संबंधितपोस्ट
भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर की हालिया चीन यात्रा को केवल एक औपचारिक कूटनीतिक बैठक मानना एक बड़ी भूल होगी। यह दौरा ऐसे समय पर हुआ, जब वैश्विक राजनीति तेजी से करवट ले रही है और भारत इसमें एक नए आत्मविश्वास के साथ उभर रहा है। जयशंकर की इस यात्रा में भले ही फोकस द्विपक्षीय मुद्दों पर रहा हो लेकिन इसके बाद जो अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं सामने आईं वो बताती हैं कि दुनिया के बड़े खिलाड़ी भारत को लेकर अब असहज हो रहे हैं।
जयशंकर की चीन यात्रा के कुछ समय बाद ही अमेरिका समर्थित पश्चिमी सैन्य गठबंधन NATO ने आक्रामक रवैया अपना लिया जो अप्रत्याशित है। NATO के प्रमुख मार्क रूट ने एक सार्वजनिक बयान में कहा कि रूस से व्यापार करने वाले देशों पर 100% सैकेंडरी टैरिफ लगाया जाना चाहिए। यह बयान सीधे-सीधे उन देशों को निशाना बनाने वाला था जो रूस से तेल, गैस, खाद्य या हथियार जैसे क्षेत्रों में व्यापार कर रहे हैं और इनमें भारत का नाम सबसे ऊपर है।
इस बौखलाहट की एक वजह यह भी मानी जा रही है कि भारत-चीन के रिश्तों में आई नरमी और जयशंकर-शी जिनपिंग की मुलाकात ने वैश्विक ध्रुवीकरण में नए समीकरणों की आहट दे दी है। पश्चिमी खेमे को डर है कि अगर भारत और चीन के बीच तनाव में कमी आती है तो अमेरिका के लिए एशिया में अपना दबदबा बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा। भारत ने NATO प्रमुख की टिप्पणी पर साफ और सधा हुआ पलटवार किया। विदेश मंत्रालय ने बिना नाम लिए स्पष्ट कर दिया कि भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों और रणनीतिक हितों के लिए स्वतंत्र फैसले लेता है और उसे कोई बाहर से निर्देशित नहीं कर सकता। भारत का यह रुख बताता है कि वह वैश्विक दबावों के आगे झुकने वाला नहीं है।
जब ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों से भारत के करीबी व्यापारिक रिश्ते हैं। ये रिश्ते दोनों देशों के बीच बिना किसी तीसरे के हस्तक्षेप के चलते हैं तो ऐसे में रूट का बयान ना केवल बड़बोलापन था बल्कि देशों के आपसी रिश्ते खराब करने की कोशिश भी थी। भारत ने तो रूट को आड़े हाथों लिया ही साथ ही अमेरिका ने भी शायद समझा की कहीं बात हाथ से निकल ही ना जाए। इससे पहले भी, राष्ट्रपति ट्रंप ने बार-बार दोहराया है कि भारत-पाकिस्तान संघर्ष को रुकवाने में अमेरिका का भूमिका है। इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ तौर पर कह दिया है कि भारत-पाकिस्तान के संघर्ष विराम के लिए बातचीत दोनों देशों के बीच हुई थी। और ट्रंप के लगातार बयानों से भारत के लिए असहज स्थिति बनाने की कोशिश है जिससे भारत पहले से ही नाखुश है।
ऐसे में ट्रंप प्रशासन भारत-चीन की दोस्ती के खबरों के बाद ही सतर्क हो गया और भारत को खुश करने की कोशिशें शुरू कर दीं। ट्रंप प्रशासन ने पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकी संगठन संगठन ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ (TRF) को विदेशी आतंकी संगठन घोषित कर दिया। इसके बाद ज़ाहिर ही की इस पर अमेरिका की भी प्रतिक्रिया आनी थी। अब तक चीन के रूख को देखते हुए लोगों को यह लग रहा था कि वो पाकिस्तान के समर्थन में बयान देगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा ही। इस फैसले के बाद चीन का रुख भी भारत के पक्ष में नजर आया है।
जयशंकर ने चीन दौरे के दौरान राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भी मुलाकात की, जो इस बात का संकेत है कि भारत-चीन संबंधों में एक नई संवेदनशीलता आई है। इस मुलाकात के कुछ ही दिन बाद चीन के विदेश मंत्रालय ने 22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले की खुलकर निंदा की, जिसमें 26 लोगों की हत्या कर दी गई थी। चीन ने साफ कहा कि वह हर तरह के आतंकवाद का विरोध करता है और इस मामले में पड़ोसी देशों को एकजुट होकर काम करना चाहिए।
यह बयान मामूली नहीं है। अब तक चीन अक्सर पाकिस्तान की तरफ झुकाव रखता था और कश्मीर में हुए हमलों पर चुप्पी साध लेता था। लेकिन इस बार उसका सुर बदला हुआ है। शायद यह भारत की मजबूत और स्पष्ट विदेश नीति का असर है। जयशंकर की चीन यात्रा में भारत ने साफ कर दिया कि अब आतंकवाद पर किसी भी तरह की ढिलाई बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
चीन की यह प्रतिक्रिया भी इसलिए खास है क्योंकि कुछ ही समय पहले तक वो संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान-समर्थित आतंकियों को वैश्विक आतंकी घोषित करने में अड़चन डालता रहा था। लेकिन अब वो खुद आतंकवाद के खिलाफ सहयोग की बात कर रहा है। इसका मतलब है कि भारत की बात अब सिर्फ सुनी नहीं जा रही, मानी भी जा रही है। इस तरह जयशंकर की चीन यात्रा ने न केवल भारत-चीन संबंधों को एक नई दिशा दी है, बल्कि भारत की आतंकवाद विरोधी नीति को भी दुनिया के सामने मजबूती से स्थापित किया है। आने वाले समय में ये घटनाएं भारत की अंतरराष्ट्रीय साख को और मजबूत करेंगी।
RIC बन सकता है अमेरिका का विकल्प?
दुनिया जिस दौर से गुजर रही है, उसमें शक्ति संतुलन तेजी से बदल रहा है। एक तरफ अमेरिका और उसके नेतृत्व वाला पश्चिमी गठबंधन है, तो दूसरी तरफ रूस, चीन और भारत जैसे देश हैं जो अब पश्चिम की शर्तों पर नहीं बल्कि स्वतंत्र विदेश नीति के तहत अपने निर्णय ले रहे हैं। ऐसे में RIC (Russia-India-China) जैसे त्रिपक्षीय मंच की चर्चा फिर से तेज हो गई है।
विशेषज्ञ इसे ‘अमेरिका के वर्चस्व’ का संभावित विकल्प मान रहे हैं। RIC एक त्रिपक्षीय रणनीतिक समूह है जिसकी नींव 1990 के दशक में रखी गई थी। इसका उद्देश्य था कि एशिया के तीन बड़े देश बहुपक्षीय मुद्दों पर सहयोग करें, और पश्चिमी दबदबे वाले वैश्विक मंचों का संतुलित जवाब बन सकें। हालांकि, भारत-चीन सीमा विवाद और रूस-यूक्रेन युद्ध जैसे मुद्दों ने RIC को कुछ समय के लिए पृष्ठभूमि में डाल दिया था। लेकिन अब बदलते हालात इसे फिर से प्रासंगिक बना रहे हैं।