BJP सांसद निशिकांत दुबे एक बार फिर सियासी बहस के केंद्र में हैं। वक्फ अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी को लेकर उनके बयान ने हंगामा खड़ा कर दिया है। विपक्ष उनके खिलाफ हमलावर है, और खुद उनकी पार्टी भी इस मुद्दे से किनारा कर चुकी है। लेकिन दुबे पीछे हटने वालों में नहीं हैं वो अब भी अपने बयान पर अडिग हैं।इसी बीच, उन्होंने एक और तीखा हमला बोला है। इस बार निशाना है सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बहरुल इस्लाम और उनके ज़रिए कांग्रेस पर। दुबे ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में बताया है कि कांग्रेस सरकार के दौर में एक रिटायर्ड जज को फिर से नियुक्त कर सुप्रीम कोर्ट में बिठा दिया गया था। अब ये पुराना किस्सा फिर से चर्चा में है…
निशिकांत दुबे ने क्या कहा?
निशिकांत दुबे ने कांग्रेस की न्यायपालिका में कथित घुसपैठ का एक पुराना और विस्मृत किस्सा उठाते हुए, जज बहरुल इस्लाम को लेकर एक लंबा पोस्ट सोशल मीडिया पर शेयर किया। उन्होंने इसे “कांग्रेस का संविधान बचाओ अभियान” की एक मज़ेदार कहानी बताते हुए लिखा, “असम के बहरुल इस्लाम साहब ने 1951 में कांग्रेस की सदस्यता ली थी। तुष्टिकरण की राजनीति करते हुए कांग्रेस ने उन्हें 1962 में राज्यसभा भेजा। छह साल बाद, 1968 में, एक बार फिर उन्हें ‘सेवाभाव’ के नाम पर राज्यसभा का सदस्य बनाया गया। कांग्रेस को इनसे बड़ा वफादार और कोई नज़र नहीं आया बिना राज्यसभा से इस्तीफा दिलवाए ही 1972 में उन्हें हाईकोर्ट का जज बना दिया गया।
इसके बाद 1979 में वो असम हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश बने और 1980 में रिटायर हो गए। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती कांग्रेस ने उन्हें जनवरी 1980 में रिटायर करने के महज़ कुछ महीनों बाद ही, दिसंबर 1980 में सीधे सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया। यही नहीं, 1977 में जब इंदिरा गांधी पर भ्रष्टाचार के केस चल रहे थे, तो उन्हीं बहरुल इस्लाम ने उन मामलों को ‘तन्मयता’ से निपटा दिया। इसके पुरस्कार स्वरूप कांग्रेस ने उन्हें 1983 में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर कर, उसी साल फिर से राज्यसभा में भेज दिया।” पोस्ट के अंत में दुबे ने लिखा, “मैं कुछ नहीं बोलूंगा।”

कौन थे जज बहरुल इस्लाम
बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे के हालिया बयान ने एक बार फिर उस दौर की फाइलें खोल दी हैं, जब न्यायपालिका में भी राजनीति के रंग साफ नजर आते थे। इस बार दुबे का निशाना बने हैं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बहरुल इस्लाम एक ऐसा नाम जिन्होंने कोर्ट और संसद दोनों जगह कांग्रेस की राजनीतिक ज़मीन को मजबूत करता रहा। बहरुल इस्लाम की शुरुआत एक वकील के तौर पर हुई थी। उन्होंने 1951 में असम हाईकोर्ट और फिर 1958 में सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की। लेकिन जल्द ही उनका झुकाव कांग्रेस की तरफ हो गया और 1956 में उन्होंने पार्टी की सदस्यता ले ली।
कांग्रेस ने उन्हें अप्रैल 1962 में पहली बार असम से राज्यसभा भेजा। पाँच साल बाद 1967 में वे लोकसभा चुनाव लड़े, लेकिन हार गए। बावजूद इसके, कांग्रेस का भरोसा कम नहीं हुआ। 1968 में उन्हें फिर से राज्यसभा सदस्य बना दिया गया। लेकिन यहां से उनकी भूमिका ने एक नई करवट ली। कार्यकाल पूरा होने से पहले ही 1972 में उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और फिर उन्हें गुवाहाटी हाईकोर्ट (तब असम और नागालैंड हाईकोर्ट) का जज बना दिया गया। 1979 तक वे असम हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश रहे और 1980 में रिटायर हो गए।
अब कहानी में असली मोड़ आता है। इंदिरा गांधी 1980 में फिर से सत्ता में लौटीं और रिटायर हो चुके इस पुराने भरोसेमंद कांग्रेसी को वापस मैदान में उतारा गया लेकिन इस बार सीधे सुप्रीम कोर्ट का जज बनाकर। जी हाँ, 1 मार्च 1980 को रिटायर हुए बहरुल इस्लाम को 9 महीने बाद ही, 4 दिसंबर 1980 को सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया गया। ये नियुक्ति अपने आप में बेहद असामान्य थी, क्योंकि आमतौर पर रिटायर हो चुके जजों को फिर से सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त नहीं किया जाता। सिर्फ नियुक्ति ही नहीं, उनके फ़ैसले भी उतने ही विवादित रहे। सुप्रीम कोर्ट में रहते हुए उन्होंने बिहार के तत्कालीन कॉन्ग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को जालसाजी और आपराधिक मामलों में क्लीन चिट दी। ये फैसला उन्होंने रिटायरमेंट से महज़ 6 हफ्ते पहले सुनाया।
और फिर इस फैसले के एक महीने बाद 12 जनवरी 1983 को उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा दे दिया। अब ज़रा देखिए अगला कदम: उसी साल बहरुल इस्लाम ने कांग्रेस के टिकट पर बारपेटा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए नामांकन दाखिल कर दिया। हालांकि असम में राजनीतिक अस्थिरता के चलते चुनाव टल गया, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें फिर से ‘पुरस्कृत’ करते हुए तीसरी बार राज्यसभा भेज दिया।