आज ही के दिन, 1974 में भारत ने राजस्थान के पोखरण में अपना पहला परमाणु परीक्षण कर वैश्विक शक्ति संतुलन को चुनौती दी थी। ‘स्माइलिंग बुद्धा’ ऑपरेशन के तहत किए गए इस ऐतिहासिक परीक्षण ने भारत को उन देशों की कतार में ला खड़ा किया, जो स्वयं की रणनीतिक संप्रभुता और सुरक्षा के लिए परमाणु क्षमता हासिल कर चुके थे।
यह परीक्षण पूरी दुनिया की निगाहों से छिपाकर अंजाम दिया गया था, क्योंकि उस दौर में अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन जैसे शक्तिशाली राष्ट्र जिन्हें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य (P-5) के रूप में परमाणु ताकत हासिल थी अन्य देशों को इस तकनीक तक पहुंचने से रोकना चाहते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस परीक्षण को “शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट” बताया, ताकि अंतरराष्ट्रीय मंच पर इसे आक्रामक शक्ति प्रदर्शन के रूप में नहीं, बल्कि स्वतंत्रता और आत्मरक्षा के अधिकार के रूप में देखा जाए।
लेकिन असल सवाल यह है क्यों था P-5 देशों को भारत के परमाणु कार्यक्रम से डर? भारत ने इस परीक्षण के जरिए दुनिया को क्या संदेश दिया? और क्या यह सिर्फ एक परीक्षण था, या एक राजनीतिक और भू-सुरक्षा संकल्प? आइए, इस ऐतिहासिक निर्णय की पृष्ठभूमि, वैश्विक दबावों और भारत के आत्मनिर्भर सुरक्षा दृष्टिकोण को समझते हैं।
भारत के परमाणु परीक्षण की पृष्ठभूमि क्या थी?
1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत के साथ ही जब लाखों लोग मारे गए और अभूतपूर्व तबाही हुई, तब दुनिया ने शक्ति संतुलन और वैश्विक गठबंधनों का एक नया दौर देखा। अमेरिका और सोवियत संघ (यूएसएसआर) ने वैचारिक और आर्थिक वर्चस्व की होड़ में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में परोक्ष युद्ध (प्रॉक्सी वॉर) शुरू कर दिए, जिसे आगे चलकर शीत युद्ध (Cold War) के नाम से जाना गया।
युद्ध के अंतिम चरण में, अगस्त 1945 में अमेरिका द्वारा जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराने के बाद पूरी दुनिया में परमाणु हथियारों के उपयोग से होने वाली तबाही का भय गहराने लगा। इसके चार वर्ष बाद, 1949 में जब सोवियत संघ ने भी अपना पहला परमाणु परीक्षण किया, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह एहसास हुआ कि परमाणु विनाश को रोकने के लिए ठोस नियमों की आवश्यकता है।
इसी दिशा में एक कदम था 1968 में हस्ताक्षरित परमाणु अप्रसार संधि (Nuclear Non-Proliferation Treaty – NPT)। इस संधि के तहत केवल उन्हीं देशों को “परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र” माना गया, जिन्होंने 1 जनवरी 1967 से पहले परमाणु हथियार विकसित और परीक्षण किए थे, यानी अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन जिन्हें आज हम P-5 कहते हैं।
इस संधि के तीन मुख्य स्तंभ थे:
पहला, परमाणु हथियार संपन्न देश किसी अन्य देश को न तो परमाणु हथियार देंगे, न ही इसकी तकनीक स्थानांतरित करेंगे।
दूसरा, गैर-परमाणु देशों ने यह स्वीकार किया कि वे न तो परमाणु हथियार प्राप्त करेंगे, न उसका विकास करेंगे और न ही उसे किसी भी रूप में हासिल करने की कोशिश करेंगे।
तीसरा, सभी सदस्य देश अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) द्वारा निर्धारित अप्रसार उपायों के अंतर्गत कार्य करेंगे, और वैश्विक स्तर पर हथियारों की दौड़ को रोकने और इस तकनीक के प्रसार पर नियंत्रण के लिए सहयोग करेंगे।
हालांकि, यह संधि अपने भीतर गहरी असमानता और पक्षपात को समेटे हुए थी क्योंकि यह कुछ गिने-चुने देशों को ही परमाणु शक्ति का अधिकार देती थी और बाकी राष्ट्रों को उससे वंचित रखती थी। यही वह ऐतिहासिक, कूटनीतिक और रणनीतिक पृष्ठभूमि थी, जिसने भारत को अपनी सुरक्षा और संप्रभुता के लिए स्वतंत्र परमाणु नीति अपनाने की ओर प्रेरित किया।
भारत ने परमाणु परीक्षण करने का निर्णय क्यों लिया?
भारत ने परमाणु अप्रसार संधि (NPT) को एकतरफा और भेदभावपूर्ण करार देते हुए इसे खारिज कर दिया। भारत का स्पष्ट मानना था कि यह संधि केवल P-5 देशों को परमाणु शक्ति बनाए रखने की अनुमति देती है, जबकि अन्य देशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे परमाणु हथियारों के विकास से दूर रहें। विदेश नीति विशेषज्ञ सुमित गांगुली के शब्दों में, “भारत सरकार ने इस संधि की शर्तों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, क्योंकि यह भारत की आपत्तियों को संबोधित करने में पूरी तरह असफल रही,” खासतौर पर इस कारण से कि गैर-परमाणु देशों पर हथियार न बनाने की बाध्यता थी, लेकिन परमाणु हथियार संपन्न देशों पर कोई ठोस प्रतिबद्धता नहीं थी कि वे अपने हथियारों को खत्म करेंगे या विकास रोकेंगे।
भारत के भीतर भी परमाणु ऊर्जा और अनुसंधान की नींव पहले ही रखी जा चुकी थी। वैज्ञानिक होमी जे. भाभा और विक्रम साराभाई ने देश में वैज्ञानिक सोच और आत्मनिर्भरता के आधार पर परमाणु शक्ति की दिशा में मजबूत नींव तैयार की थी। 1954 में परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) की स्थापना की गई और भाभा इसके पहले निदेशक बने। परमाणु ऊर्जा के शुरुआती समर्थक होमी भाभा ने लिखा था, “जब परमाणु ऊर्जा को अगले कुछ दशकों में विद्युत उत्पादन के लिए सफलतापूर्वक लागू किया जाएगा, तो भारत को विशेषज्ञों के लिए विदेश नहीं देखना पड़ेगा, वे यहीं मौजूद होंगे।” हालांकि उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू परमाणु हथियारों और सैन्य आधुनिकीकरण को लेकर संकोच में रहते थे।
लेकिन 1960 के दशक में परिस्थितियां तेजी से बदलीं। नेहरू की मृत्यु, मोरारजी देसाई का उत्तराधिकार, और भारत-चीन युद्ध (1962) में हुई हार ने भारत की रणनीतिक सोच को झकझोर दिया। इसके बाद 1965 और 1971 में पाकिस्तान के साथ दो युद्ध हुए, जिनमें भारत विजयी रहा इसने भारत की सैन्य और परमाणु नीति को नया मार्ग देने का काम किया। इस दौरान चीन ने भी 1964 में अपना परमाणु परीक्षण किया, जिसने भारत के लिए खतरे की नई परिभाषा खड़ी कर दी। इन सभी घटनाओं ने भारत को यह एहसास दिलाया कि अगर उसे अपनी संप्रभुता की रक्षा करनी है, तो वह दूसरों पर निर्भर नहीं रह सकता। भारत को आत्मनिर्भर परमाणु शक्ति बनना ही होगा न सिर्फ ऊर्जा के लिए, बल्कि अपने रणनीतिक अस्तित्व की रक्षा के लिए भी।
पोखरण-I परीक्षण का नाम क्यों पड़ा स्माइलिंग बुद्धा
जहाँ प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू परमाणु परीक्षणों को लेकर संकोच में थे, वहीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रुख कहीं अधिक स्पष्ट और दृढ़ था। उन्होंने परमाणु शक्ति को एक रणनीतिक आवश्यकता के रूप में देखा, न कि केवल वैज्ञानिक उपलब्धि के तौर पर। लेकिन चूंकि उस समय P-5 देशों द्वारा बनाई गई संधियाँ और दबाव पूरी दुनिया पर हावी थे, भारत ने तय किया कि यह परीक्षण पूरी तरह गोपनीय तरीके से किया जाएगा — बिना किसी अंतरराष्ट्रीय पूर्व सूचना के। 18 मई 1974 को राजस्थान के पश्चिमी रेगिस्तान में स्थित पोखरण सेना परीक्षण क्षेत्र में भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण सफलतापूर्वक किया, जिसकी शक्ति लगभग 12-13 किलोटन TNT के बराबर थी। इस मिशन में करीब 75 वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं की टीम शामिल थी, जिन्होंने कई महीनों तक गुप्त तैयारी के बाद इसे अंजाम दिया।
इस मिशन को “स्माइलिंग बुद्धा” नाम दिया गया, क्योंकि यह परीक्षण गौतम बुद्ध की जयंती के दिन किया गया था — एक शांतिपूर्ण प्रतीक के दिन भारत ने अपनी रणनीतिक संप्रभुता की घोषणा की। पोखरण-I न केवल एक तकनीकी सफलता थी, बल्कि यह भारत का विश्व मंच पर आत्मनिर्भरता और सुरक्षा नीति का ऐलान भी था एक ऐसा फैसला, जिसने आने वाले दशकों की भू-राजनीतिक दिशा को बदल दिया।
पोखरण परमाणु परिक्षण के बाद क्या हुआ
भारत ने पोखरण परीक्षण के माध्यम से दुनिया को यह स्पष्ट संदेश दिया कि यदि कोई चरम परिस्थिति उत्पन्न होती है, तो वह अपनी सुरक्षा स्वयं सुनिश्चित करने में सक्षम है। लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि 1974 में किए गए इस परीक्षण के बावजूद भारत ने तत्क्षण परमाणु हथियारों का निर्माण या तैनाती नहीं की। यह अगला कदम भारत ने 1998 के पोखरण-II परीक्षण के समय उठाया। हालांकि, इस परीक्षण के तुरंत बाद भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीव्र आलोचना का सामना करना पड़ा। वर्ष 1978 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने “न्यूक्लियर नॉन-प्रोलिफरेशन एक्ट” पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत अमेरिका ने भारत को परमाणु सहायता देना बंद कर दिया।
अमेरिका का नजरिया भारत के प्रति लंबे समय तक सख्त बना रहा और इसमें बदलाव 18 जुलाई 2005 को देखने को मिला, जब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वाशिंगटन में पहली बार भारत-अमेरिका परमाणु समझौते की मंशा सार्वजनिक की। इसी दौरान अमेरिका ने यह सुनिश्चित करने के लिए भी पहल की कि परमाणु उपकरण और विखंडनीय सामग्री का प्रसार नियंत्रित किया जाए। इसी सोच से 48 देशों का “न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप” (NSG) बना, जिसने परमाणु सामग्री के निर्यात के लिए साझा नियम लागू किए। इस समूह में नया सदस्य केवल सर्वसम्मति से ही शामिल हो सकता है, जिससे भारत की राह चुनौतीपूर्ण बन गई।
भारत 2008 से लगातार NSG में शामिल होने की कोशिश कर रहा है, ताकि उसे वैश्विक परमाणु व्यापार के “हाई टेबल” में स्थान मिल सके, जहां परमाणु उपकरणों की बिक्री, नियमन और सहयोग पर निर्णय लिए जाते हैं। प्रारंभ में जिन देशों ने विरोध किया था, जैसे ऑस्ट्रेलिया, उन्होंने बाद में अपना रुख बदला। मैक्सिको और स्विट्ज़रलैंड जैसे राष्ट्र भी अब भारत के पक्ष में समर्थन जाहिर कर चुके हैं। भारत ने चीन को छोड़कर लगभग सभी विरोधी देशों को धीरे-धीरे सहमत कर लिया है, लेकिन चीन आज भी एकमात्र ऐसा देश है जो भारत की सदस्यता का विरोध करता रहा है।
यही कारण था कि भारत ने 1974 के बाद तुरंत अगला परीक्षण नहीं किया, और पूरी रणनीतिक समझदारी और अंतरराष्ट्रीय समीकरणों को ध्यान में रखते हुए ही 1998 में पोखरण-II परीक्षण को अंजाम दिया। उस समय भी वैश्विक प्रतिक्रियाएं नकारात्मक थीं, लेकिन वर्षों में भारत ने स्वयं को एक “जिम्मेदार परमाणु शक्ति” के रूप में स्थापित किया है, जो केवल सुरक्षा और संतुलन बनाए रखने के उद्देश्य से परमाणु हथियार रखता है। भारत की यही संयमित, रणनीतिक और राष्ट्रहित-प्रधान नीति है, जिसने उसे आज NSG जैसे मंचों पर वैध दावेदार बना दिया है और वैश्विक समुदाय में एक परिपक्व परमाणु राष्ट्र के रूप में मान्यता दिलाई है।