असम सरकार ने हाल ही में सत्र भूमि को अतिक्रमण से मुक्त कराने के लिए एक सुनियोजित और चरणबद्ध अभियान की शुरुआत की है। सरकार का कहना है कि उसका उद्देश्य इन ऐतिहासिक धार्मिक संस्थाओं की भूमि को संरक्षित करना और उनके मूल स्वरूप को बनाए रखना है। इस दिशा में जिलाधिकारी, पुलिस, राजस्व और अन्य संबंधित विभागों की संयुक्त भागीदारी से कार्यवाही की जा रही है। अतिक्रमणकारियों की पहचान कर उन्हें नोटिस दिए जा रहे हैं, और जिनके पास वैध दस्तावेज़ नहीं हैं, उन्हें कानूनी प्रक्रिया के तहत हटाया जा रहा है।
सत्र भूमि का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व
असम की सत्र भूमि का मुद्दा केवल भूमि का नहीं, बल्कि राज्य की सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक अस्मिता से जुड़ा हुआ है। सत्र असम के विशिष्ट धार्मिक संस्थान हैं, जिनकी स्थापना 15वीं शताब्दी में महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव द्वारा वैष्णव परंपरा के प्रचार के लिए की गई थी। ये संस्थान पूजा-पाठ से परे शिक्षा, संगीत, नृत्य, कला और सामाजिक संगठन के केंद्र भी रहे हैं।
अतीत में अहोम राजाओं, सामंतों और ब्रिटिश प्रशासन ने सत्रों को व्यापक भूमि उपहारस्वरूप प्रदान की थी। ये भूमि न केवल धार्मिक कार्यों, बल्कि सत्रों से जुड़े लोगों की जीविका के लिए भी महत्वपूर्ण रही है।
समय के साथ जनसंख्या में वृद्धि, भूमिहीनता और प्रशासनिक लापरवाही के चलते सत्र भूमि पर अतिक्रमण की घटनाएँ बढ़ीं। कई बार इन भूमियों पर उन लोगों ने कब्जा किया है जिन्हें “घुसपैठिया” या अवैध प्रवासी कहा जाता है – यानी सीमापार से आए लोग, जिनके पास भूमि पर अधिकार के वैध दस्तावेज़ नहीं होते।
इस अतिक्रमण ने सत्रों की पारंपरिक धार्मिक गतिविधियों को बाधित किया है, और राज्य की सांस्कृतिक विरासत पर संकट खड़ा कर दिया है।
सरकारी पहल: चरणबद्ध अभियान
सरकार ने इस चुनौती का समाधान निकालने हेतु एक संगठित अभियान शुरू किया है। अतिक्रमणकारियों की पहचान की जा रही है, नोटिस दिए जा रहे हैं और अदालत के आदेशों का पालन करते हुए कानूनी कार्रवाई हो रही है। प्रशासन सत्रों की भूमि को पुनः उनके नियंत्रण में देने के लिए सक्रिय प्रयास कर रहा है।
हालांकि यह मुद्दा केवल कानून-व्यवस्था से जुड़ा नहीं है, बल्कि इसके पीछे मानवीय पक्ष भी है। कई अतिक्रमणकारी परिवार दशकों से उस भूमि पर रह रहे होते हैं – उन्होंने वहीं जीवन बसाया है। उन्हें हटाने पर सामाजिक तनाव उत्पन्न हो सकता है। इसलिए सरकार इस कार्यवाही को संवेदनशीलता और सभी हितधारकों के साथ समन्वय के साथ अंजाम दे रही है।
कानूनी चुनौतियाँ और न्यायालयों की भूमिका
अतिक्रमण से जुड़ी कानूनी पेचीदगियाँ भी सामने आती हैं। कई बार अदालतों से स्थगन आदेश मिल जाते हैं, या जाली दस्तावेजों के जरिए कानूनी प्रक्रिया को बाधित किया जाता है। ऐसे में प्रशासन को विधिक रूप से मजबूत रहना आवश्यक है ताकि सत्र भूमि के संरक्षण में विलंब न हो।
यह अभियान केवल भूमि की रक्षा नहीं, बल्कि असम की सांस्कृतिक पुनर्बहाली का प्रयास भी है। यदि सरकार इस प्रक्रिया को पारदर्शिता, न्याय और भागीदारी के साथ आगे बढ़ाती है, तो इससे धार्मिक सौहार्द और सामाजिक विश्वास दोनों को बल मिलेगा।
निष्कर्ष
सत्र भूमि का विवाद केवल ज़मीन का मामला नहीं है, यह असम की सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक पहचान की रक्षा का प्रश्न है। सरकार की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह इस मुद्दे को विधिक, मानवीय और सामाजिक दृष्टि से संतुलित करके कैसे सुलझाती है। ऐसा कर पाने पर न केवल सत्र संरक्षित रहेंगे, बल्कि असम की सांस्कृतिक आत्मा भी सशक्त होगी।