सुप्रीम कोर्ट में वक्फ संशोधन अधिनियम को लेकर आज बेहद अहम सुनवाई हुई, जहां तीन दिन तक चली बहसों के बाद कोर्ट ने फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। बहस के दौरान कई तीखे विचार और वैचारिक टकराव सामने आए, जिन्होंने सिर्फ क़ानूनी नहीं, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी गहरी बहस को जन्म दिया।
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कोर्ट में दावा किया, “वक्फ ईश्वर को समर्पित है। यह किसी समुदाय के लिए दान नहीं है, बल्कि यह आध्यात्मिक लाभ के लिए है।” यह तर्क केंद्र सरकार की उस दलील के विरोध में दिया गया था, जिसमें कहा गया था कि वक्फ केवल एक दान की प्रक्रिया है, न कि किसी धार्मिक अनिवार्यता का हिस्सा। मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि हिंदू धर्म में मोक्ष की अवधारणा है, यानी आध्यात्मिक लक्ष्य सभी धर्मों का साझा पहलू है। इसी संदर्भ में न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ने भी ईसाई परंपरा का हवाला देते हुए कहा, “हम सभी स्वर्ग जाने की कोशिश करते हैं।”
मगर बहस उस वक्त और गहरा मोड़ ले गई, जब वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने वक्फ के समर्थन में एक विवादास्पद तर्क देते हुए हिंदू धार्मिक परंपराओं को लेकर कहा, “अगर आप वेदों को देखें, तो मंदिर हिंदू धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं हैं। वहाँ अग्नि, इंद्र जैसे देवता हैं। वे नदियों, पहाड़ों, महासागरों आदि की पूजा करते थे।” धवन के इस बयान ने कोर्टरूम में ही नहीं, बाहर भी बहस को हवा दे दी है आखिर जब वक्फ को ‘ईश्वर को समर्पित आध्यात्मिक तत्व’ के रूप में देखा जा रहा है, तो हिंदू मंदिरों को ‘अनावश्यक’ बताना किस मानसिकता का परिचायक है? क्या यही है वो कथित सेक्युलर दृष्टिकोण, जिसमें एक धर्म के प्रतीकों को पवित्र बताया जाता है और दूसरे के प्रतीकों को हाशिए पर डाल दिया जाता है?
सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस असंतुलन को चुनौती देते हुए स्पष्ट किया कि, “वक्फ एक इस्लामी अवधारणा है, लेकिन यह इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। वक्फ इस्लाम में दान के अलावा कुछ नहीं है। निर्णयों से पता चलता है कि दान हर धर्म का हिस्सा है यह ईसाई धर्म में भी हो सकता है, हिंदुओं में दान की प्रणाली है, और सिखों में भी यह परंपरा मौजूद है।” मुख्य न्यायाधीश गवई ने भी इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा, “दान अन्य धर्मों का भी एक मूलभूत सिद्धांत है।” यानी धार्मिक परंपराओं में समानताएं हैं, लेकिन उन्हें तोड़-मरोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। फिलहाल अदालत ने वक़्फ़ मामले में आदेश को सुरक्षित रख लिया है।
पहले भी हिन्दुओं को तालिबानी बता चुके हैं धवन
यह कोई पहला मौका नहीं है जब वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन पर हिंदू विरोधी सोच को बढ़ावा देने का आरोप लगा हो। इससे पहले भी वे अपनी विवादास्पद टिप्पणियों को लेकर चर्चा में रह चुके हैं खासतौर पर अयोध्या रामजन्मभूमि मामले की सुनवाई के दौरान, जब उन्होंने हिंदुओं को ‘तालिबानी’ कहकर संबोधित किया था। दरअसल, अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के एक दौर में, जब बहस ज़ोरों पर थी, तब हिंदू पक्ष के वकील ने इस बात पर कड़ी आपत्ति जताई कि मुस्लिम पक्ष की ओर से पेश हो रहे राजीव धवन ने पिछली सुनवाई में ‘हिंदू तालिबानी’ शब्द का इस्तेमाल किया था। हिंदू पक्ष ने कोर्ट से मांग की कि इस तरह की भाषा और विचारधारा पर स्पष्ट रोक लगाई जाए, क्योंकि यह न केवल न्यायालय की गरिमा के विरुद्ध है, बल्कि करोड़ों लोगों की धार्मिक आस्था का भी अपमान है।
मगर धवन पीछे हटने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने खुलकर कहा, “6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी। वे लोग हिंदू तालिबानी थे, ठीक वैसे ही जैसे बामियान में मुस्लिम तालिबान ने बुद्ध की मूर्ति गिराई थी।” यह बयान सिर्फ शब्दों का हमला नहीं था, बल्कि उसमें हिंदू और तालिबान जैसे चरमपंथी संगठनों की तुलना कर दी गई जो स्वाभाविक रूप से बेहद आपत्तिजनक थी। मुख्य न्यायाधीश ने धवन की भाषा पर तत्काल आपत्ति जताते हुए इसे अनुचित ठहराया और वकीलों को कोर्ट की गरिमा और भाषा की मर्यादा बनाए रखने की सलाह दी। लेकिन राजीव धवन ने सीजेआई से असहमति जताते हुए साफ कहा कि उन्हें असहमत होने का अधिकार है और वे अपने बयान पर कायम हैं। कोर्ट में मौजूद कई वकीलों ने भी धवन की टिप्पणी पर खुले तौर पर विरोध जताया और इसे एकतरफा वैचारिक हमले के रूप में देखा।