25 जून 1975 को देश में कांग्रेस की सरकार थी और दिल्ली के उन इलाकों में बिजली काट दी गई थी, जहां बड़े मीडिया हाउस थे। प्रिंटिंग प्रेस बंद कर दी गईं थीं और अखबार को छापने की इजाज़त नहीं थी, इसकी वजह था- आपातकाल। राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर पूरे देश में आपातकाल लागू कर दिया था। मीडिया का गला इसलिए घोंट दिया गया था ताकि देश की जनता को यह तक नहीं पता चले कि उन पर आपातकाल थोप दिया गया है। अगले सुबह लोगों ने ऑल इंडिया रेडियो पर आपातकाल की सरकारी घोषणा सुनी।
अगले दो दिनों में आपातकाल के 50 वर्ष पूरे हो जाएंगे। अब आधी सदी बाद, आपातकाल की वही मानसिकता एक बार फिर लौटती दिख रही है और इस बार ऐसा कथित ‘फेक न्यूज’ के नाम पर करने की कोशिश की जा रही है। कर्नाटक में कांग्रेस सरकार एक ऐसा कानून लाने जा रही है जो आपातकाल की सेंसरशिप से भी ज़्यादा खतरनाक हो सकता है। नाम भले ही ‘कर्नाटक मिसइन्फॉर्मेशन एंड फेक न्यूज (प्रतिबंध) विधेयक, 2025’ हो, पर असल में इसे डिजिटल इमरजेंसी के तौर पर देखा जा रहा है।
फेक न्यूज के नाम पर डिजिटल सेंसरशिप की चुपचाप तैयारी
कर्नाटक की कांग्रेस सरकार का प्रस्तावित विधेयक सोशल मीडिया पर किसी भी तरह की ‘गलत जानकारी’ साझा करने को अपराध घोषित करता है। इसके तहत राज्य सरकार ‘फेक न्यूज ऑन सोशल मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी’ की स्थापना करेगी, जिसे यह अधिकार होगा कि वह तय करे कि कौन सा कंटेंट फर्जी है और कौन सा ठीक है। यह बिल जल्द ही पेश किया जाना है और इसकी कुछ जानकारी सोशल मीडिया पर सामने आई है जिसके मुताबिक, इस अथॉरिटी के सदस्यों में कन्नड़ और संस्कृति मंत्री शामिल होंगे, जो इसके पदेन अध्यक्ष होंगे, विधान सभा और विधान परिषद से एक-एक सदस्य होगा, राज्य द्वारा नियुक्त सोशल मीडिया कंपनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दो सदस्य और प्राधिकरण के सचिव के रूप में नामित एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी शामिल होंगे। यानि यह प्राधिकरण राजनीतिक नेताओं और सरकार द्वारा नियुक्त लोगों से भरा होगा। मतलब साफ है कि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार खुद तय करेगी कि जनता क्या बोले, क्या लिखे, क्या देखे और क्या सोचे।
कठोर सज़ा का प्रावधान
इस कानून में सज़ा का प्रावधान भी बेहद कठोर है। अगर इस कानून के हिसाब से किसी ने फेक न्यूज़ फैलाई तो उसे 7 साल तक की जेल और 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। या ये दोनों एक साथ भी लगाए जा सकते हैं। विधेयक में न्यूनतम 2 वर्ष की सजा का प्रस्ताव है, जिसे जुर्माने के साथ 5 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। विधेयक के तहत सेंसर की गई सामग्री के वितरण में सहायता या बढ़ावा देने पर 2 वर्ष तक की कैद हो सकती है। सबसे बड़ी बात है कि यह सब बिना किसी राष्ट्रीय कानूनी ढांचे के किया जा रहा है।
क्या राज्य सरकार के पास है ऐसा कानून बनाने का अधिकार?
विधेयक के सामने पहला और सबसे बड़ा संवैधानिक सवाल यही है कि क्या कोई राज्य सरकार ‘फेक न्यूज’ जैसे विषय पर कानून बना सकती है, जो संचार, मीडिया और इंटरनेट जैसे विषयों से जुड़ा है और संविधान की केंद्रीय सूची में आता है?
वरिष्ठ वकील सुमित नागपाल मानते हैं कि कर्नाटक सरकार यह तर्क दे सकती है कि फेक न्यूज से कानून व्यवस्था बिगड़ती है, जो राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। लेकिन उन्होंने चेताया है कि इस कानून का दुरुपयोग लगभग तय है। उन्होंने कहा, “आज हम देख रहे हैं कि कैसे राज्य सरकारें आलोचना करने वाले पत्रकारों और आम नागरिकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर रही हैं। अगर यह कानून पास हो गया, तो सोशल मीडिया पर कोई भी असहमति जताना सीधे जेल की सज़ा बन जाएगा।”
फेक न्यूज की परिभाषा से ही सवाल?
इस विधेयक में फेक न्यूज की जो परिभाषा दी गई है, वह बेहद धुंधली और खतरनाक है। इसमें न सिर्फ झूठे बयानों को शामिल किया गया है, बल्कि ऐसे ऑडियो या वीडियो को भी फेक न्यूज माना जाएगा, जो ‘तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं’। अब सोचिए, आज के डिजिटल युग में जहां मीम्स, व्यंग्य, पैरोडी और सरकार की आलोचना आम बात है, वहां इस परिभाषा के दायरे में हर असहमत नागरिक, हर व्यंग्यकार और हर स्वतंत्र पत्रकार आ जाएगा। यह कानून ‘राय’ और ‘अपराध’ के बीच की सीमाओं को मिटा देगा।
‘सेंसरशिप पुलिस’ फेक न्यूज से निपटने का समाधान नहीं
भारत में डिजिटल अपराधों और गलत जानकारी के लिए कुछ कानून हैं, जैसे भारतीय न्याय संहिता (BNS) और आईटी अधिनियम, 2000। आईटी एक्ट की धारा 66D में साइबर इम्पर्सोनेशन (छद्म पहचान) को अपराध बताया गया है। आईटी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस एंड डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) संशोधन नियम, 2023 के तहत भी कंटेंट रेगुलेशन की व्यवस्था है, हालांकि यह सुप्रीम कोर्ट के सामने चुनौती के घेरे में है।
सुप्रीम कोर्ट बार-बार कह चुका है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कोई भी प्रतिबंध ‘तर्कसंगत’ और ‘आवश्यक’ होना चाहिए। लेकिन कर्नाटक सरकार का यह विधेयक उस संवैधानिक मर्यादा की खुली अवहेलना है।
यह सच है कि भारत आज डीपफेक, एआई जनरेटेड झूठे वीडियो, और संगठित दुष्प्रचार अभियानों की चपेट में है। 2024 के लोकसभा चुनावों में हमने देखा कि कैसे नकली वीडियो और फोटो जनता की सोच को गुमराह करने में इस्तेमाल हुए। लेकिन इसका समाधान यह नहीं हो सकता कि हर राज्य अपनी अलग ‘सेंसरशिप पुलिस’ बना ले। इसका हल एक ऐसा राष्ट्रीय कानून होना चाहिए, जो पारदर्शी हो, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करे और टेक्नोलॉजी की जटिलताओं को समझे।
कांग्रेस का ‘आवाज़ दबाने’ का पुराना इतिहास
आज कांग्रेस के नेतृत्व वाली कर्नाटक सरकार जो कानून लाने जा रही है, वह इंदिरा गांधी के आपातकाल का डिजिटल अवतार है। इंदिरा ने अखबारों को बंद किया, सोनिया-राहुल सोशल मीडिया बंद करने की राह पर हैं। उस समय ‘जनता को जानकारी मत दो’ का नारा था, अब ‘सोशल मीडिया पर सवाल मत पूछो’ का युग है।
ये वही पार्टी है जो संसद में ‘लोकतंत्र की रक्षा’ का नाटक करती है और सत्ता में आते ही जनता की बोलने की आज़ादी पर डंडा चलाती है। कर्नाटक का यह कानून इसी प्रवृत्ति का नवीनतम उदाहरण है।
अंत में एक सीधी बात: ये कानून सुधार नहीं, सेंसरशिप है
कर्नाटक मिसइन्फॉर्मेशन एंड फेक न्यूज (प्रतिबंध) विधेयक, 2025 का असली मकसद फेक न्यूज रोकना नहीं बल्कि सरकार की नाकामी छुपाना और आलोचकों को चुप कराना है। यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजता और लोकतांत्रिक जवाबदेही, तीनों पर हमला है।
भारत को चाहिए एक ऐसा समाधान जो प्रेस की आज़ादी और डिजिटल जिम्मेदारी के बीच संतुलन बना सके। लेकिन जब तक ऐसा संतुलित राष्ट्रीय कानून नहीं बनता, तब तक राज्यों द्वारा थोपे गए ऐसे कानून लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र की हत्या करते रहेंगे। अब सवाल यह है कि क्या हम एक बार फिर 1975 की तरफ लौटना चाहते हैं? या फिर ‘जनता का बोलना का अधिकार’ बचाए जाने की ज़रूरत है ही।