिल सके तो यह बहुत जरूरी बदलाव होगा। इस तरह के अनेक बयान हैं जिनसे विरोधी मुस्लिम नेताओं और राजनीतिक दलों के आरोपों का खंडन हो जाता है।
जो सच है ही नहीं उसे प्रचारित करके देश में वोट बैंक की लंबी राजनीति हुई, इसके कारण मुस्लिम समुदाय के अंदर उदारवादी व्यापक सोच वाले हाशिए में गए तथा कट्टरपंथी शक्तिशाली, प्रभुत्वशाली व्यक्तित्व हावी होते गए। उच्चतम न्यायालय ने 1985 में शाहबानो जैसी एक तलाकशुदा वृद्ध महिला के लिए 138 रुपए मासिक भत्ते की मान्यता दी और ऐसे मुसलमानों द्वारा भ्रम पैदा करने के कारण समुदाय विरोध में उतर गया। वोट बैंक की राजनीति के तहत राजीव गांधी सरकार ने संसद से उसे पलट दिया। उसके बाद से मुस्लिम समाज से जुड़े मुद्दे, भले उनके नाम पर कानून विरोधी कार्य यहां तक कि भ्रष्टाचार और अपराध भी हो रहे हो उनमें सरकारें दखलअंदाजी बचती ही नहीं रही बल्कि इस व्यवस्था को और सशक्त करने के कानून और ढांचे खड़े कर दिए। एक साथ तीन तलाक की इस्लाम में मान्यता नहीं है। बावजूद मजहबी मामला के नाम पर जारी रहा और सरकारों को पता था, फिर भी महिलाओं के साथ अन्याय तथा पुरुषों द्वारा महिलाओं के शोषण की इस इस्लाम विरोधी व्यवस्था को समाप्त नहीं किया गया। नरेंद्र मोदी सरकार ने ही इसे किया।
वक्फ की मजहबी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए 1995 में जब कानून में बदलाव हो रहा था तो राज्यसभा में तत्कालीन विपक्ष के नेता सिकंदर वख्त ने कहा था कि वक्फ संपत्तियां गरीब मुसलमानों की सेवाओं ,तलाकशुदा महिलाओं और यतीम बच्चों की अमानत है जिसमें खयानत हो रही है। बावजूद विधेयक पारित हुआ और कानून बना। अब मुस्लिम नेता ही प्रश्न उठा रहे हैं कि आखिर वक्फ बोर्ड के रहनुमा संपत्तियों का अंकेक्षण क्यों नहीं कराते? इससे पता चलेगा कि वक्फ संपत्तियां कहां-कहां और कितनी मात्रा में खर्च हो रही है। कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति को वक्फ में रजिस्ट्री कर सकता है किंतु सरकारी संपत्ति कैसे वक्फ हो सकती है यह समझ से परे है। सरकार की भूमिका अपने स्तर से गरीबों के कल्याण के लिए काम करना है। दूसरी ओर वक्फ के नाम पर सरकारी, व्यक्तिगत और आदिवासियों की अनुसूचित जमीनों, ऐतिहासिक – पुरातात्विक स्थलों तक पर वक्फ का कब्जा हुआ।
सच्चर समिति ने कहा कि इसका प्रबंधन सही तरीके से हो तो 12 हजार करोड़ की सालाना आय हो सकती है जबकि आए केवल 200 करोड रुपए हो रहे हैं। सच्चर आयोग का मूल्यांकन 2005 का था। 2013 के बाद अगर 21 लाख एकड़ जमीन बढ़े हैं तो कल्पना करिए कि 12 हजार करोड़ की संभावित आय का आंकड़ा कितना बढ़ जाएगा। इस समय आय केवल 169 करोड़ है। चूंकि इस्लाम में जकात और वक्फ को मान्यता है इस कारण वक्फ जैसे केंद्रीय कानून की आवश्यकता है। हालांकि भूमि , धर्मस्थल जिनमें मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, श्मशान घाट , कब्रिस्तान आदि मुद्दे राज्य सरकार के विषय हैं। 1
954 में केंद्रीय स्तर पर वक्फ कानून संसद में बना और 1995 तथा 2013 में बदलाव हुए। राज्यों की भूमिका इसमें समाप्त नहीं हुई है। तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल में हिंदू धर्मार्थ कानून है। ये मठों , मंदिरों के प्रशासन संपत्ति और प्रबंधन को नियंत्रित करते हैं। 1955 – 56 में हिंदू कोड बिल के अनुसार मुसलमान के लिए शादी, तलाक और उत्तराधिकार का कोई कानून नहीं बना। यह प्रगतिशील और न्यायसंगत समाज व्यवस्था के रास्ते की ये बाधायें अब खत्म हो रहीं हैं और धीरे-धीरे मुस्लिम समुदाय के वंचित और हाशिए में पड़े समूह, महिलाओं तथा विवेकशील वर्ग इनका समर्थन कर रहा है।