22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम स्थित बाइसरान घाटी में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर भारत को अपने सुरक्षा संकल्प को सख्ती से दोहराने पर मजबूर किया। लेकिन इस बार सिर्फ निंदा या कड़ी चेतावनी नहीं, जवाब मिला धरातल पर। 6 और 7 मई को भारतीय सेना ने ऑपरेशन सिंदूर चलाकर पाकिस्तान की सरहद के भीतर मौजूद आतंक के कम से कम नौ ठिकानों को पूरी तरह तबाह कर दिया। इस करारी कार्रवाई से बौखलाए पाकिस्तान ने ड्रोन हमलों से जवाब देने की नाकाम कोशिश की, जिसे भारत ने फिर मुंहतोड़ तरीके से विफल किया। जब हालात इस हद तक पहुंच गए कि दोनों देश युद्ध के मुहाने पर खड़े दिखाई देने लगे, तब अचानक पाकिस्तान की ओर से शांति की गुहार आने लगी। पाकिस्तानी अधिकारियों ने भारत से संपर्क साधा, और जल्द ही दोनों देशों के बीच एक सीज़फायर डील पर दस्तखत हो गए।
यहीं पर एक और मोड़ आया। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बयान दे डाला कि यह सीज़फायर वाइट हाउस की मध्यस्थता से हुआ है। बाद में ट्रंप खुद अपने इस बयान से पलट गए, लेकिन तब तक भारत के भीतर एक खास वर्ग को जैसे बयान मिल गया था जिसे वे मुद्दा बनाना चाहते थे। कांग्रेस ने इस मौके को भुनाने में देर नहीं की। भोपाल में एक रैली को संबोधित करते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी पर सीधा हमला बोलते हुए कहा कि अमेरिका से एक फोन आया और नरेंद्र मोदी ने सरेंडर कर दिया। यही नहीं, उन्होंने जानबूझकर प्रधानमंत्री का नाम ‘नरेंदर’ कहकर उसे नरेंदर सरेंडर कहकर अपमान करने का प्रयास भी किया।
इस बयान के बाद एक बार फिर न सिर्फ राहुल गाँधी के राजनीतिक मर्यादा पर सवाल खड़े हुए, बल्कि कांग्रेस की मंशा पर भी गंभीर चर्चाएं शुरू हो गईं।सोशल मीडया पर लोग इसे भारतीय सेना के पराक्रम को एक “सरेंडर” की तरह पेश करने को लेकर कांग्रेस और राहुल गाँधी पर निशाना साध रहे हैं। ऐसे में यह सवाल बेहद ज़रूरी हो गया है कि राहुल गांधी इस भाषा और सोच के जरिए क्या संदेश देना चाहते हैं? सवाल यह भी है कि जिस पार्टी का इतिहास ही एक के बाद एक विदेश नीति में विफलताओं और राष्ट्रीय सुरक्षा पर झुकने की मिसालों से भरा पड़ा हो, क्या उसे इस तरह के आरोप लगाने का नैतिक अधिकार है?
अब समय आ गया है उस लंबी परंपरा की परतें उधेड़ने का, जो नेहरू से शुरू होकर राहुल गांधी तक चली है- एक ऐसी परंपरा, जिसे कांग्रेस ने हमेशा ‘रणनीति’ का नाम दिया, लेकिन देश ने हर बार उसे ‘आत्मसमर्पण की नीति’ के रूप में भुगता है। चलिए, शुरू करते हैं कांग्रेस के आत्मसमर्पणों की वो दास्तान, जिसे वो खुद भी नहीं सुनना चाहती…
चीन के सामने नेहरू का समर्पण!
यही नहीं इसके साथ ही दुबे ने उस लेटर की फोटो भी शेयर की हालांकि इस पत्र में ‘सरेंडर’ (आत्मसमर्पण) जैसा कोई शब्द तो नहीं था, लेकिन उसकी भावनात्मक और रणनीतिक प्रवृत्ति ऐसी थी जिसे विपक्ष और कई विश्लेषक ‘नरम रुख’ या परोक्ष स्वीकारोक्ति के रूप में देखते हैं। निशिकांत द्वारा शेयर किये गए 1963 में चीन के प्रधानमंत्री को लिखे गए इस पत्र में जो मूल चित्रों में देखा जा सकता है, चीन के दिसंबर 1962 के पत्र का एक कूटनीतिक उत्तर था। जिसके प्रमुख अंश इस तरह से हैं:
1. लद्दाख में चीनी नियंत्रण की स्वीकृति
पत्र में नेहरू स्वीकार करते हैं कि चीनी सैनिक लद्दाख में घुस आए थे और कई क्षेत्रों में और आगे बढ़े थे। वह इन घुसपैठों का वर्णन बिना किसी भारतीय सैन्य प्रतिरोध के करते हैं, जिसे ज़मीन खोने की मौन स्वीकारोक्ति के रूप में देखा जा सकता है।
“बाद में, वे और आगे बढ़े,” नेहरू युद्ध के बाद पीएलए की गतिविधियों का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं।
2. चीन के युद्धविराम प्रस्ताव पर विचार
नेहरू झोउ के उस सुझाव का उल्लेख करते हैं कि दोनों पक्ष अपने वर्तमान सैन्य स्थानों पर बने रहें, जो प्रभावी रूप से चीन को युद्ध के दौरान हासिल क्षेत्र को बनाए रखने की अनुमति देता।
“आपके वर्तमान पत्र में जो एकमात्र नया सुझाव है वह यह है कि भारतीय सैनिक अपने वर्तमान स्थानों पर बने रहें…”
दुबे का तर्क है कि यह दिखाता है कि नेहरू स्थिति को वहीं स्थिर करने को तैयार थे, बजाय इसके कि वह चीन की पूरी वापसी की मांग करते।
3. पूर्ण नहीं, आंशिक वापसी की मांग
नेहरू इस बात पर जोर देते हैं कि वार्ता आगे तभी बढ़ सकती है जब चीन 8 सितंबर 1962 के बाद कब्जा किए गए क्षेत्रों को खाली करे, जिससे पहले के चीनी कब्जे को चुनौती नहीं दी जाती।
“मुझे लगता है कि कम से कम आपके बलों द्वारा 8 सितंबर 1962 के बाद की गई आक्रामकता को हटाया जाना चाहिए।”
यह, जैसा कि दुबे ने दावा किया, नेहरू की उस समय की चीनी स्थिति को नई वास्तविकता के रूप में स्वीकार करने की तत्परता को दर्शाता है।
4. अंतरराष्ट्रीय अदालत में जाने की तत्परता
पत्र में नेहरू सीमा विवाद को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाने की तत्परता भी व्यक्त करते हैं, बजाय सैन्य समाधान खोजने के। “यदि आवश्यक हो, तो हम इन प्रश्नों को निर्णय के लिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय को सौंपने के लिए तैयार होंगे।” पंडित नेहरू द्वारा उस समय बरती गयी इसी नरमी या कहें को भाजपा सांसद निशिकांत डूबे अघोषित सरेंडर कह कर राहुल अगन्धि और कांग्रेस पर निशान साहड़ रहे हैं।
इंदिरा का ‘अघोषित सरेंडर’
जिस इंदिरा गांधी को देश बांग्लादेश निर्माण की निर्णायक नायिका के रूप में याद करता है, उसी ने इतिहास के एक मोड़ पर ऐसा कदम उठाया जिसे आज कई लोग एक अघोषित आत्मसमर्पण मानते हैं। 1971 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को न सिर्फ सैन्य रूप से परास्त किया, बल्कि उसके 93,000 से अधिक सैनिकों को युद्धबंदी बनाकर बांग्लादेश में हिरासत में लिया। उस समय भारत के पास अंतरराष्ट्रीय मंच पर दबाव बनाने और कश्मीर जैसे मुद्दों पर ठोस शर्तें मनवाने का सुनहरा अवसर था। लेकिन इन युद्धबंदियों को बिना किसी स्पष्ट रणनीतिक सौदे के पाकिस्तान को लौटा दिया गया। इसे कूटनीति के नाम पर एक गंभीर भूल माना गया, एक ऐसा फैसला जिसने भारत के हाथ में आया हुआ सामरिक लाभ बिना किसी प्रतिफल के गंवा दिया।
इतना ही नहीं, इस निर्णायक जीत के ठीक तीन साल बाद, 1974 में जब भारत ने पोखरण में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया, तब इंदिरा गांधी ने इस शक्ति प्रदर्शन को शांतिपूर्ण उद्देश्य से प्रेरित बताया। लेकिन असली हैरानी उस समय हुई जब उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को पत्र लिखकर यह प्रस्ताव दिया कि भारत अपनी परमाणु तकनीक पाकिस्तान के साथ साझा करने को भी तैयार है। यह जानकारी 2013 में विकिलीक्स द्वारा सार्वजनिक किए गए अमेरिकी दूतावास के केबल्स से सामने आई, जिसमें 22 जुलाई 1974 को संसद में दिए गए इंदिरा गांधी के बयान का हवाला था। उसमें उन्होंने यह कहा था कि उन्होंने भुट्टो को यह समझाने की कोशिश की कि भारत का परीक्षण शांतिपूर्ण था और इसका उद्देश्य आर्थिक विकास, विशेषकर तेल और गैस भंडारण जैसे क्षेत्रों में वैज्ञानिक उपयोग था।
यह प्रस्ताव उस समय और भी चौंकाने वाला था क्योंकि भारत और पाकिस्तान के बीच 1971 के युद्ध के बाद तनाव अपने चरम पर था। इंदिरा गांधी ने यह भी दावा किया कि पाकिस्तान द्वारा उठाए गए रेडियाक्टिव रिसाव के आरोप निराधार हैं, क्योंकि परीक्षण के समय हवा की दिशा पाकिस्तान की ओर नहीं थी। हालांकि सवाल यह उठता है कि जिस देश ने हाल ही में भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ा था, क्या उसे हमारी संवेदनशील वैज्ञानिक तकनीक तक पहुंच देने की पेशकश करना दूरदर्शी निर्णय था या रणनीतिक आत्मसमर्पण?
आज जब कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी की आक्रामक सैन्य और कूटनीतिक नीति पर सवाल उठाती है, तो इतिहास की इन परतों को पलटना जरूरी हो जाता है। क्योंकि यह साफ दिखता है कि एक दौर ऐसा भी था जब जीत के बाद भी कांग्रेस नेतृत्व ने ताकत दिखाने के बजाय झुकना चुना, और उसे ही कूटनीति का नाम दे दिया गया।
सियाचिन पाकिस्तान को सौंपना चाहती थीं सोनिया गांधी!
मीडिया चैनल रिपब्लिक भारत पर बोलते हुए पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल जे.जे. सिंह (जो खुद यूपीए सरकार में नियुक्त हुए थे) ने बड़ा खुलासा किया है कि तत्कालीन यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी सियाचिन ग्लेशियर पाकिस्तान को सौंपना चाहती थीं। थलसेनाध्यक्ष सिंह ने बताया कि सोनिया गाँधी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस सौदे पर दस्तखत करने के लिए लगभग राजी कर लिया था, वह भी अमेरिका-पाक लॉबी के दबाव में।
Ex-Army General JJ Singh (a UPA appointee) reveals that then UPA chairperson Sonia Gandhi attempted to cede the Siachen Glacier to Pakistan.
She nearly got the then-PM MMS to sign the deal after being pressured by the US-Pak lobby.It was the Indian army that stalled the deal. pic.twitter.com/rtI6gSc3dl
— Rishi Bagree (@rishibagree) June 4, 2025
अगर इन दावों में सच्चाई है तो यह भी कूटनीति नहीं, बल्कि देश की सुरक्षा के साथ खुला खिलवाड़ और आत्मसमर्पण का प्रयास था। सौभाग्य से, यह सौदा भारतीय सेना के सख्त विरोध के चलते रुक गया। एक बार फिर साफ हो गया कि कांग्रेस शासन में देश की सीमाएं भी सौदेबाज़ी का हिस्सा बन जाती हैं और यह भूल से नहीं, बल्कि सोच-समझकर किया गया था।
राहुल गांधी और चीन: सवाल उठते हैं, जवाब अब तक नहीं
राहुल गांधी अक्सर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर चीन को लेकर कठोर सवाल उठाते हैं। लेकिन खुद उनकी कुछ गतिविधियाँ ऐसी हैं, जो न सिर्फ असमंजस पैदा करती हैं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और भरोसे से जुड़े गंभीर सवाल भी खड़े करती हैं।
डोकलाम विवाद के दौरान, जब भारत और चीन के बीच सैन्य तनाव चरम पर था, उसी समय राहुल गांधी की चीनी अधिकारियों से गुप्त मुलाकात की खबर सामने आई। यह मुलाकात भले ही निजी बताई गई हो, लेकिन जब देश की सेनाएं सीमा पर डटी हों, तब विपक्ष के एक बड़े नेता का इस तरह चुपचाप मिलना सिर्फ एक औपचारिक भेंट नहीं कहा जा सकता। सवाल यह भी है कि कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को देश का भविष्य का नेता मानती है, तो क्या देश के नागरिकों को यह जानने का हक नहीं है कि एक संभावित प्रधानमंत्री पद के दावेदार के चीन से कैसे रिश्ते हैं?
इतना ही नहीं राजीव गांधी फाउंडेशन को लेकर भी गंभीर तथ्य सामने आए हैं। 2005 से 2008 के बीच, इस संस्था को चीनी सरकार और दूतावास से सीधा फंडिंग मिला। यह जानकारी खुद फाउंडेशन की सालाना रिपोर्ट में दर्ज है। रिपोर्ट बताती है कि चीन के राजदूत सुन युक्सी ने ₹10 लाख का डोनेशन दिया, और इस दौरान भारत-चीन मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को समर्थन देने वाले शोध प्रकाशित किए गए।
इन तथ्यों के सामने आने के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है -क्या ये केवल शोध और संवाद के नाम पर हुए लेन-देन थे, या फिर इसके पीछे रणनीतिक प्रभाव डालने का प्रयास छिपा था? इन वर्षों में भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा 33 गुना तक बढ़ा, और यह वही दौर था जब कांग्रेस सत्ता में थी और भारत की आर्थिक नीतियों में नरमी दिखाई गई। देश का हर नागरिक यह जानना चाहता है कि, राष्ट्रहित और पारदर्शिता के मानकों पर ये संबंध कहाँ खड़े होते हैं?