नक्सलवाद पार्ट-1: आजादी के बाद से भारत का लोकतंत्र देश को तेजी से विकास की राह पर लेकर चल रहा है। हालांकि, इसमें सबसे बड़ा रोड़ा नक्सलवाद बना हुआ है। वर्तमान सरकार ने इसे मार्च 2026 तक खत्म करने का संकल्प लिया है। इस दिशा में तेजी से काम हो रहा है। लगातार नक्सलियों को मिट्टी में मिलाया जा रहा है। इन तमाम खबरों के बीच आपके दिमाग में भी सवाल तो आता ही होगा कि आखिर इस समस्या का जन्म कब और कहां से हुआ। तो आइये आज हम आपके इस सवाल का जवाब देते हैं।
अमूमन कहा जाता है कि नक्सलवाद 60 के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से जन्म लेता है। इसके बाद वो देश के विभिन्न हिस्सों में फैल जाता है। भारत के लिए ये बात सच है। हालांकि, नक्सलवाद की समस्या वास्तव में कम्युनिज्म से होती है। इसे जानने के लिए हमें समय की यात्रा में कुछ पीछे जाना होगा।
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तो आइये समझते हैं कम्युनिज्म से कैसे नक्सलवाद की शुरुआत होती है?
साल 1818 में जर्मनी में जन्मे कार्ल मार्क्स का मानना था कि सामाजिक समानता के लिए शांतिपूर्ण क्रांति की जानी चाहिए। हालांकि उनका ये भी मानना था कि शांति से बात न बने तो हथियार उठा लेना चाहिए। मार्क्स के विचारों का जर्मनी के श्रमिक वर्ग पर गहरा प्रभाव था। वो मजदूरों के हक में लड़ते रहे। लगातार सरकार के विरोध के कारण उन्हें निर्वासन का सामना करना पड़ा। इन घटनाओं ने उन्हें और भी अधिक क्रांतिकारी बना दिया। निर्वासन के दौरान उन्होंने 1847 में लंदन में कम्युनिस्ट लीग की स्थापना की और 1848 में ‘द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ प्रकाशित किया। इसे ही कम्युनिज्म का आधार माना जाता है। 14 मार्च 1883 में कार्ल मार्क्स की मौत हो गई। इसके बाद भी काफी समय तक कम्युनिस्ट मजदूरों की लड़ाई शांति के रास्ते से लड़ते रहे।
जर्मनी से जन्मा विचार भारत पहुंचा
जर्मनी से जन्मा ये विचार माओ, लेनिन और स्टालिन के माध्यम से रूस और चाइना तक पहुंच गया। जब दुनिया मार्क्सवाद यानी कम्युनिस्ट विचारों से प्रभावित हो रही थी। उसी समय गुलाम भारत में भी इस विचार ने घर करना शुरू कर दिया। 17 अक्टूबर 1920 को अमन राय के नेतृत्व में रूस के ताशकंद में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के स्थापना की बात चली। लगातार इस दिशा में काम होता रहा। नतीजा ये हुए कि कानपुर में दिसंबर 1925 पहली ही बैठक में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के गठन का प्रस्ताव पास हो गया। हालांकि, भारत में उस समय अंग्रेजों की सरकार थी इस कारण कम्युनिस्टों को ब्रिटिश तानाशाही का सामना करना पड़ा।
कम्युनिस्टों का झुकाव अंग्रेजों की तरफ
भारत में कम्युनिस्ट बाकायदा अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा उठाकर गरीब और किसानों की लड़ाई लड़ रहे थे। इस बीच दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। 1939 से 1945 तक चले संघर्ष में जर्मनी, इटली और जापान एक तरफ थे। दूसरी ओर मित्र राष्ट्र यानी फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका और सोवियत संघ लड़ रहे थे। युद्ध के परिणाम में जर्मनी का विभाजन हो गया। एक हिस्सा सोवियत संघ के आधीन आया जहां कम्युनिस्ट सरकार की स्थापना हुई। यहीं से कम्युनिस्टों का झुकाव अंग्रेजों की तरफ होने लगा। क्योंकि, अंग्रेज दूसरा विश्व युद्ध सोवियत संघ के साथ लड़ रहे थे।
कम्युनिज्म ‘भारत विरोधी’ साबित हुआ
दूसरे विश्व युद्ध शुरू के दौरान भारत में अंग्रेजों के खिलाफ आवाद बुलंदी पर थी। महात्मा गांधी ने 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन चला दिया। भारत में कम्युनिस्टों को अंग्रेजों के खिलाफ उठाई महात्मा गांधी की आवाज पसंद नहीं आई। क्योंकि, जर्मनी के बंटवारे से ही वो सोवियत संघ और मित्र ब्रिटेन के साथ खड़े थे। हिंदुस्तान की धरती में बैठे कम्युनिस्टों को देश की आजादी से कोई फर्क नहीं पड़ता था। उन्हें अंग्रेजों का विरोध मित्र को विरोध लग रहा था। क्योंकि, अंग्रेजों ने दूसरे विश्व युद्ध में सोवियत का साथ दिया था। ये पहली बार था जब भारत में कम्युनिज्म ‘भारत विरोधी’ साबित हो गया और आम लोगों के दिलों से दूर हो गया।
दुनिया की पहली चुनी कम्युनिस्ट सरकार
वक्त आगे बढ़ा और साल 1947 में भारत आजाद हो गया। देश में चुनावों का दौर चला तो 1957 केरल विधानसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार बनाने में कामयाब हो गई। ये दुनिया की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार मानी जाती है। 5 साल बाद 1962 में भारत की लड़ाई चीन से हो गई। इसी घटना ने कम्युनिस्ट पार्टी दो गुटों में बांट दिया। चीनी समर्थक गुट ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया से अलग होकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्क्सवादी बना ली। इसके नेता माओ की चीनी क्रांति से प्रभावित चारू मजूमदार और कानू सान्याल बने।
नक्सलबाड़ी आंदोलन से जन्मा नक्सलवाद
मार्क्सवादी ‘सत्ता बंदूक से निकलती है’ के सिद्धांत पर काम करते थे। उन्होंने 1967 में किसानों की समस्याओं में अपनी सियासत को खोज निकाला। चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने किसानों के आंदोलन की भूमि तैयार की और इसे हिंसक बना दिया। 23 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में तीर कमान से लैस किसानों का पुलिस से संघर्ष हो गया। इसमें कई पुलिस वाले घायल हुए। 25 मई को पुलिस तैयारी से साथ पहुंची और गोलीबारी कर दी। इसमें कई लोगों की मौत हो गई। इसके बाद ये आंदोलन करीब 52 दिनों तक चला। इसे माओवाद के नाम से जाना जाता है। हालांकि ये नक्सलबाड़ी में चला इस कारण इसका नाम नक्सलवाद आंदोलन कहा जाने लगा।
1969 में चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) बनाई। इनका मकसद हथियारों के जरिए लड़ाई को आगे बढ़ाना था। 70 के दशक तक आंदोलन तेज हो गया। 1972 में चारू मजूमदार की पुलिस हिरासत में मौत हो गई। यहां से नक्सली आंदोलन में बिखराव हो गया। धीरे-धीरे ये आंध्र प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में मजबूती से पैर जमा लिया। इन्हीं प्रदेशों के 90 जिलों को नक्सलियों का रेड कॉरिडोर कहा जाने लगा। इसके बाद से ही ये आंदोलन देश के विकास में रोड़ा बना हुआ है। अब इसे सरकार ने खत्म करने का इरादा बना लिया है।