आज 5 अगस्त है और 5 अगस्त भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखी जाने वाली तिथि है। ऐसा इसलिए क्योंकि 5 अगस्त, 2019 को भारत सरकार ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष स्वायत्त दर्जा प्रदान करने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया था। भारत सरकार का यह कदम भारत की आज़ादी के बाद संवैधानिक और राजनीतिक यात्रा में एक मील का पत्थर माना जाता है।
भारत सरकार के इस महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय की छठी वर्षगांठ के अवसर पर यह अत्यंत आवश्यक है कि नई पीढ़ी यह समझे कि अनुच्छेद 370 की उत्पत्ति क्यों हुई, इसके निरस्त होने का भारतीय संघ और राष्ट्रीय एकता पर क्या प्रभाव पड़ा और इसके निरस्तीकरण को अनेक विद्वानों और नीति-निर्माताओं द्वारा तार्किक और आवश्यक कदम के रूप में क्यों देखा जाता है।
अनुच्छेद 370 की उत्त्पत्ति क्यों हुई थी ?
अनुच्छेद 370 को समझे बिना उसकी समाप्ति का महत्व पूरी तरह से नहीं आंका जा सकता। इसके लिए हमें इसके इतिहास और उत्पत्ति को अच्छे से जानना और समझना होगा। सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के समय, जम्मू और कश्मीर एक रियासत थी, जिस पर महाराजा हरि सिंह का शासन था। उस समय उनके पास रियासत को लेकर तीन विकल्प थे अर्थात् भारत में विलय करना या पाकिस्तान में शामिल होना या फिर स्वतंत्र रहना।
हालांकि, महाराजा स्वतंत्र रहने के पक्षधर थे, लेकिन पाकिस्तान समर्थित कबायलीयों ने कश्मीर पर हमला कर दिया। इस संकट की घड़ी में महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और इस तरह जम्मू-कश्मीर आदिकाल से भारत का अभिन्न अंग रहा है, इसकी पुनः पुष्टि हुई।
अधिकांश दूसरी रियासतों के विपरीत, जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय कुछ विशेष शर्तों के साथ हुआ, क्योंकि उस समय की परिस्थितियाँ असाधारण थीं । कम्युनल अशांति, बाहरी आक्रमण और संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमत संग्रह का आश्वासन जैसे हालात थे। इन हालातों के चलते एक विशेष संवैधानिक व्यवस्था बनाई गई, जिसके तहत राज्य को रक्षा, विदेश नीति और संचार को छोड़कर अन्य सभी मामलों में स्वायत्तता प्रदान की गई।
अनुच्छेद 370 को संविधान के भाग-XXI में, “अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधानों” के अंतर्गत शामिल किया गया था। इसे गोपालस्वामी अय्यंगार ने तैयार किया था, जिन्होंने तर्क दिया था कि कश्मीर की विशिष्ट परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए एक अस्थायी प्रावधान आवश्यक था ताकि विलय-पत्र का सम्मान हो सके, जबकि राज्य की अंतिम स्थिति जनमत संग्रह के बाद निर्धारित की जाएगी। रोचक बात यह है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसका विरोध कर दिया था, क्योंकि उनका मानना था कि यह प्रावधान भेदभावपूर्ण है क्योंकि यह भारतीय संघ की एकता की भावना के विरुद्ध था।
इस प्रकार, अनुच्छेद 370 ने जम्मू -कश्मीर को अपना स्वयं का संविधान और अधिकांश मामलों में निर्णय लेने के अधिकार प्रदान किए। इसके अतिरिक्त, यह प्रावधान संसद की राज्य पर विधायी शक्तियों को सीमित करता था, जब तक कि राज्य की संविधान सभा या सरकार की सहमति न प्राप्त हो।
अनुच्छेद 370 की ‘अस्थायी’ प्रकृति
अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का एक महत्वपूर्ण तर्क संविधान की भाषा में निहित है, इसमें इस अनुच्छेद को स्पष्ट रूप से ‘अस्थायी’ (Temporary) कहा गया था। जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा को यह अधिकार दिया गया था कि वह राज्य और भारत के संघ के बीच स्थायी संबंध निर्धारित करे। लेकिन जब 1957 में वह संविधान सभा अपने आप भंग हो गई। इसने ऐसी कोई सिफारिश नहीं की कि अनुच्छेद 370 को समाप्त किया जाए या जारी रखा जाए, इस कारण तब एक कानूनी अस्पष्टता अथवा भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई। अनेक संविधानविदों का तर्क था कि संविधान सभा के समाप्त हो जाने के बाद यह अस्थायी प्रावधान अपना औचित्य खो चुका था।
कई दशकों के दौरान, राष्ट्रपति द्वारा लगातार जारी किए गए आदेशों के माध्यम से जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को कम किया गया, इसके साथ ही कई संवैधानिक प्रावधानों को भी राज्य पर लागू किया गया। फिर भी, औपचारिक रूप से उसका ‘विशेष दर्जा’ बना रहा। आलोचकों का तर्क था कि यह अर्ध-स्थायी व्यवस्था क्षेत्र के पूर्ण संवैधानिक एकीकरण में बाधा बनती रही, जिससे राज्य और केंद्र के बीच पूर्ण समन्वय संभव नहीं हो पाया।
विशेष दर्जे के बावजूद, जम्मू-कश्मीर ने खासकर 1980 के दशक के अंत से लगातार अलगाववादी आंदोलन और सशस्त्र विद्रोह का सामना किया। अलगाववादी नेता अक्सर अनुच्छेद 370 का हवाला देते हुए राज्य की कथित ‘विशेषता’ को बल देते थे और इसके माध्यम से भारत में उसके पूर्ण एकीकरण पर सवाल उठाते थे। यह स्थिति उग्रवाद और पाकिस्तान के ‘छद्म युद्ध’ के लिए वैचारिक हथियार सिद्ध हुई।
अनुच्छेद 35A, जो अनुच्छेद 370 के तहत राष्ट्रपति के एक आदेश द्वारा जोड़ा गया था, ने राज्य को यह अधिकार दिया कि वह ‘स्थायी निवासियों’ की परिभाषा तय करे और उन्हें विशेष अधिकार एवं सुविधाएँ प्रदान करे, जैसे कि भूमि स्वामित्व और रोजगार पर सीमाएं आदि। इस प्रावधान के कारण निजी निवेश रुक गया या बहुत सीमित हो गया, औद्योगीकरण बाधित हुआ और राज्य की अर्थव्यवस्था केंद्रीय सब्सिडी पर ही निर्भर बनी रही। सामाजिक रूप से इस प्रावधान ने महिलाओं के साथ भेदभाव किया; उदाहरण के लिए, वे महिलाएं जो राज्य के बाहर शादी करती थीं, उन्हें संपत्ति का अधिकार खोना पड़ता था। साथ ही, वाल्मीकि समुदाय और पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थी जैसे हाशिए पर खड़े समूह भी इससे बुरी तरह से प्रभावित हुए।
निरस्तीकरण के पीछे का तर्क: राष्ट्रीय एकता को सशक्त बनाना
अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का उद्देश्य 1947 में प्रारंभ हुए राष्ट्रीय एकीकरण के अधूरे कार्य को पूर्ण करना था। इसके समर्थकों का मानना है कि भारत की एकता का मूल आधार “एक संविधान, एक राष्ट्रध्वज और सभी भारतीयों के लिए एक समान नागरिकता” है। अनुच्छेद 370 को इस सिद्धांत के विपरीत एक विसंगति माना गया, जो भारत की राष्ट्रीय एकता के मूल तत्त्वों के खिलाफ था।
अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35A के तहत, जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को ऐसे दोहरे अधिकार प्राप्त थे, जो अन्य भारतीयों को नहीं मिलते थे। यह स्थिति ‘एक राष्ट्र, एक संविधान’ के सिद्धांत का उल्लंघन करती थी। इन प्रावधानों को निरस्त करके भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर के लोगों को भारत के अन्य राज्यों के नागरिकों की तरह ही संविधान के सभी मूलभूत अधिकार समान और पूर्ण रूप से प्रदान करने का काम किया।
विशेष दर्जे से उत्पन्न कानूनी बाध्यताओं के बिना सरकार का तर्क था कि आरक्षण, सूचना का अधिकार (RTI), भ्रष्टाचार विरोधी कानून और अल्पसंख्यक अधिकारों से संबंधित राष्ट्रीय कानूनों को अधिक प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकेगा। इससे निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा, रोजगार के अवसर सृजित होंगे और वंचित एवं हाशिए पर खड़े वर्गों को सशक्त बनाने में मदद मिलेगी।
एक और महत्वपूर्ण कारण था राष्ट्रीय सुरक्षा। अनुच्छेद 370 को कई लोग एक मनोवैज्ञानिक बाधा के रूप में देखते थे, जिसका फायदा अलगाववादी तत्व उठाते थे और इससे अलगाववाद को बढ़ावा मिलता था। इसे हटाने से राज्य को प्रशासनिक और सैन्य रूप से बेहतर ढंग से एकीकृत किया जा सकता है, जिससे आतंकवाद और घुसपैठ के खिलाफ प्रभावी ढंग से निपटना संभव हो सकेगा।
निरस्तीकरण प्रक्रिया: कानूनी और राजनीतिक आयाम
5 अगस्त 2019 को, भारत के राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 370(1) के तहत एक संवैधानिक आदेश जारी किया, जिसके द्वारा भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू कर दिए गए। साथ ही, संसद ने अनुच्छेद 370(3) का हवाला देते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की सिफारिश की गई। इसके अतिरिक्त, जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के तहत राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर (जिसमें विधायिका होगी) और लद्दाख (जिसमें विधायिका नहीं होगी) में विभाजित किया गया।
आलोचकों का तर्क है कि अनुच्छेद 370 को हटाने के समय राज्य में निर्वाचित सरकार का न होना (क्योंकि उस समय राष्ट्रपति शासन लागू था) इस निर्णय को विवादास्पद बनाता है। वहीं सरकार का कहना है कि राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत राज्यपाल ही राज्य सरकार के प्रतिनिधि होते हैं और इसलिए सहमति देने के लिए वे पूर्ण रूप से सक्षम थे।
अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद क्या हुआ?
अनुच्छेद 370 को हटाए हुए छह वर्ष हो गए हैं। इस छह वर्षों में इस क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिले हैं। इनमें से कुछ सकारात्मक संकेतक निम्नलिखित हैं:
- केंद्रीय कानूनों का विस्तार,
- बुनियादी ढाँचे और पर्यटन में निवेश,
- ज़िला विकास परिषदों (DDC) के चुनाव,
- और प्रशासनिक एकीकरण में वृद्धि
हालाँकि कुछ चुनौतियाँ अब भी बनी हुई हैं। जनसंख्या के कुछ वर्गों में राजनीतिक असंतोष अब भी जारी है, लंबे समय तक इंटरनेट प्रतिबंध और सुरक्षा बंदिशें लागू रहीं, और प्रमुख क्षेत्रीय राजनीतिक दल अब भी राज्य का दर्जा और विशेष स्थिति की बहाली की माँग कर रहे हैं।
युवाओं विशेषकर छात्रों के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि वे इन घटनाक्रमों को आलोचनात्मक और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से समझें और मूल्यांकन करें। अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण की वास्तविक परीक्षा इस बात में निहित है कि यह निर्णय क्षेत्र को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से कितना सफलतापूर्वक रूपांतरित कर पाता है।
निष्कर्ष
अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण केवल भारतीय संविधान के इतिहास की एक घटना नहीं, बल्कि एक ऐसी निरंतर प्रक्रिया है जो जम्मू-कश्मीर के भविष्य के साथ-साथ भारत की संघीय संरचना को भी दिशा और आकार देगी।
भारत के युवा ही आने वाले समय के नीति-निर्माता, शिक्षाविद् और जागरूक नागरिक बनेंगे, इसलिए उनके लिए इस विषय को केवल एक पृथक संवैधानिक निर्णय के रूप में नहीं, बल्कि भारत की दीर्घकालिक एकता, एकीकरण और समावेशी विकास की संघर्षपूर्ण यात्रा के संदर्भ में समझना अत्यंत आवश्यक है। इस निर्णय से मिलने वाले सबक केवल कश्मीर तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह दर्शाते हैं कि लोकतंत्र किस प्रकार विविधता से संवाद करता है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रबंधन करता है और स्थानीय अस्मिता व राष्ट्रीय एकता के बीच संतुलन स्थापित करता है। चूँकि हम इस ऐतिहासिक निर्णय की छठी वर्षगांठ मना रहे हैं, इसलिए युवाओं के लिए यह आवश्यक है कि वे इसे मात्र दर्शक बनकर नहीं, बल्कि आलोचनात्मक सोच रखने वाले जागरूक नागरिक के रूप में समझें और इससे जुड़ें। चाहे कोई इस निर्णय का समर्थन करता हो या विरोध करता हो, हर किसी के लिए इसका संवैधानिक, कानूनी, सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषण करना अत्यंत आवश्यक है। ऐसा करने से भारत के युवा इस वैचारिक विमर्श में सहभागी बनकर सक्रिय भूमिका निभा सकेंगे कि कैसे एक ऐसा भारत निर्मित किया जाए जो वास्तव में एकजुट, समावेशी और न्यायपूर्ण हो।