हमें भी पढ़ाया गया और हमारे बच्चों को भी यही पढ़ाया गया कि मेवाड़ की रानी कर्णावती ने बहादुर शाह की आक्रमण से रक्षा के लिए मुगल सम्राट हुमायूं को राखी भेजी थी, यहीं से रक्षाबंधन की शुरुआत हुई। यही कहानी आज तक रक्षाबंधन की उत्पत्ति के रूप में प्रचारित की जाती रही है। लोकप्रिय संस्कृति में अक्सर दोहराई जाने वाली यह कहानी न केवल ऐतिहासिक रूप से बेबुनियाद और स्पष्ट रूप से निराधार है, बल्कि भारत की गौरवशाली और प्राचीन सांस्कृतिक विरासत का एक स्पष्ट विरूपण भी है।
अब समय आ गया है कि इस औपनिवेशिक युग के मिथक का पर्दाफ़ाश किया जाए जो इसकी असली पहचान है। एक मनगढ़ंत कहानी जो गहरी जड़ें जमाए हिंदू परंपराओं और हमारे पूर्वजों के वीर बलिदानों को कमज़ोर करती है।
ब्रिटिश इतिहासकार की कल्पना है ये कहानी
तथाकथित “राखी की कहानी” 19वीं सदी के ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहासकार जेम्स टॉड की रचना है, जिन्होंने राजपूत वीरता का रोमांटिक चित्रण करते हुए, मुगल शासकों को एक ऐसी स्वच्छंद और शूरवीर भूमिका में डाल दिया, जिसका वास्तविक ऐतिहासिक अभिलेख स्पष्ट रूप से खंडन करते हैं। गुजरात के इतिहास का एक समकालीन इस्लामी वृत्तांत, मिरात-ए-सिकंदरी (1611 ई.) एक बेहद स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करता है: हुमायूं बहादुर शाह के साथ एक तीखे संघर्ष में उलझा हुआ था, क्योंकि बहादुर शाह ने हुमायूं के विद्रोही बहनोई, मुहम्मद ज़मान मिर्ज़ा को शरण दी थी। हुमायूं की प्राथमिकता कर्णावती या चित्तौड़ की रक्षा करना नहीं, बल्कि अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक प्रतिशोध को मिटाना था।
बहादुर शाह के क्रूर हमले के परिणामस्वरूप भयानक जौहर हुआ, जिसमें 16,000 से अधिक महिलाओं और बच्चों ने अपमान से बचने के लिए आत्मदाह कर लिया – एक ऐसी घटना जिसे उसकी वीरता और बलिदान के लिए याद किया जाता है, न कि मुगल “भाईचारे” से बचाई गई।
जानें असली सच
रक्षाबंधन कोई 16वीं शताब्दी का आविष्कार नहीं है जो मुगलों से जुड़ा है। यह एक प्राचीन हिंदू त्योहार है, जिसकी उत्पत्ति हजारों साल पहले हुई थी और जो वैदिक रीति-रिवाजों और पौराणिक कथाओं से गहराई से जुड़ा हुआ है। महाभारत हमें द्रौपदी और कृष्ण के बारे में बताता है, जिनका बंधन मुगल आक्रमणों से बहुत पहले सुरक्षा और भक्ति का प्रतीक था। कथा कहती है कि द्रौपदी ने भगवान कृष्ण की घायल उंगली पर पट्टी बांधने के लिए अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़ दिया था। बदले में, कृष्ण ने उनकी रक्षा करने का वचन दिया, एक ऐसा वचन जो उन्होंने कौरवों द्वारा उनके चीरहरण के दौरान पूरा किया।
वैदिक शास्त्र रक्षा सूत्र का वर्णन करते हैं कि योद्धाओं और राजाओं के लिए पुजारियों द्वारा बांधे जाने वाले पवित्र रक्षा सूत्र, जो रक्षाबंधन के आध्यात्मिक सार को बताते हैं। श्रावण पूर्णिमा पर इस त्योहार का समय, रक्षा सूत्र बांधने की रस्में और पूर्वजों को अर्पित किए जाने वाले तर्पण इसके इस्लाम-पूर्व, मुगल-पूर्व हिंदू मूल के स्पष्ट संकेत हैं।
इतिहास को फिर से लिखने की है जरूरत
हुमायूं-कर्णावती राखी मिथक का कायम रहना आकस्मिक नहीं है, यह एक औपनिवेशिक विरासत है जो भारतीय इतिहास और संस्कृति को विकृत करती रहती है। यह कथा मुगल शासकों का महिमामंडन करती है, जबकि अपनी भूमि की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वाले हिंदू योद्धाओं के बलिदान को तुच्छ बताती है। यह “धर्मनिरपेक्षता” या “समन्वयवाद” की आड़ में इतिहास के राजनीतिक रूप से प्रेरित पुनर्लेखन को भी बढ़ावा देती है, जिसमें अक्सर वैध हिंदू परंपराओं को सांप्रदायिक या प्रतिगामी बताकर खारिज कर दिया जाता है।
हुमायूं और रानी कर्णावती राखी की कहानी एक मिथक है, जिसका प्रामाणिक ऐतिहासिक अभिलेखों में आज तक कोई आधार नहीं मिल सका है। हुमायूं के राजनीतिक संघर्षों का चित्तौड़ या उसकी रानी की रक्षा से कोई लेना-देना नहीं था। रक्षा बंधन की असली कहानी भारत की प्राचीन वैदिक और पौराणिक विरासत में निहित है, जो एक कालातीत सांस्कृतिक लोकाचार का उत्सव मनाती है। यह सहस्राब्दियों से जीवित है।
हुमायूं और रानी कर्णावती राखी की कहानी एक मिथक है, जिसका प्रामाणिक ऐतिहासिक अभिलेखों में आज तक कोई आधार नहीं मिल सका है।