तमिलनाडु के श्रीविल्लिपुथुर में स्थित पेरियामरियम्मन मंदिर में हाल ही में हुई एक घटना ने पूरे राज्य को झकझोर कर रख दिया। DMK सरकार की प्रमुख योजना “सभी जातियों के पुजारी (All Caste Archaka Scheme)” के तहत प्रशिक्षित कुछ पुजारियों का एक वीडियो सामने आया, जिसमें वे एक धार्मिक अनुष्ठान के दौरान शराब पीते, अश्लील तरीके से नाचते और महिला भक्तों के साथ गलत व्यवहार करते दिखे।
इन चार पुजारियों – विनोद, गणेशन, गोमती नायगम और सबरीनाथन को तुरंत निलंबित कर दिया गया और उनके खिलाफ केस दर्ज किए गए। यह मंदिर आंडाल की जन्मस्थली है, जो 12 प्रसिद्ध आलवार संतों में से एक हैं। इस पवित्र स्थान पर हुई इस घटना को लोगों ने शर्मनाक बताया।
सबसे चिंता की बात यह है कि ये पुजारी पारंपरिक अर्चक (पुजारी) परंपरा से नहीं थे, बल्कि सरकार द्वारा शुरू की गई योजना के तहत सरकारी संस्थानों से प्रशिक्षण पाए हुए थे। प्रत्यक्षदर्शियों और कई हिंदू संगठनों का कहना है कि ये लोग उसी योजना के हिस्सा थे। समावेशिता (inclusivity) बढ़ाने के नाम पर शुरू की गई इस योजना की आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा की कमी अब सवालों के घेरे में है।
पारंपरिक पुजारियों की नाराज़गी: प्रामाणिकता पर संकट
देशभर के कई पारंपरिक पुजारी, जिनमें मदुरै मीनाक्षी अम्मन मंदिर के पुजारी भी शामिल हैं, इस बात से नाराज़ हैं कि सोशल मीडिया और कुछ लोगों द्वारा ये प्रचार किया जा रहा है कि आरोपी ब्राह्मण पुजारी थे। उन्होंने इसे एक झूठा प्रचार बताया और कहा कि ये लोग पारंपरिक आगम परंपरा से नहीं आते।
पारंपरिक अर्चकों का कहना है कि सच्चे पुजारी बचपन से ही वर्षों तक कठोर आध्यात्मिक प्रशिक्षण लेते हैं। वे 10 साल की उम्र से पहले वेद पाठशालाओं में दाखिल होते हैं, जहाँ उन्हें संयम, लज्जा और आध्यात्मिक ज़िम्मेदारी सिखाई जाती है। दूसरी ओर, सरकारी केंद्रों में केवल एक साल का त्वरित कोर्स कराया जाता है, जिससे यह सेवा सिर्फ एक “नौकरी” बनकर रह जाती है।
एक पुजारी ने कहा- “हमारा प्रशिक्षण जीवनभर के लिए हमारे मन को तैयार करता है। अनुशासन हमारी पहली सीख होती है। इन नए पुजारियों में वो गहराई नहीं है।”
कानूनी अड़चनें और न्यायिक टिप्पणियाँ
मद्रास हाई कोर्ट ने पहले ही 2023 में इस योजना को लेकर चिंता जताई थी। न्यायमूर्ति एस. श्रीमथी ने अपने अंतरिम आदेश में कहा था कि मंदिर किसी सामाजिक प्रयोगशाला की तरह प्रयोग करने की जगह नहीं हैं। उन्होंने यह भी बताया कि HR&CE विभाग यह स्पष्ट नहीं कर सका कि इन पुजारियों को किस आगम शास्त्र के तहत प्रशिक्षित किया गया।
कोर्ट ने माना कि पुजारी बनने के लिए जाति कोई शर्त नहीं होनी चाहिए, लेकिन आगम शास्त्र का ज्ञान अनिवार्य है। एक साल का कोर्स उस गहन धार्मिक और शास्त्रीय समझ की जगह नहीं ले सकता जो परंपरागत पुजारी में होती है। इस निर्णय ने पूरी योजना की वैधता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
अन्नै तमिऴिल अर्चनै: भाषा आधारित विचारधारा की कोशिश?
DMK सरकार की एक और विवादास्पद योजना “अन्नै तमिऴिल अर्चनै” को HR&CE मंत्री पी. के. शेखरबाबू ने बड़े प्रचार के साथ शुरू किया। इसके तहत अब भक्त 47 प्रमुख मंदिरों में तमिल भाषा में पूजा की मांग कर सकते हैं। सरकार ने इसे तमिल भाषा के सम्मान के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन आलोचकों का मानना है कि यह सिर्फ भाषा का सवाल नहीं, बल्कि एक राजनीतिक विचारधारा को लागू करने की कोशिश है।
भारत के मंदिरों में पारंपरिक रूप से पूजा संस्कृत या संस्कृत-मिश्रित क्षेत्रीय भाषाओं में होती आई है। संस्कृत को एक धार्मिक, आध्यात्मिक और कम्पनात्मक भाषा माना जाता है। अब केवल तमिल में अर्चना का ज़ोर मंदिर पूजा की आध्यात्मिक निरंतरता को बाधित करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। यह विरोध तमिल भाषा से नहीं है, जो अपने आप में एक प्राचीन और सुंदर भाषा है। बल्कि उस सोच से है जो धार्मिक परंपरा को हटाकर राजनीतिक पहचान को प्राथमिकता देना चाहती है।
समानता या अतिक्रमण?
DMK सरकार की ये नीतियाँ अब प्रगतिशील सुधार नहीं, बल्कि एक राजनीतिक दखल के रूप में देखी जा रही हैं, जिनका मकसद हिंदू धार्मिक परंपराओं को बदलना है। समावेशिता एक अच्छा उद्देश्य हो सकता है, लेकिन जब उसे लागू करने के तरीके सतही हों, तो इसके पीछे की मंशा पर सवाल उठना लाज़मी है।
जब मंत्री उदयनिधि स्टालिन सनातन धर्म की तुलना मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों से करते हैं, तो यह साफ हो जाता है कि सरकार की सोच तटस्थ नहीं है। लोग सवाल कर रहे हैं कि केवल हिंदू मंदिर ही सरकार के नियंत्रण में क्यों हैं? मस्जिदों या गिरजाघरों में सरकार हस्तक्षेप क्यों नहीं करती?
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 26 धार्मिक समुदायों को अपने धार्मिक मामलों को खुद संचालित करने का अधिकार देता है। एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष राज्य में या तो हर धर्म के मामलों में बराबर दखल होगा, या फिर सरकार पूरी तरह पीछे हटेगी। वरना, यह सुधार नहीं, बल्कि निशाना साधने की नीति बन जाती है।
सवाल केवल पुजारी बनने का नहीं, मंदिरों की आत्मा पर नियंत्रण का है
जब मंदिरों की हालत बिगड़ती है, पुजारी अनुशासनहीन व्यवहार करते हैं, और पूजा विधियों को राजनीतिक विचारधारा के अनुसार बदला जाता है। तब यह साफ हो जाता है कि ये योजनाएं भक्ति को ऊंचा उठाने के लिए नहीं, बल्कि उसे कमजोर करने के लिए हैं। अब सवाल सिर्फ यह नहीं है कि कौन पुजारी बन सकता है, बल्कि यह है कि हमारे मंदिरों की आत्मा पर नियंत्रण किसका होगा?