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ईद-अल-अज़हा यानी बकरीद के अगले दिन पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से कुछ हैरान कर देने वाले वीडियो सामने आए है। इन विडियोज़ में सड़कों पर खून और जानवरों के अवशेष बहते हुए दिखाई दे रहे हैं। जो एक शांतिपूर्ण धार्मिक आयोजन होना चाहिए था, वह देखते ही देखते एक सार्वजनिक स्वच्छता संकट में बदल गया और इसने आधुनिक भारत में धार्मिक परंपराओं के पालन के तरीकों पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह नज़ारा किसी त्योहार के बाद का नहीं, बल्कि किसी आपदा के बाद का लग रहा था। इन दृश्यों ने न केवल लोगों को असहज कर दिया बल्कि देशभर में सफाई व्यवस्था, धार्मिक आयोजनों की जिम्मेदारी और सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
पश्चिम बंगाल में अव्यवस्था: एक नागरिक और राजनीतिक संकट
पश्चिम बंगाल की स्थिति एक बड़े विवाद का केंद्र बन गई है। विपक्ष, खासकर भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने तृणमूल कांग्रेस (TMC) सरकार पर त्योहार को सही ढंग से प्रबंधित न कर पाने का आरोप लगाया है। भाजपा नेताओं ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर आरोप लगाया कि उन्होंने एक विशेष वोट बैंक को खुश करने के लिए कोलकाता को ‘ग्रेटर बांग्लादेश’ में बदल दिया है।
हालांकि यह आलोचना केवल राजनीति तक सीमित नहीं थी। यह गुस्सा आम नागरिकों की उस पीड़ा को दर्शाता है, जिन्हें सड़कों पर पसरे जानवरों के खून और कचरे से गुजरना पड़ा। इससे न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता को लेकर गंभीर सवाल खड़े हुए, बल्कि बच्चों और बुजुर्गों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ा।
कई इलाकों में जानवरों की बलि सड़कों पर, दुकानों के सामने और घरों के पास दी गई। इन गतिविधियों ने न केवल नागरिक कानूनों का उल्लंघन किया, बल्कि साझा सार्वजनिक स्थलों में डर और असहजता का माहौल भी बना दिया। यह घटना न सिर्फ प्रशासनिक चूक को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे सार्वजनिक स्थानों पर नियमों की अनदेखी आम जनता के जीवन को प्रभावित कर सकती है।
दो राज्यों की कहानी: पश्चिम बंगाल बनाम उत्तर प्रदेश
जब कोलकाता की सड़कों को साफ करने में प्रशासन जूझ रहा था, तब उत्तर प्रदेश ने एक बिल्कुल अलग और सख्त रुख अपनाया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में राज्य ने ईद के त्योहार को लेकर स्पष्ट और कठोर नियम लागू किए:
गाय और ऊंट की कुर्बानी पर सख्त रोक लगाई गई, जिससे कानूनी और धार्मिक मान्यताओं दोनों का सम्मान हुआ।
केवल पंजीकृत बूचड़खानों को ही संचालन की अनुमति दी गई और उनकी क्षमता की जांच भी सुनिश्चित की गई।
बर्ड फ्लू को लेकर विशेष सतर्कता बरती गई।
किसी भी सार्वजनिक स्थल पर जानवरों की कुर्बानी पर सख्त कार्रवाई का ऐलान किया गया।
इन दोनों राज्यों के दृष्टिकोण में अंतर साफ नज़र आता है। एक राज्य ने त्योहार को अनुशासन और स्पष्ट नियमों के साथ संभाला जबकि दूसरे राज्य ने ‘संस्कृति’ के नाम पर अव्यवस्था को खुली छूट दे दी। यह विरोधाभास एक जरूरी सवाल को जन्म देता है- भारत में सार्वजनिक स्थलों पर धार्मिक आयोजनों का प्रबंधन कैसे किया जाना चाहिए? क्या आस्था के नाम पर कानून और नागरिक व्यवस्था से समझौता किया जा सकता है, या हमें एक संतुलित, नियमबद्ध दृष्टिकोण अपनाना होगा जो सभी समुदायों के हितों और सार्वजनिक जीवन की मर्यादाओं का सम्मान करे?
क्या धार्मिक त्योहारों को नए तरीके से मनाने की ज़रूरत है?
ईद-अल-अज़हा या कोई भी धार्मिक त्योहार मनाने पर किसी को आपत्ति नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन परंपराओं को आज के समाज के अनुरूप नहीं ढाला जाना चाहिए?
दुबई और तुर्की जैसे मुस्लिम देशों में कुर्बानी केवल सरकार से मान्यता प्राप्त और साफ-सुथरे कसाईखानों में ही होती है। वहां न सड़कों पर खून बहता है, न ही आम लोगों को कोई परेशानी होती है। तो भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता?
आस्था और स्वच्छता साथ-साथ
इस्लाम धर्म में साफ-सफाई, अनुशासन और दया को बहुत महत्व दिया गया है। लेकिन कोलकाता की सड़कों पर जो हुआ, वह इन मूल्यों के ठीक उलट था। ये धर्म के खिलाफ नहीं, बल्कि समाज के प्रति ज़िम्मेदारी निभाने की बात है।
खुले में जानवरों की हत्या के दृश्य बच्चों और आम लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डाल सकते हैं। आधुनिक धार्मिक आचरण में दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखना भी ज़रूरी है।
अब क्या करना ज़रूरी है?
पश्चिम बंगाल सरकार को अगले त्योहार सीजन से पहले कदम उठाने होंगे:
सड़कों, फुटपाथों और आवासीय इलाकों के नजदीक सार्वजनिक कुर्बानी पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाना।
जानवरों की कुर्बानी के लिए विशेष स्थान निर्धारित करना, जहां स्वच्छता की जांच हो और कचरे का सही निपटान किया जाए।
लोगों में जागरूकता बढ़ाने के लिए अभियान चलाना ताकि वे समझ सकें कि यह बदलाव धर्म के खिलाफ नहीं, बल्कि सार्वजनिक हित में आवश्यक है।
साथ ही, अन्य राज्यों की सरकारों को भी उत्तर प्रदेश के उदाहरण पर चलकर स्पष्ट नियम बनाना और लागू करना चाहिए, ताकि कानून और व्यवस्था को प्राथमिकता मिले, न कि वोट बैंक की राजनीति को।
धर्म और ज़िम्मेदारी साथ-साथ चलें
ईद-अल-अज़हा त्याग और आस्था का पर्व है, लेकिन इसमें डर, गंदगी और अराजकता की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई भी धर्म सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करे। अब समय है कि हम ईमानदारी से बदलाव की दिशा में सोचें। परंपराएं निभें, लेकिन दूसरों को परेशान किए बिना। धर्म का पालन हो, लेकिन सफाई और ज़िम्मेदारी के साथ।
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