बांग्लादेश में मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार ने एक ऐसा नया अध्यादेश पारित किया है, जिसने न सिर्फ देश के कानून में संशोधन किया, बल्कि 1971 के मुक्ति संग्राम के गौरवशाली इतिहास को भी झकझोर दिया है। इस नए अध्यादेश में ‘स्वतंत्र सेनानी’ यानी ‘बीर मुक्तियुद्धा’ की परिभाषा को बदला गया है, जिसके चलते बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान सहित 400 से अधिक प्रमुख नेताओं से यह दर्जा औपचारिक रूप से छीन लिया गया है।
यह बदलाव राष्ट्रीय स्वतंत्रता सेनानी परिषद अधिनियम (National Freedom Fighters Council Act) में संशोधन कर लाया गया है, जिसे मंगलवार रात को जारी किया गया। नए अध्यादेश के तहत, अब वे सभी सदस्य जो मुक्ति संग्राम के दौरान मुजीबनगर सरकार से जुड़े हुए एमएनए (राष्ट्रीय विधानसभा सदस्य) और एमपीए (प्रांतीय विधानसभा सदस्य) थे और युद्ध के बाद संविधान सभा का हिस्सा बने, उन्हें अब ‘स्वतंत्र सेनानी’ नहीं बल्कि केवल ‘मुक्ति संग्राम के सहयोगी’ के रूप में दर्ज किया जाएगा।
क्या बोले मुक्ति संग्राम के वरिष्ठ शोधकर्ता
नए कानून में स्वाधीन बांग्ला बेतार केंद्र के कलाकार, तकनीकी कर्मी और देश-विदेश के पत्रकारों को भी केवल ‘सहयोगी’ का दर्जा दिया गया है, जबकि पहले इन्हें भी ‘स्वतंत्रता सेनानी’ के रूप में सम्मानित किया जाता था। यही नहीं, स्वाधीन बांग्ला फुटबॉल टीम के वे सदस्य, जिन्होंने युद्ध के समय दुनिया भर में बांग्लादेश के पक्ष में समर्थन जुटाने में अहम भूमिका निभाई, अब स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से औपचारिक रूप से अलग कर दिए गए हैं।
इस संशोधित अध्यादेश में मुक्ति संग्राम को 26 मार्च से 16 दिसंबर 1971 तक के उस संघर्ष के रूप में परिभाषित किया गया है, जो बांग्लादेश को एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाने के उद्देश्य से पाकिस्तानी सेना और उनके सहयोगी संगठनों — रजाकार, अल-बद्र, अल-शम्स, मुस्लिम लीग, जमाते-इस्लामी, निजाम-ए-इस्लाम और पीस कमिटी के खिलाफ लड़ा गया था।
नए कानून के अनुसार, अब वही व्यक्ति ‘बीर मुक्तियुद्धा’ माना जाएगा, जिसने युद्ध की अवधि में गांवों में प्रशिक्षण प्राप्त किया हो या भारत जाकर प्रशिक्षण शिविरों में शामिल हुआ हो और जिसने पाकिस्तानी सेना और उसके सहयोगियों के खिलाफ प्रत्यक्ष रूप से युद्ध में भाग लिया हो। सबसे विवादास्पद बदलाव यह है कि अध्यादेश में अब ‘राष्ट्रपिता बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान’ का नाम पूरी तरह हटा दिया गया है। जिन धाराओं में उनका उल्लेख था, उन्हें भी विधिवत रूप से कानून से निकाल दिया गया है।
इस पूरे घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया देते हुए मुक्ति संग्राम के वरिष्ठ शोधकर्ता अफ़सान चौधरी ने इसे एक नौकरशाही से प्रेरित फैसला बताया। उन्होंने कहा कि 1972 से अब तक यही देखा गया है कि जब भी कोई नई सरकार सत्ता में आती है, वह स्वतंत्रता सेनानियों की एक नई सूची तैयार करती है और इसमें व्यक्तिगत हित भी शामिल होते हैं। उन्होंने यह भी जोड़ा कि लोग इस बदलाव को कभी स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि मुक्ति संग्राम सरकार की सूची में नहीं, बल्कि आम जनता के दिलों में हमेशा जीवित रहेगा।