Story of Lieutenant General Jagjit Singh Arora: पहलगाम हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का माहौल है। हमारा पड़ोसी नापाक पाकिस्तान गीदड़भभकी के जरिए हमें डराने की कोशिश कर रहा है। ऐसा लगाता है मानो वो ये भूल गया है (Who Is gen jagjit singh aurora) कि भारत की भूमि वीरों की जननी है, यहां हर कदम पर शौर्य की गाथा लिखी जाती है। इसके जीते जागते सबूत आजादी के बाद से हुए युद्ध हैं। 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध भारतीय सेना के शौर्य का स्वर्णिम अध्याय था। इस गाथा के नायक लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा (9171 war hero jagjit singh arora) थे। जिन्होंने मात्र 10 दिनों में 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण करा लिया था। इसी का परिणाम था कि बंगाली आवाम को उनका अपना देश बांग्लादेश मिला। यह सब जनरल अरोड़ा की सूझबूझ, रणकौशल और देशप्रेम का परिणाम था।
आज यानी 3 मई को हमारे उसी नायक की पुण्यतिथि (lt gen jagjit singh aurora death anniversary) है। आइये जानें लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा का जीवन और उनके युद्ध कौशल की इतिहास कि किस तरह उनके मन में इंदिरा गांधी के फैसले के प्रति टीस बैठ गई थी।
विश्व युद्ध से 1971 की जंग तक
13 फरवरी 1916 को आज के पाकिस्तान में बसे झेलम जिले के कला गुजरां गांव में एक सिख परिवार में लड़के का जन्म (lt gen jagjit singh birthday) होता है। इंजीनियर पिता ने लड़के का नाम जगजीत सिंह रखा। बचपन से ही उनके भीतर रणभूमि की पुकार थी। 1939 में इंडियन मिलिटरी अकादमी से पास होकर उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के खिलाफ मोर्चा संभाला। इसके बाद 1947, 1962, 1965 और 1971 की जंग में अपनी अद्वितीय रणकौशल (jagjit singh aurora war history) का परिचय दिया।
- 13 फरवरी 1916 को जन्म
- 1939 में इंडियन मिलिटरी अकादमी
- 1939 में ही द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल
- 1947, 1962, 1965 और 1971 के युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका
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लगातार आया निखार
जनरल अरोड़ा (general jagjit singh) ने 1939 से ही रणकौशल की सीख हासिल कर ली थी। देश के आजाद होते ही उन्हें इसके प्रयोग का अवसर मिला। 1947 के कश्मीर युद्ध, 1962 के भारत-चीन युद्ध और 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अपनी राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया। हालांकि, 1971 के युद्ध में उन्होंने जो अद्भुत क्षमता दिखाई, वह भारतीय सैन्य इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई।
- 1962 चीन के साथ युद्ध में कठिन परिस्थितियों ने उन्हें और निखारा।
- 1965 पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में उनकी योजना ने शत्रु को चकित कर दिया।
- 1971 पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ के रूप में उन्होंने बांग्लादेश को मुक्ति दिलाई।
कुशल रणनीतिकार थे अरोड़ा
जनरल अरोड़ा एक बेहतरीन रणनीतिकार (military commander jagjit singh aurora) थे। 1971 की जंग में उन्होंने दुश्मन की चालों को भांपते हुए ऐसी व्यूह रचना की, जिससे पाकिस्तान की सेना चारों खाने चित्त हो गई। 17 दिसंबर, 1971 को ‘पाञ्चजन्य’ से बातचीत में उन्होंने अपनी रणनीति का खुलासा किया था। उन्होंने बताया कि हम चाहते थे कि युद्ध लंबा न खिंचे, इसलिए हमने ऐसी रणनीति बनाई ताकि युद्ध को छोटा किया जा सके। पाक सेना सोच रही थी हम 1965 की तरह मुख्य मार्गों से आक्रमण करेंगे। इसलिए हमने मुख्य मार्गों को छोड़कर अन्य अप्रत्याशित रास्तों से आक्रमण करने की योजना बनाई।
- जनरल अरोड़ा युद्ध को लंबा नहीं खींचना चाहते थे।
- मुख्य सड़कों को छोड़कर वैकल्पिक रास्तों से आक्रमण में घिरी पाक सेना।
- छाताधारी सैनिकों को सीधे ढाका में उतारकर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया।
- 10 दिन में भारतीय सेना ने ढाका को घेर पाकिस्तान को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया
कब्जे में लिए सैनिक और जमीन
उनकी रणनीति का ही परिणाम था कि 16 दिसंबर 1971 को ढाका का रेस कोर्स मैदान इतिहास का गवाह बना। पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी के आत्मसमर्पण के साथ ही 93,000 पाकिस्तानी सैनिक और 5,139 वर्ग मील भूमि भारत के कब्जे में आ गई। यह जीत पाकिस्तान के अहंकार को चूर-चूर करने वाली और बांग्लादेश की आजादी का शंखनाद थी। जिसने 10 दिन में बांग्लादेश को आजाद करा दिया।
- 3 दिसंबर अंधेरे में पाकिस्तान ने भारत के 11 एयरबेस पर हवाई हमला कर दिया।
- 4 दिसंबर को जगजीत सिंह अरोड़ा के नेतृत्व में सेना ने पूर्वी पाकिस्तान के भीतर दाखिल हुई।
- 5 दिसंबर को भारतीय सेना ने जेसोर, सिलहट और चटगांव की तरफ कब्जा लेना शुरू किया।
- वायुसेना ने ढाका और बाकी बड़े शहरों के कम्युनिकेशन सिस्टम को तोड़ दिया।
- 6 दिसंबर को भारत ने बांग्लादेश को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में आधिकारिक मान्यता दे दी।
- 7 दिसंबर भारतीय सेना ने मेघना नदी पार कर ढाका की ओर कदम बढ़ाया।
- 8 दिसंबर अमरीका, बंगाल की तरफ बढ़ा लेकिन जनरल अरोड़ा ने जमीनी मोर्चे पर दबाव बनाए रखा।
- तब जनरल अरोड़ा ने कहा था कि ये ये लड़ाई न्याय की है, हम पीछे नहीं हटेंगे।
- 9 दिसंबर को पाकिस्तानी सेना ढाका में घिर गई और मनोबल टूटने लगा।
- 10 दिसंबर को जनरल नियाजी ने आत्मसमर्पण की इच्छा जताई भारत इसके लिए तैयार हो गया।
- 11–15 दिसंबर तक भारतीय सेना ढाका के चारों ओर कब्जा जमा लिया।
- 13 दिसंबर को पाक राष्ट्रपति याहिया खान ने मान लिया कि हम युद्ध नहीं जीत सकते।
- 16 दिसंबर साम 4:31 बजे ढाका के रेस कोर्स मैदान में पाक ने हथियार डाल दिए।
इंदिरा गांधी के फैसले से थे आहत
युद्ध में मिली इस शानदार विजय के बाद भी जनरल अरोड़ा का मन एक टीस से भरा रहा। शिमला समझौते में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा भारत के जीते हुए क्षेत्र को पाकिस्तान को लौटाने के फैसले से वे गहरे आहत थे। उनके शब्दों में यह पीड़ा साफ़ झलकती थी। वो कहते थे कि हम चाहते तो अपने हित में निर्णय ले सकते थे।
- शिमला समझौते में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सब पाकिस्तान को लौटा दिया।
- जनरल अरोड़ा के हृदय में यह निर्णय एक गहरी चोट बनकर रहा।
- उन्होंने कहा था ‘हमारे राजनेताओं ने हमारी जीत पर पानी फेर दिया।’
- उनके ये शब्द भूमि की हानि के लिए नहीं बल्कि सैनिकों के बलिदान के लिए थे।
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मौत से बांग्लादेश में फैल गया था शोक
1973 में सेना से सेवानिवृत्ति के बाद जनरल अरोड़ा ने सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में योगदान दिया। 1986 में वे अकाली दल के टिकट पर राज्यसभा सदस्य बने। 1997 में पत्नी भागवंत कौर के निधन के बाद वे एकाकी जीवन जीने लगे थे। शास्त्रीय संगीत और किताबों ने उनका साथ दिया। उन्हें परम विशिष्ट सेवा मेडल और पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। 1986 में वे अकाली दल के टिकट पर राज्यसभा के सदस्य बने और एक सांसद के रूप में भी उन्होंने बेहतरीन भूमिका निभाई। 3 मई 2005 को महान सेनानायक ने अंतिम सांस ली। तब बांग्लादेश भी शोक से डूब गया था।
- युद्ध के बाद उन्हें परम विशिष्ट सेवा पदक और पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
- 1986 में अकाली दल के राज्यसभा सदस्य बने और सिख दंगों के खिलाफ आवाज उठाई।
- ऑपरेशन ब्लू-स्टार और 1984 के दंगों के खिलाफ आवाज उठाई।
- 3 मई 2005 को महान सेनानायक ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
अमर नायक की अमर गाथा
भारत की शौर्य गाथा के स्वर्णिम पृष्ठों पर 1971 के युद्ध की विजय एक अमिट हस्ताक्षर है। यह केवल एक युद्ध नहीं था, बल्कि अन्याय और अत्याचार के खिलाफ न्याय और मानवता की दहाड़ थी। इसके नायक जनरल अरोड़ा केवल एक सैनिक नहीं, बल्कि देशभक्ति की जीवंत मिसाल थे। उनकी रणनीति, नेतृत्व और साहस आज के युवाओं के लिए प्रेरणा हैं। उन्होंने सिखाया कि कठिन परिस्थितियों में भी हिम्मत और बुद्धि से विजय पाई जा सकती है।वहीं उनकी टीस हमें सिखाती है कि सैनिकों के बलिदान का सम्मान करना हर नागरिक का कर्तव्य है।