विश्व चैंपियन डोमाराजू गुकेश ने नॉर्वे चेस 2025 टूर्नामेंट के छठे दौर में अपने करियर की एक ऐतिहासिक जीत दर्ज की। उन्होंने पहली बार पूर्व वर्ल्ड नंबर वन मैग्नस कार्लसन को क्लासिकल टाइम कंट्रोल में मात दी। भारत के इस 18 वर्षीय ग्रैंडमास्टर ने सफेद मोहरों से खेलते हुए जबरदस्त मानसिक संतुलन दिखाया और दबाव की स्थिति में भी खेल पर पकड़ बनाए रखी। खेल के अंतिम चरण में 34 वर्षीय नॉर्वेजियन ग्रैंडमास्टर से हुई एक दुर्लभ चूक को डी गुकेश ने तुरंत पहचान लिया और उसे यादगार जीत में बदल दिया। खास बात यह रही कि यह मुकाबला स्टावेंगर में खेला जा रहा था, जहां मैग्नस को घरेलू दर्शकों का पूरा समर्थन प्राप्त था। खेल के ज़्यादातर हिस्सों में कार्लसन का अपर हैंड बना रहा और वे बेहतर स्थिति में दिखते रहे। लेकिन डी गुकेश ने धैर्य, सूझबूझ और क्लासिकल चेस की गहराई से यह साबित कर दिया कि चेस अब सिर्फ यूरोप की बौद्धिक बादशाहत नहीं है भारत की भी है। यह जीत सिर्फ एक टूर्नामेंट पॉइंट नहीं थी। यह एक ऐतिहासिक प्रतीक है उस भारत की वापसी का, जिसने कभी शतरंज को जन्म दिया था।
अकसर यह माना जाता है कि आधुनिक खेलों की शुरुआत पश्चिमी दुनिया, खासकर यूरोप से हुई है। ग्रीस में ओलंपिक खेलों का आरंभ इसी धारणा को बल देता है। लेकिन यह तथ्य बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि दुनिया का सबसे पुराना स्टेडियम भारत के गुजरात राज्य के कच्छ ज़िले में स्थित धोलावीरा में पाया गया था। 1968 में हुए पुरातात्विक उत्खनन ने यह प्रमाणित कर दिया कि भारत की सभ्यता सिर्फ आध्यात्मिक या सांस्कृतिक नहीं थी, बल्कि खेलों और नगर योजना के क्षेत्र में भी विश्व से कहीं आगे थी। धोलावीरा की नगर रचना और जीवनशैली को देखकर आज की 21वीं सदी के योजनाकार भी आश्चर्यचकित रह जाते हैं।
भारत के पूर्वजों ने जिस जीवनदृष्टि को अपनाया था, वह शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास का समग्र दर्शन था। इसी कारण उन्होंने युद्धकला, विज्ञान, संगीत और खेल को समान महत्व दिया। मल्लयुद्ध, रथ दौड़, घुड़सवारी और धनुर्विद्या के साथ-साथ उन्होंने बैठे-बैठे खेले जाने वाले खेलों को भी उच्च दर्जा दिया, जिनमें एक विशेष खेल था ‘अष्टापद’। यही अष्टापद आज ‘चेस’ यानी शतरंज के रूप में दुनिया भर में प्रसिद्ध है। यह विडंबना ही है कि जो खेल भारत की देन था, वही धीरे-धीरे हमारी सांस्कृतिक स्मृति से मिटता चला गया। जब पूरी दुनिया उसे अपनाकर आगे बढ़ रही थी, तब हम अपने ही इतिहास से दूर होते जा रहे थे।
हालाँकि हर पतन के बाद पुनरुत्थान होता है। पहले विश्वनाथन आनंद ने भारतीय शतरंज को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठा दिलाई और अब दिसंबर 2024 में 18 वर्षीय डी. गुकेश डोम्माराजू ने उसे शिखर पर पहुँचा दिया। उन्होंने चीन के मौजूदा विश्व चैंपियन डिंग लिरेन को 14 मैचों की कठिन और तनावपूर्ण श्रृंखला में हराकर सबसे कम उम्र के निर्विवाद वर्ल्ड चेस चैंपियन बनने का गौरव प्राप्त किया। यह जीत सिर्फ एक ट्रॉफी या व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं थी यह भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बन गई। गुकेश ने यह दिखा दिया कि भारत न केवल शतरंज का जन्मदाता है, बल्कि उसका असली उत्तराधिकारी भी है।
गुकेश ऐसे समय में नायक बनकर उभरे हैं जब युवा पीढ़ी का आकर्षण क्रिकेट और बॉलीवुड की चकाचौंध तक सीमित होता जा रहा था। उन्होंने यह साबित कर दिया कि असली नायक वही होता है जो शांति से सोचता है, चुपचाप चलता है और फिर दुनिया को चौंका देता है। उनका युद्धक्षेत्र कोई मैदान नहीं, बल्कि शतरंज की 64 खानों वाली बिसात है। आज जब लाखों युवा गुकेश को देखकर शतरंज की ओर आकर्षित हो रहे हैं, स्कूलों में चेस क्लब खुल रहे हैं, राज्य सरकारें अकादमियाँ स्थापित कर रही हैं और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर भारतीय यूज़र बेतहाशा बढ़ रहे हैं तो यह स्पष्ट है कि गुकेश अब सिर्फ एक खिलाड़ी नहीं, बल्कि एक आंदोलन का नाम बन चुके हैं। गुकेश की यह जीत उस भारत की वापसी है जिसने दुनिया को शतरंज दिया था, और अब उसे फिर से अपना बना लिया है। यह सिर्फ इतिहास नहीं, एक जीवंत वर्तमान है, जिसमें हमारी विरासत, हमारी बौद्धिक शक्ति और हमारे युवा का आत्मविश्वास तीनों एक साथ चमक रहे हैं।
शतरंज का पुनर्जागरण
कभी विश्वनाथन आनंद भारतीय शतरंज का पर्याय माने जाते थे, पर अब गुकेश, प्रज्ञानानंद, अर्जुन एरिगैसी और निहाल सरीन जैसे नाम एक नई क्रांति लिख रहे हैं। गुकेश की विश्व खिताब जीत और भारत की 2024 फाइडे शतरंज ओलंपियाड में शानदार प्रदर्शन ने शतरंज को एक बार फिर जनमानस का खेल बना दिया है। इस लहर को अब “इंडियन चेस 2.0” कहा जा रहा है जहां युवा, टेक्नोलॉजी और परंपरा मिलकर भारत को फिर से वैश्विक शतरंज के केंद्र में ला रहे हैं।
इसके साथ गुकेश का शांत स्वभाव, विनम्रता और अडिग फोकस उन्हें आज के युवाओं के लिए आदर्श बनाता है। उनके चैंपियनशिप मैचों को लाखों भारतीयों ने ऑनलाइन देखा, विशेष रूप से 18–34 उम्र वर्ग में। यूट्यूब पर स्ट्रीमर्स और कमेंटेटर्स ने “गुकेश वेव” को अपना लिया है जिसने शतरंज को ‘कूल’, प्रतिस्पर्धी और relatable बना दिया है। Chess.com और Lichess.org जैसे प्लेटफॉर्म्स पर भारतीय यूज़र्स की बाढ़ आ गई है। स्कूलों में शतरंज अब एकेडमिक एक्टिविटी नहीं, बल्कि mainstream sport बन रहा है। कई राज्य सरकारें नए अकादमीज़ खोल रही हैं। यह सब गुकेश प्रभाव की ताकत है।
संस्थागत सहयोग और निवेश
AICF (ऑल इंडिया चेस फेडरेशन) ने इस लहर को देखते हुए अपना बजट बढ़ाकर ₹65 करोड़ सालाना कर दिया है। अब कोचिंग कैंप्स, इंटरनेशनल टूर्नामेंट एक्सपोजर, और खिलाड़ियों के लिए अनुबंध जैसी योजनाएं लागू की जा रही हैं। 300+ खिलाड़ी इन विकास योजनाओं में हिस्सा ले रहे हैं। साथ ही कॉरपोरेट प्रायोजक, एनजीओ और निजी संस्थाएं भी शतरंज को ग्रामीण स्कूलों में लेकर जा रही हैं इसे सिर्फ खेल नहीं, मानसिक कौशल और जीवन मूल्यों के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
शतरंज: भारत में जन्मा, भारत द्वारा पुनः प्राप्त
शतरंज की जड़ें भारत की प्राचीन सभ्यता में हैं जहां यह ‘चतुरंग’ अथवा अष्टपद के नाम से छठी शताब्दी में खेला जाता था। चार सैन्य शाखाओं (पैदल, घुड़सवार, रथ और हाथी) पर आधारित यह खेल रणनीति, दूरदर्शिता और मानसिक अनुशासन का प्रतीक था। समय के साथ यह खेल पश्चिमी दुनिया में पहुंचा, लेकिन उसकी आत्मा भारत की थी और है। आज जब भारत वैश्विक मंच पर बौद्धिक नेतृत्व दिखा रहा है, गुकेश की जीत इस सांस्कृतिक पुनःअधिग्रहण का प्रतीक है।
गुकेश सिर्फ वर्ल्ड चैंपियन नहीं हैं वो भारत की सांस्कृतिक पहचान और गौरव के प्रतीक बन चुके हैं। एक ऐसा भारत जो वेदों से लेकर विक्रम साराभाई तक, अपनी बुद्धिमत्ता की परंपरा में गर्व करता है अब उसी परंपरा को फिर से वैश्विक पटल पर चमका रहा है। वो उन युवाओं के लिए आशा की किरण हैं जो पश्चिम से प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं, पर अपनी जड़ों से जुड़े रहना भी चाहते हैं।
♟️ चेकमेट: भारत का भविष्य तैयार
डी. गुकेश की ये जीत सिर्फ एक व्यक्तिगत ट्रॉफी नहीं है यह भारत की जीत है। ये जीत है उस देश की, जिसने शतरंज को जन्म दिया, और अब उसे फिर से विश्व गुरु बना रहा है। आज भारत का युवा सिर्फ बैट और बॉल नहीं उठा रहा वो अब बोर्ड और बिशप की ओर भी आकर्षित हो रहा है। और इस बार यह बदलाव स्थायी है क्योंकि यह भारत की आत्मा से निकला है।