भारत-पाकिस्तान विभाजन की विभीषिका पर बहुत कुछ लिखा, पढ़ा, सुना और देखा गया है, अधिकतर लोग इसकी छोटी-छोटी कहानियों से परिचित भी होंगे… क्योंकि बड़े-बड़े लोग लिखते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि तराजू बराबर रहे इस चक्कर में वह अक्सर हिंदू और मुसलमान दोनों पक्ष को बराबर का जिम्मेदार बना देते हैं, अब प्रश्न यह उठना है कि क्या वाकई में हिंदू और मुसलमान बराबर के जिम्मेदार थे? अगर आप बड़े-बड़े पत्रकारों विचारकों और ऐसे ही कुछ मिले-जुले नाम वालों को सुनते चले आए होंगे तो निश्चित रूप से आपको भी यह विश्वास होगा कि हिंदू और मुसलमान बराबर के जिम्मेदार रहे होंगे… इस दर्दनाक विभाजन की विभीषिका के कई ऐसे अध्याय हैं जिन्हें अगर आप सुनेंगे तो दंग रह जाएंगे, मैं आज पूरी जिम्मेदारी के साथ इस बात को रखने के लिए यह लेख लिख रहा हूं कि विभाजन की जिम्मेदारी बराबर की नहीं थी, हां बिल्कुल मैं अपनी बात पर अडिग हूं की जिम्मेदारी बराबर की नहीं थी, उसके पीछे मेरे पास कई तर्क और प्रमाण हैं। आखिरकार आप सभी जिम्मेदार नागरिक इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि सबसे पहले भारत से अलग होने का निर्णय किस समुदाय ने लिया था? यह सीधी सी बात है कि केवल जिन्ना को जिम्मेदार ठहराने से हर कोई परहेज करता है…. तो ठीक है यहां पर मैं उन सभी पहरेदारों के समर्थन में हूँ लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि किसी हिंदू ने पहले भारत से अलग किसी हिंदू राष्ट्र की मांग की… सत्य तो यह है कि केवल एक…. , और मुसलमानों के लगभग एक बहुत बड़े समूह ने देश विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण की मांग की थी और उसके लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार थे।
भारत-पाकिस्तान त्रासद विभीषिका को लिखते लिखते मेरे हाथ काँप पर रहे हैं, क्योंकि मैंने कुछ ऐसी चीज पढ़ीं हैं, जिनकी वजह से मैं बेचारे हिंदुओं को बेचारा कहने को मजबूर हूं…. एक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में है जो कि मैं आप सभी से साझा करना चाहता हूं, क्या आप सबके पास इस बात का कोई जायज जबाब है कि भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के समय जिन मुसलमानो ने पाकिस्तान जाना मुनासिब समझा वह तो चले गए और हिंदुओं को जबरदस्ती भारत भेजा गया उन्हें लूटा गया, मारा गया, जमीन छीनी गई, उन्हें निस्तोनाबूत कर दिया गया, पाकिस्तान से भारत आए हिंदू शरणार्थी भारतीय कहे गए और भारत से पाकिस्तान की ओर गए मुसलमान आखिर उन्हें क्या कहा गया….. वह तो मजे में है मैं आपको एक सच्चाई बताता हूं जिसको सुनकर आप निश्चित रूप से स्तब्ध रह जाएंगे भारत से पाकिस्तान गए किसी भी मुसलमान की जमीन का नुकसान लगभग नहीं हुआ है क्योंकि जब वह भारत से पाकिस्तान जा रहे थे तो वह भारत में मौजूद अपने रिश्तेदारों परिवार के लोगों को वह जमीन सुपुर्द करके गए हैं यानि उन्हे कस्टोडियन बना कर गए हैं, अभी आपने अखबारों में पटौदी खानदान के संपत्ति के विवाद के बारे में जरूर सुना होगा वह विभाजन की विभीषिका का एक परिणाम मात्र है, आइए विस्तार से समझाता हूँ ।
विभाजन का 1947 भारतीय इतिहास की सबसे गहरी पीड़ा का प्रतीक है । उस वर्ष जब अंग्रेज़ भारत छोड़कर गए, तब उन्होंने केवल एक भू-भाग नहीं बाँटा, बल्कि करोड़ों जिंदगियों की चूलें हिला दीं । पंजाब, सिंध और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत के समृद्ध हिंदू और सिख परिवार, जिनकी पहचान केवल धन-सम्पत्ति नहीं बल्कि उनकी संस्कृति, परंपरा और पीढ़ियों से जुड़े धार्मिक स्थलों से भी थी, एक ही झटके में बेघर कर दिए गए। उन्होंने पीछे छोड़ा—40 लाख एकड़ से अधिक उपजाऊ कृषि भूमि, हजारों हवेलियाँ, असंख्य दुकानें, सैकड़ों बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान, बैंकों में जमा करोड़ों रुपये और पीढ़ियों से संजोया हुआ धार्मिक-सांस्कृतिक वैभव। केवल पश्चिमी पंजाब में ही हिंदुओं और सिखों का संयुक्त भूमि स्वामित्व कई लाख एकड़ में फैला था, सिंध में वे मात्र पंद्रह प्रतिशत आबादी होते हुए भी शहरी संपत्ति और व्यापार के बहत्तर प्रतिशत के मालिक थे। यह सब पाकिस्तान बनने के साथ ही उनके हाथों से स्थायी रूप से चला गया।
पाकिस्तान ने इन संपत्तियों को तुरंत “इवैक्यूई प्रॉपर्टी” घोषित कर अपने कब्ज़े में ले लिया और 1960 में “इवैक्यूई ट्रस्ट प्रॉपर्टी बोर्ड” नामक संस्था के हवाले कर दिया। आज भी यह बोर्ड पाकिस्तान में एक लाख नौ हजार से अधिक एकड़ ज़मीन और पंद्रह हजार से अधिक इमारतों का मालिक है। अकेले पंजाब प्रांत में इसकी पचासी हजार एकड़ ज़मीन किराये पर दी जाती है, जिससे 2018–19 में लगभग पैंतीस करोड़ रुपये की वार्षिक आय हुई। यह वही संपत्ति है जो कभी हिंदू और सिख समुदाय की मेहनत और परिश्रम से अर्जित की गई थी, पर अब उनके मूल मालिकों या उनके वारिसों को न तो उस तक जाने की अनुमति है और न उसका कोई लाभ।
विभाजन से पहले 1941 की जनगणना बताती है कि पश्चिमी पंजाब में हिंदू लगभग उन्नतीस प्रतिशत और सिख लगभग पंद्रह प्रतिशत थे, पर 1951 तक यह अनुपात लगभग शून्य हो गया। सिख समुदाय, जो 1941 में पाकिस्तान की कुल आबादी का छह प्रतिशत था, विभाजन के बाद लगभग पूरी तरह भारत में बसने को विवश हुआ। इन समुदायों के पलायन ने न केवल उनकी सामाजिक उपस्थिति समाप्त की, बल्कि उनकी आर्थिक नींव को भी जड़ से हिला दिया।
इसके विपरीत, भारत ने पाकिस्तान से आए मुसलमानों की संपत्तियों के लिए “इवैक्यूई प्रॉपर्टी अधिनियम, 1950” लागू किया, जिसके अंतर्गत यदि पाकिस्तान गया व्यक्ति भारत में रिश्तेदार छोड़ गया, तो वह रिश्तेदार कस्टोडियन की अनुमति से संपत्ति का उपयोग कर सकता था। इस प्रावधान ने पाकिस्तान गए मुसलमानों की संपत्ति को भारत में कानूनी सुरक्षा दी। कई मुस्लिम परिवारों ने पाकिस्तान जाकर भी भारत में अपने मकानों, खेतों और दुकानों का लाभ रिश्तेदारों के माध्यम से बनाए रखा।
भारत ने हिंदू-सिख शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए “विस्थापित व्यक्ति (दावा) अधिनियम, 1950” और “विस्थापित व्यक्ति (मुआवज़ा एवं पुनर्वास) अधिनियम, 1954” बनाए। मुआवज़ा कोष में भारत में छोड़ी गई मुस्लिम संपत्तियों को डालकर विस्थापितों को नकद, सरकारी बांड, शहरी क्षेत्रों में मकान-दुकान और ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि भूमि के रूप में मुआवज़ा दिया गया। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में “अर्द्ध-स्थायी आवंटन” योजना के अंतर्गत लगभग छब्बीस लाख एकड़ भूमि वितरित की गई, दिल्ली और अन्य शहरों में एक लाख से अधिक शहरी संपत्तियों का आवंटन हुआ, और “विस्थापित व्यक्ति (ऋण समायोजन) अधिनियम, 1951” से हजारों परिवारों को पुराने कर्ज़ों से राहत मिली।
फिर भी यह मुआवज़ा वास्तविक नुकसान की बराबरी नहीं कर सका। लाहौर के मध्य में करोड़ों की हवेली छोड़ने वाले को भारत में किसी कस्बे में साधारण घर मिला, सिंध में हजारों एकड़ सिंचित भूमि छोड़ने वाले को राजस्थान के रेगिस्तान में बंजर ज़मीन मिली। पाकिस्तान में छोड़ी गई संपत्ति का वास्तविक मूल्य भारत में मिले मुआवज़े से कई गुना अधिक था, क्योंकि मुआवज़ा सरकारी “प्रमाणित दावा” के आधार पर तय होता था, जो प्रायः बाज़ार मूल्य से बहुत कम होता था।
महमूदाबाद एस्टेट का उदाहरण दिखाता है कि भारत में पाकिस्तान जाने वालों की संपत्ति दशकों तक कस्टोडियन के अधीन सुरक्षित रह सकती है, मुकदमे लड़े जा सकते हैं और अदालतें सुनवाई कर सकती हैं। वारिसों के पक्ष में कभी निर्णय भी आए, भले बाद के संशोधनों ने अधिकार समाप्त कर दिए हों। इसी तरह भोपाल-पटौदी संपत्ति विवाद दर्शाता है कि भारत में मुस्लिम परिवारों की संपत्तियाँ लंबी कानूनी प्रक्रिया में बची रह सकती हैं, जबकि पाकिस्तान में हिंदू-सिखों की संपत्तियों का हक़ तुरंत और स्थायी रूप से समाप्त कर दिया गया।
पंजाब में मुस्लिम इवैक्यूई भूमि का अर्द्ध-स्थायी आवंटन विस्थापितों के लिए राहत थी, परन्तु अक्सर यह भूमि मूल भूमि से कम उपजाऊ और कम मूल्यवान थी। भारत ने पुनर्वास का प्रयास किया, लेकिन पाकिस्तान ने हिंदू-सिखों की छोड़ी भूमि और संपत्तियों को अपने नागरिकों के बीच बांट दिया और मूल मालिकों को न मुआवज़ा दिया, न विकल्प।
उन्नीस सौ पचास का नेहरू-लियाकत समझौता, जिसमें दोनों देशों ने अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और संपत्ति के अधिकार की गारंटी दी, भारत में तो कानून और कस्टोडियन प्रणाली के रूप में लागू हुआ, पर पाकिस्तान में यह वादा निभाया ही नहीं गया। वहां की सरकार ने न केवल हिंदू और सिखों को उनकी संपत्ति से वंचित किया, बल्कि उनके धार्मिक स्थलों और सांस्कृतिक प्रतीकों पर भी नियंत्रण कर लिया।
आज भी भारत में ऐसे लोग हैं जो पाकिस्तान का समर्थन करते हैं, उसकी नीतियों की वकालत करते हैं और इस ऐतिहासिक अन्याय को अनदेखा करते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि पाकिस्तान का मुसलमान भारत में अपनी छोड़ी संपत्ति का लाभ रिश्तेदारों के जरिये पा सकता है, लेकिन पाकिस्तान का हिंदू अपने घर की देहरी तक नहीं जा सकता। उसकी संपत्ति पर सरकारी ताले लगे हैं, उसकी धार्मिक पहचान को मिटा दिया गया है। यह केवल अतीत की बात नहीं, बल्कि आज भी जारी असमानता का प्रमाण है।
यह सारा परिप्रेक्ष्य हमें यह चेतावनी देता है कि धार्मिक आधार पर बना राष्ट्र अपने अल्पसंख्यकों को कभी न्याय और बराबरी नहीं देता। पाकिस्तान इसका जीता-जागता उदाहरण है। विभाजन में असली बलिदान और असली नुकसान हिंदू और सिख समुदाय का हुआ। उन्होंने न केवल आर्थिक रूप से, बल्कि सांस्कृतिक और भावनात्मक रूप से भी सब कुछ खोया। उनकी पीड़ा केवल इतिहास नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्मृति का हिस्सा है, जिसे याद रखना और पीढ़ियों तक संजोकर रखना आवश्यक है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें कि किस कीमत पर आज का भारत खड़ा है।
डॉ. राघवेंद्र प्रताप सिंह