मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राजधर्म, अर्थात् राज्य संचालन से जुड़े अनेक पहलुओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। धर्मशास्त्रों में राजधर्म की अवधारणा को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है और इस विषय पर गंभीर विमर्श भी किया गया है। राजा कौन होना चाहिए? उसे किस प्रकार शिक्षित किया जाना चाहिए? एक राजा को किस प्रकार का प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए? राजा का चयन किस प्रकार किया जाए? उसके अपने परिवार के प्रति क्या कर्तव्य होते हैं? जनता के बीच उसकी क्या भूमिका होनी चाहिए? सामाजिक व्यवस्था को किस प्रकार बनाए रखा जाए और उसमें सभी वर्गों को किस तरह सम्मिलित किया जाए? इन प्रश्नों के समाधान की चेष्टा मनुस्मृति के इस अध्याय में मिलती है। यद्यपि शासन और प्रशासन के विविध पहलुओं पर पहले भी विचार किया जाता रहा था, फिर भी मनु पहले व्यक्ति थे जिन्होंने शासन और प्रशासन के अध्ययन को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया।
मनु और राजतंत्र का दिव्य सिद्धांत
मनु राज्य की उत्पत्ति के “दिव्य अधिकार सिद्धांत” (Divine Right Doctrine) के प्रबल समर्थक थे, जिसके अनुसार राज्य की रचना ईश्वर द्वारा की गई थी। के. पी. जयसवाल के अनुसार, मनुस्मृति ने राजा के दिव्य स्वरूप के सिद्धांत को पुष्यमित्र ब्राह्मण साम्राज्य की रक्षा के लिए विकसित किया था, और यह सिद्धांत बौद्धों द्वारा प्रतिपादित राज्य की सामाजिक अनुबंध (contract) के आधार पर उत्पत्ति की अवधारणा का खंडन करता है। ईश्वर, जो समस्त सृष्टि व्यवस्था का स्रष्टा है, न केवल सृष्टि के संचालन का उत्तरदायी है, बल्कि जनसामान्य के कल्याण और सामाजिक व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए भी जिम्मेदार है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ईश्वर ने राजा की स्थापना की और उसे अपना प्रतिनिधि घोषित किया। इस प्रकार राजशक्ति की स्थापना एक दिव्य विचार के रूप में हुई। मनुस्मृति में यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है कि राजा ईश्वर की रचना है और उसका अधिकार दिव्य है।
मनु द्वारा शासक के नैतिक और बौद्धिक गुणों पर बल
मनु शासक के नैतिक और बौद्धिक गुणों पर विशेष बल देते हैं, क्योंकि राज्य व्यवस्था में राजा सबसे महत्वपूर्ण घटक होता है। मनु ने राजा को यह निर्देश दिया है कि वह उन ब्राह्मणों की सलाह को माने जो वेदों के ज्ञाता हैं और जिन्होंने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया है। शासक अपने प्रजा का उचित तरीके से शासन कर सके, इसके कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी आत्म–अनुशासन (self-discipline) के गुणों की प्रशंसा की गई है। मनु का राजा एक आदर्श पुरुष होता है—बुद्धिमान, नैतिक दृष्टि से उत्तम, कुशल, सुशिक्षित, और विद्वान। वह न तो अपनी कामनाओं और प्रवृत्तियों का गुलाम होता है, और न ही उसमें द्वेष और लोभ होता है। वह अपनी प्रजा के सभी वर्गों के साथ समान व्यवहार करता है। मनु इस आदर्श शासक के स्वभाव की तुलना समुद्र से करते हैं— जो ऊपर से शांत होता है लेकिन भीतर गहराई और विक्षोभ से भरा होता है, जिसमें मोती भी होते हैं और कचरा भी।
मनु ने यह भी स्पष्ट किया है कि एक शासक में किन गुणों का होना आवश्यक है। राजा को भ्रष्टाचार से रहित और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष— इन चार सतोगुणी पुरुषार्थों के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। चूँकि वह राज्य का प्रमुख कार्यकारी होता है, इसलिए उसमें साम (सामाजिक नीति), दम (आत्म–संयम), दंड (दंड नीति), और भेद (कूटनीति) जैसे गुण भी होने चाहिए। इसके अतिरिक्त, राजा में विनम्रता, आदरभाव, दृढ़ता और प्रेरणाशक्ति भी होनी चाहिए।
शासन का विज्ञान: अर्थशास्त्र और दण्डनीति
शासन के विज्ञान को दो विभिन्न संदर्भों में अर्थशास्त्र और दण्डनीति के नाम से जाना जाता है। कामसूत्र के अनुसार, अर्थशास्त्र वह प्रणाली है जो भूमि, स्वर्ण, पशुधन, गृह उपयोगी वस्तुएँ और प्राप्त संपत्ति की वृद्धि से संबंधित है। जब यह जनता के शासन और अपराधियों को दंडित करने की नीति से जुड़ता है, तो इसे दण्डनीति कहा जाता है।
लगभग सभी शास्त्रों और विद्वानों में इस बात पर सहमति है कि एक राज्य (राज्य या राज्या) सात अंगों (प्रकृति) से मिलकर बना होता है। इसे सप्तांग राज्य कहा जाता है, अर्थात् “सात तत्वों वाला राज्य“। ये सात अंग निम्नलिखित हैं:-
- स्वामी (शासक या राजा)
- अमात्य (मंत्री)
- जनपद या राष्ट्र (राज्य की भूमि और उसकी प्रजा)
- दुर्ग (किला, किलेबंद नगर या राजधानी)
- कोष (राजा के खजाने में संचित धन)
- दण्ड (सेना या दंड शक्ति)
- मित्र (राज्य के सहयोगी या मित्र राष्ट्र)
यह सप्तांग सिद्धांत भारतीय राजनीतिक चिन्तन की आधारशिला है, जो यह दर्शाता है कि राज्य केवल राजा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक समग्र संस्था है जिसमें विभिन्न अंगों का समन्वय आवश्यक है।
अपराध की गंभीरता और दण्ड का सिद्धांत
कौटिल्य और मनु दोनों ही राजा की दण्ड शक्ति (coercive power of the king) के विषय में समान दृष्टिकोण रखते हैं। मनु ने पहले के अर्थशास्त्र विद्वानों की अवधारणाओं को स्वीकार करते हुए इस विचार को और विस्तार दिया है। मनु के अनुसार, ईश्वर ने दण्ड की रचना राजाओं और राज्यों के कल्याण के लिए की और फिर अपने ही पुत्र को समस्त जीवों और धर्म (नैतिकता) की रक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा। दण्ड केवल शासन करने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह रक्षा और व्यवस्था का भी प्रतीक है। दण्ड का भय ही इस समस्त संसार में व्यवस्था बनाए रखता है। जिस शासक में सत्य, ज्ञान, धर्म, कुशलता और निष्पक्षता जैसे गुण होते हैं, वही दण्ड के प्रयोग का अधिकारी होता है। इसके विपरीत, यदि कोई राजा भ्रष्ट, अन्यायी और कपटी हो, तो वही दण्ड उसकी विनाश का कारण बनता है। ऐसा राजा न केवल स्वयं नष्ट होता है, बल्कि उसके साथ उसकी प्रजा, कुटुम्ब और राज्य भी समाप्त हो जाते हैं। मनु यह भी स्पष्ट करते हैं कि जो राजा दण्ड का प्रयोग करने के लिए तत्पर रहता है, उसकी संपूर्ण पृथ्वी पर प्रतिष्ठा और भय बना रहता है। राजा के दण्ड से कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं होता — चाहे वह पिता हो, माता हो, मित्र हो या घर का पुरोहित — यदि वे अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते, तो उन्हें दण्ड भोगना ही पड़ता है। इस प्रकार मनु दण्ड को केवल एक दंडात्मक शक्ति नहीं, बल्कि न्याय, धर्म और सामाजिक संतुलन बनाए रखने का नैतिक माध्यम मानते हैं।
दण्ड का उद्देश्य और उसका धर्म से संबंध
दण्ड का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था की स्थिरता बनाए रखना तथा प्रत्येक व्यक्ति के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। राजा का ईश्वर द्वारा सृजन और उसे शक्तियों से संपन्न करना — यह सिद्धांत भी इसी दण्ड के विचार के साथ पूर्ण रूप से संगत है। कभी–कभी “दण्ड” शब्द को “धर्म” या “न्याय” से भी जोड़ा जाता है, जो यह दर्शाता है कि एक के बिना दूसरे की कल्पना अधूरी है। यानी, धर्म को लागू करने के लिए दण्ड आवश्यक है। मनु राजा को सभी अपराधियों पर पूर्ण अधिकार प्रदान करते हैं, चाहे वे किसी भी सामाजिक या राजनीतिक हैसियत में क्यों न हों। यह विचार अर्थशास्त्र के दण्ड सिद्धांत के अनुरूप है। मनु स्पष्ट करते हैं कि ईश्वर ने दण्ड की रचना इसलिए की, ताकि राजा अपने कर्तव्यों का पालन उचित रूप से कर सके। साथ ही, मनु यह भी चेतावनी देते हैं कि बल या शक्ति का प्रयोग केवल तब किया जाना चाहिए जब कोई दोषी प्रमाणित हो जाए, और तब भी उसका उद्देश्य सुधार और अनुकरणीय दंड होना चाहिए — जिससे अपराधी को सुधारा जा सके और दूसरों के लिए एक चेतावनी भी बन सके।
इस प्रकार मनु का दण्ड सिद्धांत केवल शक्ति प्रदर्शन नहीं है, बल्कि नैतिकता, न्याय और सामाजिक उत्तरदायित्व का संतुलित और विवेकपूर्ण प्रयोग है।
सेना और स्थानीय प्रशासन पर मनु की दृष्टि
मनु सेना और स्थानीय प्रशासन की भी गहन विवेचना करते हैं, क्योंकि ये राज्य या साम्राज्य की सीमाओं की रक्षा और नागरिकों पर नियंत्रण सुनिश्चित करने के आवश्यक उपकरण हैं। मनु द्वारा प्रस्तावित स्थानीय शासन व्यवस्था में विभिन्न स्तरों पर अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं, जो छोटे और बड़े ग्राम समूहों की देखरेख करते हैं। इन अधिकारियों के कार्य की नियमित जांच राजा का एक मंत्री करता है।
ग्राम (गांव) इस प्रशासनिक ढांचे की मूल इकाई होता है, जिसका नेतृत्व एक ग्रामप्रधान करता है। इन ग्रामों को क्रमशः 10, 20, 100, और 1000 के समूहों में संगठित करके स्थानीय शासन के उच्च स्तर बनाए जाते हैं। मनु इस बात पर भी बल देते हैं कि राज्य को जनसामान्य के व्यवहार पर दृष्टि रखने के लिए गुप्तचरों की सेना से युक्त एक कार्यपालक अधिकारी (supervisor) की आवश्यकता है, जो सभी मामलों की निगरानी करे। स्थानीय शासन के समन्वय और संचालन हेतु राजधानी स्तर पर एक मंत्री की नियुक्ति अनिवार्य मानी गई है, जो सम्पूर्ण स्थानीय प्रशासन पर निगरानी रखे।
इसके अतिरिक्त, राज्य की रक्षा के लिए दो, तीन, पाँच या सैकड़ों ग्रामों के मध्य में सैनिक टुकड़ी (company of troops) को तैनात करने की व्यवस्था भी अनिवार्य मानी गई है। इस प्रकार मनु का स्थानीय प्रशासन और सुरक्षा तंत्र व्यवस्थित, बहुस्तरीय, और रणनीतिक था, जिसमें नागरिकों की निगरानी, प्रशासनिक नियंत्रण, और सैन्य सुरक्षा – तीनों को संतुलित रूप से समाहित किया गया था।