ज्ञात इतिहास में भारत पर आक्रांताओं के रूप में आने वालों में शक, हूण, कुषाण, मुसलमान, डच, पोर्तुगीज, फ्रेंच, अंग्रेज़ आदि प्रमुख हैं। इन में सबसे ज्यादा समय तक भारत के विभिन्न हिस्सों पर शासन किया, विभिन्न मुस्लिम वंशों ने। ये मुस्लिम आक्रांता न सिर्फ क्रूर थे, बल्कि भारतीयों को इन्होने जो यातनाएं दी हैं, उसकी मिसाल कही अन्य मिलना कठिन है। विजयनगर के सम्राट राजा रामराय का सर काटकर उसे बहती नाली के मुहाने पर लगाने वाले यही हैं। छत्रपति संभाजी महाराज की आंखे फोड़कर, उनकी चमड़ी उधेड़कर, उनको बर्बरतापूर्वक मारने वाले भी यही हैं। भाई मतिदास जी को आरी से चीरकर मारने वाले और गुरु तेग बहादुर जी का सर कलम करने वाले भी यही हैं। गुरु गोविंद सिंह जी के पुत्रों को दीवार में चुनवाकर मारने वाले भी यही हैं।
इसलिए जब अंग्रेज़, व्यापारी के रूप में आए और शासक बन गए, तो भारतीयों को वह मुस्लिम शासकों की तुलना में कहीं ज्यादा अच्छे लगे। प्रारंभ में अंग्रेज़ शासकों ने मुस्लिम शासकों जैसी क्रूरता और पाशविकता नहीं दिखाई, इसलिए ‘अंग्रेज़ अच्छे हैं’ यह धारणा बनती गई। उस पर, अंग्रेजों ने जो शिक्षा व्यवस्था बनाई- उससे भी अंग्रेजों का गुणगान होता रहा। ‘भारत जैसे पिछड़े देश को सुधारकर अंग्रेज़ उसका भला ही कर रहे हैं’ – यह धारणा निर्मित की गई। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद भी जो पाठ्यक्रम बनाया गया, उसने इसी धारणा को बल दिया..। किन्तु, अंग्रेज़ क्या वास्तव में भारत को सुधारने का उच्चतम ध्येय लेकर आए थे ? क्या अंग्रेज़ सच्चे लोकतंत्र को मानने वाले, न्याय के पुजारी थे ? क्या अंग्रेज़ न्यायप्रिय थे, शांतिप्रिय थे, सभ्य थे, सुसंस्कृत (कल्चर्ड) थे…? ऐसा उनके बारे में लिखा गया हैं व अनेकों बार कहा गया है।
किन्तु सच क्या हैं ? अंग्रेजों का असली चेहरा क्या था?
अंग्रेजों की असलियत उनकी गढ़ी हुई इस छवि के सर्वथा विपरीत थी। सन 1757 में प्लासी के युद्ध में जीत के बाद, अंग्रेजों का बंगाल पर राज करने का रास्ता खुल गया। 1765 के बक्सर युद्ध के बाद अधिकृत रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल से राजस्व वसूल करने लगी।
अगले चार वर्षों में ही बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। उस समय की बंगाल की जनसंख्या का लगभग एक तिहाई हिस्सा, अर्थात एक करोड़ भारतीय इस अकाल में मारे गए। ये मृत्यु भुखमरी और अंग्रेजों की ज़्यादतियों के कारण हुई थीं। अंग्रेजों ने इस अकाल से जनता को बचाने या बाहर निकालने के कोई प्रयास नहीं किए, उलटे जो गरीब किसान जीवित थे, उनके साथ बड़ी ही सख्ती से राजस्व की वसूली की गई।
अमेरिका के एक लेखक हैं- माइक डेविस। लेखक के साथ ही वे राजनीतिक कार्यकर्ता भी हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया में क्रिएटिव राइटिंग विभाग में प्रोफेसर डेविस की एक चर्चित पुस्तक हैं – ‘लेट विक्टोरियन होलोकॉस्ट : अल नीनो फेमाइन्स एंड द मेकिंग ऑफ द थर्ड वर्ल्ड’। सन 2001 में प्रकाशित इस पुस्तक में उन्होने भारत में पड़े अकाल के बारे में भी लिखा है। वे लिखते हैं, “सन 1770 से 1890 के बीच के 120 वर्षों में भारत में 31 बड़े अकाल पड़े। और उसके पहले, पूरे 2 हजार वर्षों में आए बड़े अकालों की संख्या मात्र 17 है।
अर्थात अंग्रेजों ने अकाल से लड़ने के लिए प्रबंध तो नहीं ही किए थे, उलटे भारतीयों की उन परंपरागत पद्धतियों को भी नष्ट कर दिया, जो प्रकृति पर आधारित थीं और अकाल जैसी आपदाओं से बचाने का काम करती थीं। यही नहीं ऐसी विषम परिस्थिति में भी अंग्रेजों की क्रूरता सामने आ रही थी। गरीबों से, किसानों से बड़ी ही बेरहमी के साथ राजस्व वसूला जा रहा था।
माइक डेविस के अनुसार 1876-1878, इन तीन वर्षों में बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी में पड़े अकाल में 60 से 80 लाख भारतीयों की मौत हुई थी। कुछ ही वर्षों बाद, 1896 – 1897 में फिर बॉम्बे, मद्रास प्रेसीडेंसी के साथ संयुक्त प्रांत और बंगाल में भी अकाल पड़ा और उसमें भी 50 लाख से ज्यादा लोग मारे गए। यही कहानी 1899 – 1900 के बॉम्बे प्रेसीडेंसी और सी पी – बेरार के अकाल में दोहराई गई।
संक्षेप में, अंग्रेजी शासन में अकाल पड़ने का ये क्रम निरंतर चलता रहा, किन्तु अंग्रेजों ने भारत को लेकर अपनी पाशविक नीति में कोई बदलाव नहीं किया। ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन की बागडोर सीधे रानी विक्टोरिया के हाथों में आ गई, लेकिन अंग्रेजों की क्रूरता कम होने के बजाए, बढ़ती ही गई।
1943 के आने तक परिदृश्य काफी बदल चुका था। द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था। 30 लाख के करीब भारतीय सैनिक, अंग्रेजों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर दुनिया के विभिन्न स्थानों पर उनके दुश्मनों से लड़ रहे थे। ठीक इसी वर्ष बंगाल एक बार फिर भीषण अकाल से जूझ रहा था। लोग दाने – दाने को मोहताज हो रहे थे। उन दिनों विंस्टन चर्चिल इंग्लैंड के प्रधानमंत्री थे। उन्होने बंगाल का बचा खुचा अनाज, जहाजों में भर-भर कर युगोस्लाविया पहुंचा दिया- जहां उनके सैनिकों को युद्ध में टिके रहने के लिए रसद की ज़रूरत थी। ब्रिटिश वॉर मशीनरी भारतीयों का उपजाया अनाज खाकर जंग लड़ती रही, लेकिन जिन्होने इस अन्न को पैदा किया था, वो भूखे मरने के लिए छोड़ दिए गए थे। बंगाल के इस अकाल में 30 लाख से ज्यादा भारतीयों की मृत्यु हुई थी, और जब चर्चिल से इस पूछा गया तो उसने कहा था, “मैं भारतीयों से घृणा करता हूं, वे जानवरों जैसे लोग हैं, जिनका धर्म भी पशुओं जैसा ही हैं। अकाल उनकी अपनी गलती थी, क्योंकि वे खरगोशों की तरह जनसंख्या बढ़ाने का काम करते रहे।”
इंग्लैंड में पार्लियामेंट के सदस्य रहे, इतिहासकार विलियम टॉरेन (William Torren) ने एक पुस्तक लिखी हैं, ‘एम्पायर इन एशिया’ (Empire in Asia)। इस पुस्तक में अवध के नवाब शुजाऊद्दौला के मरने के बाद (अर्थात सन 1775 के बाद), अंग्रेजों ने उसकी बेगमों को कितनी पाशविकता से लूटा- उसका विस्तृत चित्रण है (पृष्ठ 126 – 128)। मजेदार बात यह कि शुजाऊद्दौला ने अपनी इन बेगमों की व्यवस्था, बड़े ही विश्वास के साथ अंग्रेजों पर सौंपी थी। इसलिए इस लूट / डकैती को संवैधानिक चोला पहनाने के लिए अंग्रेजों ने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश- सर एलाइजाह इंपे को भी इसमे शामिल कर लिया। इन न्यायाधीश महोदय ने, कलकत्ता से आकर फैजाबाद की विधवा बेगमों पर काशी नरेश चेत सिंह के साथ मिलकर, अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ने का झूठा आरोप लगाया। इसके बाद फैजाबाद के महलों को अंग्रेजों ने घेर लिया। बेगमों से कहा गया, “आप कैदी हैं। अपने तमाम जेवर, सोना, चांदी, जवाहरात हमे दे दीजिये। बेगमों के मना करने पर उनके नौकरों को तड़पा-तड़पाकर मारा गया और बेगमों को भूखा रखा गया, यहां तक कि उन्हें पानी तक पीने की इजाजत नहीं थी।
अपने नौकरों की क्रूरतापूर्ण मृत्यु देखकर, फैजाबाद की बेगमों ने, पिटारों में भर-भर कर रखा हुआ अपना सारा खजाना अंग्रेजों को सौंप दिया। उन दिनों उसकी कीमत एक करोड़ बीस लाख रुपयों से भी ज्यादा आंकी गई थी। पूरे भारत मे, ऐसी सैकड़ों घटनाएँ मिलती हैं, जिनमें अंग्रेजों के द्वारा की गई लूट और डकैती के प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध हैं। ये सारी घटनाएं अंग्रेजों की न्यायप्रियता के कथित प्रचार की धज्जियां उड़ाती हैं।
ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अफसर, हेनरी थॉमस कोलब्रुक (Henry Thomas Colebrook) ने 28 जुलाई, 1788 को इंग्लैंड में रहने वाले अपने पिता को एक पत्र लिखा। ‘भारत में अंग्रेजी राज’ – नाम की पुस्तक लिखने वाले सुंदरलाल जी ने इस पत्र को- अपनी किताब में उद्धृत किया है। कोलब्रुक लिखते हैं, “मिस्टर हेस्टिंग (गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग) ने इस देश को ऐसे कलेक्टर और जजों से भर दिया हैं, जिनके सामने एकमात्र लक्ष्य धन कमाना है। ज्यों ही ये गिद्ध मुल्क के ऊपर छोड़े गए, उन्होने कहीं कोई बहाना बनाकर तो कहीं बिना बहाने के भारत वासियों को लूटना शुरू कर दिया।”
बाद में संस्कृत के विद्वान बने कोलब्रुक आगे लिखते हैं, “वॉरेन हेस्टिंग की कूटनीति और उसके निर्लज्ज विश्वासघात का प्रभाव केवल राजाओं और बड़े लोगों पर ही नहीं पड़ा। जमींदारों की जमींदारियां छीन लेना, बेगमों को लूटना, रूहेलों को निर्वंश कर डालना…. ये सब तो एक बार को भूला भी जा सकता है, पर जो अत्याचार उसने गोरखपुर में किए, वे सदा के लिए ब्रिटिश जाति के नाम पर कलंक रहेंगे।” सुंदरलाल जी ने अपनी पुस्तक में इस विषय पर विस्तार से लिखा है।
गोरखपुर के इन अत्याचारों के विषय में इतिहासकार जेम्स मिल अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ में लिखता है कि सन 1778 में वॉरेन हेस्टिंग ने, अपने एक अफसर, कर्नल हैनेवे (Col Hannay) को कंपनी की नौकरी से निकालकर अवध के नवाब के यहां भेज दिया। इसके बाद नवाब पर दबाव डालकर, बहराइच और गोरखपुर जिलों का दीवानी और फौजी शासन कर्नल हैनेवे के आधीन करवा दिया गया। जेम्स मिल आगे लिखता हैं, “यह पूरा क्षेत्र, नवाब के शासन में खूब खुशहाल था. किन्तु कर्नल हैनेवे के अत्याचारों के कारण तीन साल के अंदर यह पूरा क्षेत्र वीरान हो गया।”
सैयद नजमूल रज़ा रिजवी ने अपनी पुस्तक ‘Gorakhapur Civil Rebellion in Persian Historiography’ में इस अत्याचार का विस्तार से वर्णन किया है। बाद में इस कर्नल हैनेवे के विरोध में गोरखपुर में बड़ा जनांदोलन खड़ा हुआ, जिसे अंग्रेजों ने ‘विद्रोह’ का नाम दिया और इसे बड़ी नृशंसता से कुचल दिया गया।
गोरखपुर जिले का राजस्व उन दिनों पूरा वसूले जाने पर छह से आठ लाख रुपये वार्षिक होता था। किन्तु कर्नल हैनेवे ने सन 1780 में, बड़ी निर्दयता से इस जिले से 14,56,088 रुपये वसूले। अर्थात प्रतिवर्ष के राजस्व से लगभग दोगुना..! हम अंदाज़ लगा सकते हैं कि ये रुपये किस बर्बरता के साथ और गरीब किसानों को यातनाएं दे कर वसूले गए होंगे।
जमींदारों को इस राजस्व का 20% हिस्सा मिलता था, ताकि इस राशि से वो क्षेत्र में जन सुविधाएं और अपनी व्यवस्थाएं बनाए रख सकें। 6-8 लाख रुपये सालाना की वसूली पर यह रकम लगभग डेढ़ लाख रुपये होती थी। किन्तु कर्नल हैनेवे ने साढ़े चौदह लाख वसूल कर, जमींदारों के हाथों टिकाये मात्र पचास हजार रुपये..!
ये पूरा राजस्व ईस्ट इंडिया कंपनी के खाते में भी नहीं गया। जनलूट की ये राशि इन अधिकारियों ने आपस में मिल बांट के खा ली।
गोरखपुर की यह घटना अपवाद नहीं हैं। पूरे देश में यही चित्र था। पहले बंगाल और सन 1818 के बाद सारे देश में अंग्रेजों का प्रशासन कमोबेश ऐसा ही रहा। इस अन्याय पर कोई सुनवाई नहीं थी और यदि बार-बार न्याय के लिए अर्जी लगाई भी गई, तो सुनवाई का सिर्फ नाटक होता था। ज़ाहिर है सारे अंग्रेज़ अफसर निर्दोष करार दे दिए जाते थे। (क्रमशः)
प्रशांत पोल
(विनाशपर्व पुस्तक से साभार)
प्रशांत पोल सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय चिन्तक, विचारक व लेखक हैं। पेशे से अभियंता (आई. टी. व टेलिकॉम) एवं प्रबंधन सलाहकार प्रशांत पोल की भारत के स्वतंत्रता संघर्ष, पुरातन सभ्यता एवं संस्कृति को लेकर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।