बंगाल फ़ाइल्स: सत्य, राजनीतिक चुप्पी और विस्थापित इतिहास की पुकार

पूर्वी बंगाल (नोआखाली एवं टिप्पेरा) में हुए नरसंहार में लगभग 50,000 हिंदू प्रभावित हुए। इसमें हत्या, बलात्कार, जबरन धर्मांतरण, संपत्ति की क्षति और आगज़नी शामिल हैं।

बंगाल फ़ाइल्स: सत्य, राजनीतिक चुप्पी और विस्थापित इतिहास की पुकार

ममता बनर्जी ने इस फिल्म पर बंगाल में अघोषित प्रतिबंध लगा दिया है।

बंगाल फ़ाइल्स केवल एक फ़िल्म नहीं है, यह सत्य, स्मृति और न्याय की लड़ाई है। एक ऐसा पुनर्निदेशन जो दशकों तक दबाए गए इतिहास को पुनर्जीवित करता है। रविवार की गली पर व्याप्त राजनीतिक चुप्पी, मीडिया की विकृत टिप्पणियां और वोट-बैंक की राजनीति इस फ़िल्म को एक सिनेमा तक नहीं रहने देती। यह दिखाता है कि कैसे बंगाली हिंदुओं की पीड़ा—डायरेक्ट एक्शन डे, नोआखाली हत्याकांड, विभाजन और विस्थापन—वास्तविकता से कैसे छिपाई गई, और क्यों यह आंखें खोलने वाली जंग है।

डायरेक्ट एक्शन डे और नोआखाली

डायरेक्ट एक्शन डे (16–19 अगस्त 1946) कोलकाता में 16 अगस्त 1946 से शुरु हुई सामूहिक हिंसा में 5,000–10,000 लोग मारे गए, लगभग 15,000 घायल हुए—कुछ स्रोतों में मृतकों का अनुमान 5,000–20,000 तक भी मिलता है। इस तांडव ने बंगाल में विभाजन की राह आसान की और विभाजन को ऐतिहासिक विमर्श में पुनर्जीवित किया।

नोआखाली हिंसा (अक्टूबर–नवंबर 1946)

पूर्वी बंगाल (नोआखाली एवं टिप्पेरा) में हुए नरसंहार में लगभग 50,000 हिंदू प्रभावित हुए—हत्या, बलात्कार, जबरन धर्मांतरण, संपत्ति की क्षति एवं आगज़नी शामिल हैं। यह “जनसंहार” की श्रेणी में आता है—एक सुनियोजित, सामूहिक और साम्प्रदायिक हिंसा, जो समकालीन इतिहास और पाठ्यक्रमों में गायब कर दी गई है।

पंजाब व बंगाल में विस्थापन का अंतर

विभाजन के बाद पंजाब में हिंसा सीधे हुई, जिससे पलायन एक वर्ष में समाप्त हो गया। बंगाल में हिंसा अधिक व्यवस्थित नहीं थी; इसलिए वहां विस्थापन धीरे-धीरे होता रहा—तीनों दशकों तक जारी रहा।

विस्थापितों के आंकड़े

1951 की जनगणना के अनुसार, भारत में पूर्वी बंगाल से कुल 2.523 मिलियन (25.23 लाख) शरणार्थी आए; इनमें से 2.061 मिलियन (20.61 लाख) ने पश्चिम बंगाल में बसना चुना, बाकी लोग असम, त्रिपुरा और अन्य राज्यों में गए। 1973 तक ये संख्या 60 लाख से अधिक हो गई।

1947–1951 के पहले कुछ सालों में सीधे विस्थापन की संख्या (वेस्ट बंगाल में) तेजी से बढ़ी—1948 में लगभग 3.44 लाख, 1956 में 3.20 लाख, 1964 में 6.93 लाख और 1971 (बांग्लादेश मुक्ति युद्ध) में लगभग 15 लाख शरणार्थी वृद्धि दर्ज है।

असम और त्रिपुरा में विस्थापितों का जुड़ाव

असम में लगभग 1946–1951 तक 274,455 बंगाली हिंदू शरणार्थी, 1952–1958 में 212,545, 1964 के दंगों के बाद संख्या बढ़कर 1,068,455, और 1971 के बाद 347,555 रूप में दर्ज हुईं—ये सभी असम में स्थायी रूप से बस गए। त्रिपुरा में 1947–51 के दौरान 610,000 शरणार्थी और 1971 के बाद 1.038 मिलियन (लगभग 10 लाख) आए, जो राज्य की जनसंख्या के करीब था।

बंगाल से पलायन का पैमाना

ये आंकड़े बताते हैं कि विभाजन और उसके बाद की दशकों तक, बंगाल से भारत भर में (विशेषकर पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और असम) लाखों हिंदू विस्थापित हुये—यह केवल भूगोलीय उद्भेदन नहीं, यह सामूहिक पीड़ा और सामाजिक संरचना का धमाकेदार परिवर्तन था।

राजनीतिक चुप्पी और मीडिया की भूमिका

ममता बनर्जी की सरकार ने फ़िल्म पर कोई आधिकारिक प्रतिबंध नहीं लगाया, पर “अनौपचारिक दबाव” का माहौल बना दिया—थिएटर मालिकों और वितरकों को धमकाया गया, जिससे फ़िल्म का प्रदर्शन मुश्किल बना दिया गया।

The Hindu जैसे मीडिया संस्थान ने फ़िल्म की समीक्षा में आरोप लगाया कि यह “साधारण मुसलमानों के घरों” को नहीं दिखाती—जबकि इतिहास के दस्तावेज़ और साक्ष्य दिखाते हैं कि इन हिंसाओं में मुस्लिम भीड़क समूहों की व्यापक भागीदारी थी।

इतिहास की चुप्पी और पुनरुद्धार की आवश्यकता

डायरेक्ट एक्शन डे और नोआखाली हिंसा जैसे विवादित, दर्दनाक घटनाओं को पाठ्यपुस्तकों और सार्वजनिक स्मृति से लगभग मिटा दिया गया है। यह न केवल शिक्षा की विफलता है, बल्कि सामाजिक न्याय का उल्लंघन भी है। विस्थापन का डेटा शिक्षा, विवेक और नीति निर्माण में शामिल होना चाहिए—कि कैसे लाखों हिंदू परिवार घर छोड़ने पर मजबूर हुए, और कैसे वे नवनिर्माण की चुनौतियों से जूझे।

बंगाल फ़ाइल्स: राष्ट्रीय स्मृति की पुकार

यह फ़िल्म केवल सिनेमा नहीं है—यह इतिहास के उन भूल चुके अध्यायों को फिर से पाठ्यक्रम में लाने वाला एक माध्यम है। जैसे कश्मीर फ़ाइल्स ने कश्मीरी पंडितों का दर्द राष्ट्रीय विमर्श में लाया था, वैसे ही बंगाल फ़ाइल्स बंगाली हिंदुओं की पीड़ा को पुनर्जीवित करती है।

विवेक अग्निहोत्री ने सवाल उठाया:

“क्या डायरेक्ट एक्शन डे नरसंहार नहीं था? क्या नोआखाली नरसंहार नहीं था?” यह सवाल इतिहास की चुप्पी, मीडिया-राजनीतिक दबाव और स्मृति की खिल्ली उड़ाने का सीधा विरोध है। इतिहास की चुप्पी सिर्फ़ घटनाओं को नहीं दबाती, यह पीड़ित समुदाय की पहचान, अस्मिता, और सम्मान को हमेशा के लिए खोखला कर देती है।

Exit mobile version