तमिलनाडु की राजनीति में जब-जब भाषा का मुद्दा उठता है, DMK उसका झंडाबरदार बनकर सामने आती है। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन जहाँ आगामी विधानसभा चुनावों से पहले ‘भाषाई अस्मिता’ और ‘हिंदी थोपने’ के विरोध में तलवारें तेज कर रहे हैं, वहीं उनकी ही पार्टी की सांसद कनिमोझी अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक बिल्कुल अलग रुख दिखा रही हैं। सोमवार को स्पेन में भारत के ऑल पार्टी डेलिगेशन की अगुआई करते हुए जब उनसे भारत की राष्ट्रीय भाषा के बारे में पूछा गया जिसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा, “भारत की राष्ट्रीय भाषा है एकता और विविधता। यही सबसे ज़रूरी संदेश है जो आज दुनिया को पहुंचाना चाहिए।”
यह बयान सुनने में भले ही उदार और समावेशी लगे, लेकिन यह उस राजनीतिक पृष्ठभूमि से मेल नहीं खाता जिसमें DMK बार-बार केंद्र सरकार की नीतियों, विशेष रूप से राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तीन-भाषा फॉर्मूले का विरोध करती आई है। ऐसे में यह बयान केवल एक राजनयिक उत्तर नहीं था, बल्कि भारत की उस बहुलतावादी भावना की पुष्टि थी, जो सदियों से यहां की सांस्कृतिक बनावट की बुनियाद रही है। कनिमोझी का यह विचार कि विविधता ही हमारी एकता की पहचान है, अपने आप में एक सकारात्मक और समन्वयकारी दृष्टिकोण को दर्शाता है। यह एक ऐसा विचार है जो यह कहता है कि भारत की पहचान किसी एक भाषा से नहीं, बल्कि अनेक भाषाओं के सह-अस्तित्व से बनती है।
क्या है हिंदी बनाम तमिल का पूरा विवाद
भारत में भाषा सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं, पहचान का हिस्सा रही है। यही कारण है कि हिंदी बनाम तमिल का मुद्दा केवल भाषायी नहीं, बल्कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक धरातल पर भी गहराई से जुड़ा हुआ है। हाल के दिनों में यह बहस फिर तेज हुई है, जब DMK सरकार ने अपने राज्य बजट दस्तावेज़ों से ₹ (रुपये का प्रतीक चिन्ह) को हटा दिया और केंद्र सरकार पर हिंदी थोपने के आरोप फिर से चर्चा में आ गए। इसका संदर्भ है राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, जिसमें तीन-भाषा नीति को अपनाने की बात की गई है। नीति के अनुसार, स्कूलों में एक भारतीय भाषा (जैसे हिंदी या अन्य), एक अंग्रेजी, और एक स्थानीय भाषा पढ़ाना अनिवार्य होगा। लेकिन तमिलनाडु सरकार का रुख स्पष्ट रहा है वो दो भाषाओं, तमिल और अंग्रेजी, को ही पर्याप्त मानती है।
सरकार का यह मत कोई नया नहीं है। तमिलनाडु में भाषा को लेकर आंदोलन की जड़ें कहीं गहराई में हैं। इसकी शुरुआत 1930 के दशक से मानी जाती है, जब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का विचार सामने आया। तमिल नेता पेरियार ने तब इसका मुखर विरोध किया। आज़ादी के बाद जब संविधान सभा में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग उठी, तब टी.टी. कृष्णमाचारी जैसे नेताओं ने चेताया कि “हमें अखंड भारत चाहिए या केवल हिंदी भारत?” इसके परिणामस्वरूप हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ नहीं, बल्कि ‘संघ की राजभाषा’ बनाया गया और अंग्रेज़ी को सह-राजभाषा के रूप में 15 वर्षों के लिए रखा गया।
विरोध की सबसे प्रखर लहर 1960 के दशक में उठी, जब केंद्र सरकार हिंदी को शिक्षा प्रणाली में प्रमुख भाषा बनाने और अंग्रेज़ी को हटाने की दिशा में आगे बढ़ रही थी। 1965 का हिंदी विरोधी आंदोलन तमिलनाडु के राजनीतिक इतिहास का निर्णायक मोड़ बन गया। इस आंदोलन में दो सप्ताह के भीतर 70 से अधिक लोगों की जान गई, सड़कें उबल पड़ीं और यह एक बड़े तमिल अस्मिता आंदोलन में बदल गया। डीएमके नेता अन्ना दुरई ने उस समय यह सवाल उठाया था, “अगर आसमान में कौवे ज़्यादा हैं, तो क्या आप उन्हें राष्ट्रीय पक्षी बना देंगे?” यह बयान हिंदी के बहुसंख्यक बोलनेवालों को लेकर दिए गए तर्क के जवाब में था।
इस आंदोलन के बाद तमिलनाडु में टू-लैंग्वेज पॉलिसी को ही लागू रखा गया जिसमें तमिल और अंग्रेज़ी शामिल थी। राज्य के लोगों के बीच आज भी यह आशंका बनी हुई है कि यदि हिंदी स्कूलों में अनिवार्य की गई, तो भविष्य की पीढ़ी तमिल से दूर हो सकती है। यह चिंता केवल भाषायी नहीं, एक संस्कृति और पहचान को बचाए रखने की भावना से जुड़ी हुई है। साथ ही तमिल राष्ट्रवाद की लहर, जो पहले से ही वहां मौजूद है, इसे और राजनीतिक धार देती है। स्वाभाविक है कि राजनीतिक दल इस भावनात्मक जुड़ाव को जनसमर्थन और वोटबैंक में बदलने का प्रयास करते हैं।
हालांकि, इस पूरे विमर्श का सार यही है कि भारत की सभी भाषाएं सम्मान के योग्य हैं। चाहे वह हिंदी हो, तमिल हो या कोई अन्य भारतीय भाषा हर भाषा अपने साथ एक सांस्कृतिक विरासत लेकर आती है। आवश्यकता इस बात की है कि भाषा को लेकर होने वाली बहसों को टकराव के नहीं, संवाद के मंच पर लाया जाए। और ऐसे में, कनिमोझी जैसी नेता जब अंतरराष्ट्रीय मंच से “भारत की राष्ट्रीय भाषा एकता और विविधता है” जैसा संदेश देती हैं, तो वह इस बहस को नये दृष्टिकोण और नये संतुलन के साथ सामने लाने का प्रयास भी प्रतीत होता है।