चुनाव आयोग की जांच में बड़ा खुलासा: बिहार की वोटर लिस्ट में नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार के नागरिकों के नाम

चुनाव आयोग की विशेष जांच में सामने आया विदेशी नागरिकों का फर्जीवाड़ा

चुनाव आयोग की जांच में बड़ा खुलासा: बिहार की वोटर लिस्ट में नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार के नागरिकों के नाम

बिहार में अक्टूबर-नवंबर 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले एक ऐसा मामला सामने आया है, जो न सिर्फ चुनाव प्रक्रिया पर असर डाल सकता है, बल्कि आम जनता के भरोसे को भी चुनौती दे रहा है। 24 जून से शुरू हुए निर्वाचन आयोग के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) कार्यक्रम के तहत राज्यभर में घर-घर जाकर मतदाता सूची का सत्यापन किया जा रहा है। यह प्रक्रिया सामान्य रूप से मतदाता सूची को अद्यतन और शुद्ध करने के लिए होती है, लेकिन इस बार इसमें चौंकाने वाले दावे सामने आए हैं।

मतदाता सूची में विदेशी नागरिकों के नाम?

सूत्रों के अनुसार और मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, निर्वाचन आयोग के फील्ड स्तर के अधिकारियों ने बताया है कि बड़ी संख्या में नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार के नागरिक, जो वर्तमान में बिहार में रह रहे हैं, भारतीय मतदाता पहचान पत्र प्राप्त कर चुके हैं, और वह भी संभावित फर्जी दस्तावेजों के आधार पर। इन लोगों के पास आधार कार्ड, निवास प्रमाण पत्र और राशन कार्ड तक पाए गए हैं, जिससे यह सवाल खड़ा हो रहा है कि ऐसे अहम दस्तावेज उन्हें कैसे मिल गए और क्या ये नाम पहले से ही वोटर लिस्ट में शामिल हैं? जांच का अगला चरण, अब यह सत्यापन अभियान 1 अगस्त से 30 अगस्त तक चलेगा। 30 सितंबर को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित की जाएगी। आयोग ने कहा है कि जो भी नाम अपात्र पाए जाएंगे, उन्हें जांच के बाद सूची से हटा दिया जाएगा। लेकिन यह प्रक्रिया अब राजनीतिक और कानूनी विवाद का रूप ले चुकी है।

राजनीतिक तनाव

सत्तारूढ़ भाजपा ने निर्वाचन आयोग के इस कदम का समर्थन करते हुए इसे अवैध या फर्जी मतदाताओं को सूची से हटाने की दिशा में उठाया गया जरूरी कदम बताया है, खासकर असम और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में हाल के प्रवासी विरोधी अभियानों के संदर्भ में। वहीं, विपक्षी दलों, खासकर राजद और कांग्रेस  ने इस प्रक्रिया को लेकर गहरी आपत्ति जताई है।

कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने पटना में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इसे ‘खतरनाक और अजीब’ करार दिया और आरोप लगाया कि निर्वाचन आयोग कानूनी रूप से संदिग्ध और मनमाना रवैया अपना रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर 2003 के बाद मतदाता सूची में जुड़े सभी नामों को ‘संदिग्ध’ माना जा रहा है, तो यह लोकतंत्र के खिलाफ है। विपक्षी दलों का कहना है कि यह प्रक्रिया अल्पसंख्यक और प्रवासी मजदूर तबकों को चुनाव से बाहर करने का प्रयास है, जिनका झुकाव आमतौर पर सत्तारूढ़ दल के खिलाफ रहता है।

सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में मामला

इस विवाद के चलते मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। कोर्ट ने इस मुद्दे की सुनवाई जुलाई की शुरुआत में की और निर्वाचन आयोग की मंशा और समयसीमा पर सवाल उठाए। कोर्ट ने कहा कि आधार, वोटर आईडी और राशन कार्ड जैसे दस्तावेजों को नागरिकता के प्रमाण के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए, जबकि कई रिपोर्टों में इन्हीं दस्तावेजों के फर्जी तरीके से बनाए जाने की बात कही गई है। कोर्ट ने यह भी कहा कि इतनी बड़ी प्रक्रिया को चुनाव से पहले करना उचित नहीं है और इससे राजनीतिकरण और नागरिकों के अधिकारों पर प्रभाव पड़ सकता है।

जमीनी हालात क्या हैं?

जमीन पर स्थिति और भी जटिल है। बिहार के सीमावर्ती इलाकों और शहरी बस्तियों में प्रवासन एक सामान्य जीवन शैली बन चुकी है। नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार से आए कई लोग दशकों से यहां रह रहे हैं। कुछ रोज़गार की तलाश में, कुछ संघर्ष और गरीबी से भागकर यहां आए। आज वे स्थानीय समाज में घुलमिल चुके हैं। पूर्णिया की एक निवासी सलमा बेगम, जिनके परिवार ने 1990 के दशक में बांग्लादेश से पलायन किया था, कहती हैं – “कभी किसी ने नहीं कहा कि हम नागरिक नहीं हैं। अब अचानक कहा जा रहा है कि हम फर्जी वोटर हैं। कैसे?”

वहीं बूथ लेवल ऑफिसर (BLOs) को असली और नकली दस्तावेजों में अंतर करने की जटिल चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। सीमावर्ती जिले सीतामढ़ी, किशनगंज और अररिया जैसे इलाकों में स्थिति और भी पेचीदा है, जहां सीमाएं, पहचान और कागज़ी प्रक्रिया के बीच की रेखाएं धुंधली हो गई हैं।

अब आगे क्या?

जैसे-जैसे सत्यापन अभियान अगस्त में तेज होगा, दो सवाल सबसे अहम होंगे:

  1. कितने नाम वोटर लिस्ट से हटाए जाएंगे और किन आधारों पर?
  2. इसका चुनाव नतीजों पर क्या असर पड़ेगा, खासकर उन क्षेत्रों में जहां प्रवासी और अल्पसंख्यक वोट निर्णायक होते हैं?

30 सितंबर को प्रकाशित होने वाली अंतिम सूची शायद बिहार के चुनावी इतिहास की सबसे ज्यादा जांची गई वोटर लिस्ट होगी। यह प्रक्रिया या तो एक साहसिक कदम के रूप में याद की जाएगी, जिसने मतदाता सूची को साफ किया और मतदान की पवित्रता बनाए रखी, या फिर इसे एक गड़बड़ प्रबंधन के तौर पर देखा जाएगा, जिसने गरीबों, कमजोरों और राजनीतिक रूप से असहज तबकों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया। एक बात तय है – यह अब सिर्फ पहचान पत्रों का मामला नहीं रहा। यह सवाल बन गया है कि बिहार जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील राज्य में लोकतंत्र में भागीदारी का भविष्य क्या होगा – और ‘गिने जाने’ की कीमत क्या है?

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