राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत देश के बड़े नेताओं ने शुक्रवार (30 मई) को गोवा के स्थापना दिवस के मौके पर बधाई दी है। 1510 में बीजापुर के आदिल शाह को हराकर अल्फोंसो डी अल्बुकर्क ने यहां कब्ज़ा कर लिया था और अगले करीब 450 वर्षों तक इस पर पुर्तगाली नियंत्रण ही रहा। 450 से अधिक वर्षों तक पुर्तगाली उपनिवेश रहा गोवा को दिसंबर 1961 आज़ादी मिल गई थी। इसके बाद गोवा को दमन और दीव के साथ केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दे दिया गया था। हालांकि, 30 मई 1987 को गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और यह भारत का 25वां राज्य बन गया था। इसके बाद से हर वर्ष 30 मई को गोवा का स्थापना दिवस मनाया जाता रहा है।
1961 में भारत सरकार ने ऑपरेशन विजय के बाद दमन-दीव और गोवा को भारत में शामिल कर लिया था। गोवा की आज़ादी का यह आंदोलन भी संघर्ष पूर्ण नहीं और इसके लिए लोगों ने अपने जान कुर्बान कर दी थीं। पुर्तगालियों के नियंत्रण से गोवा को मुक्त कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के स्वयंसेवकों ने अग्रणी भूमिका निभाई थी। ‘Organiser’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 13 जून 1955 को जनसंघ नेता जगन्नाथ राव जोशी ने कर्नाटक के RSS कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर गोवा का सत्याग्रह शुरू किया था। जोशी के साथ 3,000 कार्यकर्ताओं की एक टीम थी और जब ये लोग गोवा की सीमा पर पहुंचे तो पुर्तगाली सरकार ने इन पर लाठीचार्ज और गोलीबारी कर दी। 15 अगस्त 1955 को 5,000 से ज़्यादा सत्याग्रहियों पर गोवा में तैनात पुर्तगाली सेना ने गोली चलाई और इसमें करीब 51 लोगों की मौत हो गई थी।
ना केवल RSS बल्कि राष्ट्र सेविका समिति ने भी गोवा मुक्ति आंदोलन में प्रमुखता से भाग लिया था और इस दौरान सरस्वती आप्टे ‘ताई’ के नेतृत्व में सत्याग्रही समूहों के भोजन आदि की व्यवस्था की। जनसंघ के सत्याग्रहियों की संख्या अन्य सभी दलों के संयुक्त प्रदर्शनकारियों से लगभग 4 गुना अधिक थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) ने गोवा की आजादी को लेकर एक बयान में कहा था, “गोवा में पुलिस कार्रवाई करने और गोवा को आजाद कराने का इससे बेहतर अवसर नहीं होगा। इससे हमारी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ेगी और हमारे आस-पास के देशों को भी सबक मिलेगा जो हमें हमेशा धमकाते रहते हैं।”
के आर मलकानी ने अपनी पुस्तक ‘द आरएसएस स्टोरी’ में लिखा है, “गोवा की मुक्ति के लिए संघर्ष करते हुए संघ के नेता वसंतराव ओके को गोली लगी और जगन्नाथराव जोशी को पंजिम (अब पणजी) जेल में कई साल तक यातनाएं सहनी पड़ीं। 2 अगस्त, 1954 को नाना काजरेकर और सुधीर फड़के के नेतृत्व में लगभग 200 आरएसएस कार्यकर्ताओं ने पुर्तगाली इलाकों दादरा और नगर हवेली को आजाद कराया और राइफलों, ब्रेन-गन और स्टेन-गन से लैस 175 सैनिकों को मार गिराया।”
नेहरू की वजह से टलती गई आज़ादी!
BBC की एक रिपोर्ट में वरिष्ठ पत्रकार रेहान फ़ज़ल लिखते हैं कि गोवा के बारे में नेहरू का एक तरह से ‘मेंटल ब्लॉक’ था और उन्होंने पश्चिमी देशों को आश्वासन दे रखा था कि वो ताक़त से गोवा को भारत में मिलाने की कोशिश नहीं करेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फरवरी 2022 में गोवा में एक रैली के दौरान कहा था कि अगर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चाहा होता तो 1947 में ही कुछ ही घंटों के भीतर गोवा आज़ाद हो जाता लेकिन कांग्रेस ने 15 वर्षों तक गोवा की आज़ादी के लिए कुछ नहीं था।
ओमप्रकाश दीपक और अरविंद मोहन की किताब ‘लोहिया एक जीवनी’ के हवाल से BBC की एक रिपोर्ट में लिखा गया है, “फ़रवरी 1947 में नेहरू ने यहां तक कह दिया कि गोवा का प्रश्न महत्वहीन है। उन्होंने इस पर भी संदेह जताया कि गोवा के लोग भारत के साथ आना चाहते हैं। इसके बाद गोवा की स्वतंत्रता का आंदोलन मुरझाने लगा, लेकिन गोवा के लोगों का मन बदल चुका था, उनकी स्वतंत्र आत्मा के प्रतीक बन चुके थे डॉक्टर राम मनोहर लोहिया।”
पीएम मोदी ने 8 फरवरी 2022 को राज्यसभा में बोलते हुए कहा था, “भारत की आजादी के 15 साल के बाद गोवा आजाद हुआ। 60 साल पहले के अखबार, मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि तब के प्रधान मंत्री, पंडित नेहरु की अंतरराष्ट्रीय छवि का क्या होगा, यह उनकी सबसे बड़ी चिंता का विषय था। उनको लगता था कि गोवा की औपनिवेशिक सरकार पर आक्रमण करने से उनकी जो एक global leader की, शांतिप्रिय नेता की छवि है, वह चकनाचूर हो जाएगी। इसलिए जब वहां सत्याग्रहियों पर गोलियाँ चल रही थीं, विदेशी सल्तनत गोलियां चला रही थी, हिन्दुस्तान का हिस्सा, हिन्दुस्तान के ही मेरे भाई-बहन, उन पर गोलियां चल रही थीं, तब हमारे देश के प्रधान मंत्री ने कहा था कि मैं सेना नहीं दूंगा, मैं सेना नहीं भेजूंगा। सत्याग्रहियों की मदद करने से उन्होंने इनकार कर दिया था।”
नेहरू ने लाल किले से गोवा में सेना ना भेजने की भी बात कही थी जिसे पीएम मोदी ने राज्यसभा में बताया था। पंडित नेहरू ने कहा था, “कोई धोखे में न रहे कि हम वहाँ फौजी कार्रवाई करेंगे। कोई फौज गोवा के आस-पास नहीं है। अंदर के लोग चाहते हैं कि कोई शोर मचा कर ऐसे हालात पैदा करें कि हम मजबूर हो जाएं फौज भेजने के लिए। हम नहीं भेजेंगे फौज। हम उसको शांति से तय करेंगे। समझ लें सब लोग इस बात को। जो लोग वहां जा रहे हैं, उनको वहां जाना मुबारक हो, लेकिन यह भी याद रखें कि अगर अपने को सत्याग्रही कहते हैं, तो सत्याग्रह के उसूल, सिद्धांत और रास्ते भी याद रखें। सत्याग्रह के पीछे फौजें नहीं चलतीं और न ही फौजों की पुकार होती है।”
और आज़ाद हो गया गोवा
दरअसल, पुर्तगाल NATO (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन) का सदस्य था और इसके चलते नेहरू वहां किसी सैन्य कार्रवाई करने से हिचक रहे थे। नेहरू शांतिपूर्ण तरीके से गोवा की आज़ादी चाहते थे थे लेकिन जब पुर्तगालियों को शांति से निकालने की कोशिशें नाकाम हो गईं और पुर्तगालियों का भारतीयों पर जुल्म बढ़ने लगा तो नेहरू ने सेना भेजकर गोवा को आज़ाद करने की योजना को मंज़ूरी दे दी।
नवंबर 1961 में पुर्तगाली सैनिकों ने गोवा के मछुआरों पर गोलियां चलाईं जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई इसके बाद लोगों का गुस्सा भड़कता गया और भारत के प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री ने भी इस मामले को लेकर एक आपात बैठक की। इस बैठक के बाद 17 दिसंबर को 30,000 सैनिकों को गोवा भेजने का फैसला किया गया। इस ऑपरेशन में तीनों सेनाएं शामिल थीं। उधर पुर्तगाल ने भी भारत से बाहर निकलने की तैयारी शुरू कर दी थी। पुर्तगाल का एक जलपोत ‘इंडिया’ गोवा आया ताकि पुर्तगाली नागरिकों के सोने और उनके बीवी-बच्चों को लिस्बन भेजा जा सके। 380 लोगों की क्षमता वाले इस जहाज़ में 700 से अधिक लोग भरकर पुर्तगाल भेजे गए थे।
रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘India After Gandhi‘ में लिखा है, “18 दिसंबर की सुबह भारतीय सैनिकों ने तीन दिशाओं से गोवा में प्रवेश किया: उत्तर में सावंतवाड़ी, दक्षिण में कारवार और पूर्व में बेलगाम। इस बीच, हवाई जहाजों ने गोवा के लोगों को ‘शांत और बहादुर बनने’ और ‘अपनी आज़ादी का आनंद लेने और इसे मज़बूत बनाने’ के लिए प्रेरित करते हुए पर्चे गिराए। 18 तारीख की शाम तक राजधानी पणजी को घेर लिया गया था। सैनिकों की मदद स्थानीय लोगों ने की, जिन्होंने बताया कि पुर्तगालियों ने कहां-कहां बारूदी सुरंगें बिछाई हैं।”
गुहा लिखते हैं, “कुल मिलाकर, लगभग पंद्रह भारतीय सैनिकों ने अपनी जान गंवाई, और शायद पुर्तगालियों की संख्या दोगुनी थी। आक्रमण शुरू होने के 36 घंटे बाद पुर्तगाली गवर्नर जनरल ने बिना शर्त आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर कर दिए।” उन्होंने लिखा है, “जनसंघ और कम्युनिस्ट, नेहरू से उपनिवेश को आजाद कराने के लिए सेना का इस्तेमाल करने का आग्रह कर रहे थे। फिर भी, यह संदेह बना रहा कि आक्रमण का सटीक समय उनके सहयोगी कृष्ण मेनन की चुनावी जरूरतों द्वारा निर्धारित किया गया था। सैनिकों के अंदर जाने से पहले, रक्षा मंत्री ने सीमा पर उनका निरीक्षण किया। जैसा कि न्यूयॉर्क टाइम्स ने बताया, वे यहां ‘दोहरा अभियान चला रहे थे: एक युद्ध के लिए जो शुरू होने वाला था, दूसरा आम चुनाव के लिए जो फरवरी में निर्धारित किया गया था’।”