25 जून 1975 को देशभर में लगाए गए आपातकाल के 50 वर्ष पूरे हो गए हैं और बीजेपी ने इस दिन को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर तमाम केंद्रीय मंत्रियों और अन्य नेताओं ने आपातकाल के इस काले अध्याय को याद किया है। केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस घटना को याद करते हुए सोशल मीडिया पर इस घटना को लोकतंत्र का सबसे काला अध्याय बताया है। आपातकाल के दौर में 24 साल के युवा राजनाथ सिंह को लोकतंत्र पर हमले का विरोध करने के लिए जेल में डाल दिया गया था। यहां तक कि उन्हें अपनी मां के अंतिम संस्कार में शामिल होने का मौका तक नहीं मिल पाया था।
राजनाथ सिंह ने क्या कहा?
सिंह ने आपातकाल के 50 वर्ष पूरे होने पर ‘X’ पर एक पोस्ट में लिखा है, “आज से 50 साल पहले भारतीय लोकतंत्र का आपातकाल के माध्यम से गला घोंटने का कुत्सित प्रयास किया गया था। आपातकाल को लोग आज भी भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले अध्याय के रूप में याद रखते हैं।” उन्होंने लिखा, “संविधान को दरकिनार करते हुए जिस तरीके से देश पर आपातकाल थोपा गया वह सत्ता के दुरुपयोग और तानाशाही का बहुत बड़ा उदाहरण है। तमाम विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। ऐसी कोई संवैधानिक संस्था नहीं बची थी जिसका ग़लत इस्तेमाल न किया गया हो। मगर इस देश में जो लोकतांत्रिक परम्पराएं रही हैं उनको चाह कर भी तत्कालीन सरकार मिटा नहीं पायी।”
राजनाथ सिंह ने आगे लिखा, “आज भारत में लोकतंत्र जीवित है, इसके लिए आपातकाल में जिन्होंने भी संघर्ष किया, जेल काटी और यातनाएं सहीं, उन सभी का बहुत बड़ा योगदान है। भारत की आने वाली पीढ़ियां उनका योगदान कभी भुला नहीं सकतीं।”
गिरफ्तारी और मां की राजनाथ सिंह को सीख
जेपी आंदोलन के एक समर्पित सिपाही के रूप में राजनाथ सिंह को मिर्जापुर-सोनभद्र क्षेत्र का संयोजक नियुक्त किया गया था। आपातकाल के दौरान जब विरोध की कोई भी आवाज़ सत्ता के लिए खतरा मानी जाती थी, तब उन्होंने सत्तावादी शासन के खिलाफ जनमत तैयार करने और आंदोलन को संगठित करने का बीड़ा उठाया। इसी साहसिक प्रयास के चलते उन्हें बिना किसी मुकदमे के जेल भेज दिया गया।
12 जुलाई 1975 की सुबह मिर्जापुर में एक अलग ही हलचल थी। पुलिस ने उस दिन राजनाथ सिंह को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी मीसा एक्ट के तहत हुई, जिसमें बंदी को अपने परिवार से मिलने-जुलने का कोई अधिकार नहीं होता था। चूंकि राजनाथ सिंह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक प्रभावशाली युवा नेता माने जाते थे, इसलिए प्रशासन ने स्पष्ट निर्देश दिए कि उनके साथ किसी भी तरह की ढील न बरती जाए।
गिरफ्तारी के बाद उन्हें मिर्जापुर जेल में रखा गया। कुछ दिन बाद प्रशासन ने उन्हें इलाहाबाद की नैनी जेल भेजने का फैसला किया। जब उन्हें ट्रेन से नैनी ले जाया जा रहा था, तब परिवार को इसकी भनक लगी। जैसे ही यह खबर घर तक पहुंची, उनकी मां गुजराती देवी और पत्नी सावित्री देवी दौड़कर मिर्जापुर रेलवे स्टेशन पहुंचीं।
राजनाथ सिंह ने दूर से ही अपनी मां और पत्नी को भीड़ में खड़े देखा। स्टेशन पर पहले से ही कई कार्यकर्ता मौजूद थे, जो नारेबाज़ी कर रहे थे और राजनाथ सिंह के समर्थन में आवाज़ बुलंद कर रहे थे। उसी शोरगुल के बीच उनकी मां की आवाज़ आई, “बबुआ, माफ़ी नहीं मांगना। चाहे उम्र भर काल-कोठरी में क्यों न रहना पड़े, लेकिन सिर मत झुकाना।”
मां के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए राजनाथ सिंह
इस राजनीतिक दमन की चुप्पी में एक गहरी निजी त्रासदी भी छिपी हुई थी। आपातकाल की घोषणा के कुछ ही समय बाद, राजनाथ सिंह की मां को ब्रेन हेमरेज हुआ। बेटे के जेल में होने की चिंता और तनाव ने उनकी हालत और बिगाड़ दी। उन्होंने 27 दिनों तक अस्पताल में जीवन से संघर्ष किया, लेकिन अंततः उनका निधन हो गया। दुखद यह रहा कि सरकार ने राजनाथ सिंह को न तो पैरोल दी, न ही अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति। जब उनके भाई मां की चिता को मुखाग्नि दे रहे थे, तब राजनाथ सिंह सैकड़ों किलोमीटर दूर जेल की एक कोठरी में बंद थे।
इस घटना को याद करते हुए सिंह ने एक बार कहा था, “जेल के अंदर मेरा सिर मुंडवा दिया गया… मुझे आपातकाल के दौरान अपनी मां के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए पैरोल नहीं दी गई थी।” उनकी आवाज़ में उस पल का दर्द आज भी साफ झलकता है। आपातकाल के दौरान लोकतंत्र की हत्या और मानवाधिकारों की अनदेखी का यह एक जीवंत उदाहरण है, जिसे भूलना भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा धोखा होगा। राजनाथ सिंह की यह पीड़ा आज भी इस बात की गवाही देती है कि वह समय केवल एक राजनीतिक संकट नहीं था बल्कि लाखों परिवारों के लिए निजी त्रासदी भी बन गया था।
पैरोल और फिर गिरफ्तारी
कुछ महीनों बाद राजनाथ सिंह को पैरोल पर रिहा किया गया, लेकिन यह राहत ज्यादा दिन टिक नहीं सकी। बाहर आते ही उन्होंने फिर से वही काम शुरू किया, जनता को संगठित करना, लोगों को आपातकाल की सच्चाई बताना और लोकतंत्र की आवाज़ उठाना। लेकिन सरकार ने उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया, इस बार पैरोल की अवधि पूरी होने से पहले ही। बाद में उन्होंने साफ कहा कि उनकी गिरफ्तारी, उनका संघर्ष और जो व्यक्तिगत क्षति उन्होंने झेली, वह सब उस असली तानाशाही का हिस्सा था, जिसे उन्होंने अपनी आंखों से देखा और झेला।
राजनाथ सिंह का संघर्ष उस हज़ारों युवा कार्यकर्ताओं की पीड़ा का एक प्रतिनिधि अनुभव है, जिन्हें लोकतंत्र की रक्षा करने की कीमत चुकानी पड़ी। वे सिर्फ जेल में नहीं डाले गए, बल्कि उन्हें प्रताड़ना झेलनी पड़ी, चुप कराने की कोशिश की गई और उन्हें मानसिक रूप से तोड़ने के प्रयास हुए। लेकिन वे नहीं झुके। आज जब भारत आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर उस दौर को याद कर रहा है, तब राजनाथ सिंह की कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आजादी की असली कीमत क्या होती है और उसे बचाए रखने के लिए कितना धैर्य, साहस और अडिग संकल्प चाहिए होता है। यह सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक चेतावनी और प्रेरणा दोनों है।