दुनिया का इतिहास अक्सर विजेताओं के शब्दों में लिखा गया है। लेकिन कभी-कभी, अगर हम गहराई से देखें तो इस इतिहास की तहों में रक्त, हिंसा और असीमित लालसा के धब्बे दिखाई देते हैं। अमेरिका, जिसे आज आधुनिकता, लोकतंत्र और वैश्विक नेतृत्व का प्रतीक बताया जाता है, दरअसल उसी यूरोप का आधुनिक रूप है जिसने 12वीं–13वीं शताब्दी में अपने भीतर के खूनी कबीलाई युद्धों को “पवित्र युद्ध” का नाम दिया था। उन युद्धों को चर्च ने ईश्वर की इच्छा बताकर वैध ठहराया।
1095 ई. में पोप अर्बन द्वितीय ने क्रूसेड्स का आह्वान करते हुए नारा दिया था — “Deus vult” यानी “ईश्वर यही चाहता है।” यही वह क्षण था जब कत्लेआम को “पवित्रता” की चादर मिल गई। तलवारें चमकीं, लाखों निर्दोष मारे गए और पूरे महाद्वीप की आत्मा हिंसा से सराबोर हो गई। यही संस्कृति, यही सोच और यही मानसिकता अटलांटिक पार कर अमेरिका पहुँची और वहाँ एक नए रूप में पुनर्जन्म ले लिया।
अमेरिका का पूरा सभ्यतागत ढाँचा — चाहे वह दास प्रथा हो, उपनिवेशवाद हो, पूँजीवाद का लालच हो या आधुनिक युद्ध — उसी मध्ययुगीन यूरोप की “पवित्र हिंसा” की संतान है। बस फर्क इतना है कि तलवार की जगह वहाँ मशीनगन और बम आ गए, चर्च की जगह “फ्री मार्केट” और “डेमोक्रेसी” के नारे ने ले ली। लेकिन अंतर्मन वही रहा — रक्तपिपासा, वर्चस्व और दुनिया पर राज करने की हवस।
यूरोप से अमेरिका तक हिंसा की विरासत
क्रूसेड्स को अक्सर धार्मिक टकराव कहा गया, लेकिन असल में वे यूरोप के भीतर की हिंसक संस्कृति को बाहर निकालने का रास्ता थे। जमीन के भूखे शूरवीर, सत्ता के लालची कुलीन और आस्था की आड़ लेने वाला चर्च — सभी ने मिलकर धर्म के नाम पर कत्लेआम किया। यही डीएनए अमेरिका के जन्म में शामिल हुआ।
जब यूरोपीय खोजकर्ता नई दुनिया में पहुँचे, तो वहाँ के मूल निवासियों को उन्होंने इंसान नहीं, बल्कि “पशु” माना। लाखों रेड इंडियंस का कत्लेआम हुआ, सभ्यताएँ मिट गईं और जो बचे उन्हें आरक्षण शिविरों में धकेल दिया गया।
19वीं सदी में फ्रांसीसी चिंतक अलेक्ज़िस द टॉकविल ने अमेरिकी विस्तारवाद को “प्रॉविडेंस” यानी ईश्वर की कृपा कहा। इसका मतलब साफ था — मूल निवासियों का विनाश एक “दैवीय योजना” का हिस्सा है। यही मानसिकता थी जिसने अमेरिकी सभ्यता की नींव डाली।
फिर आया दास प्रथा का दौर। अफ्रीका से लाखों काले गुलाम जंजीरों में जकड़े अमेरिका लाए गए। खेतों, कारखानों और घरों में उनकी हड्डियाँ पिसीं और खून बहा। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की पहली समृद्धि इन्हीं गुलामों के श्रम से बनी।
पूंजीवाद और युद्ध: दो चेहरे, एक ही आत्मा
अमेरिका का आर्थिक ढाँचा युद्ध पर टिका है। द्वितीय विश्व युद्ध ने उसकी अर्थव्यवस्था को ऊँचाइयों पर पहुँचाया। शीत युद्ध ने उसकी सैन्य–औद्योगिक कॉम्प्लेक्स को दुनिया पर हावी कर दिया। वियतनाम, कोरिया, इराक, अफगानिस्तान — हर जगह अमेरिका ने “लोकतंत्र” का नारा देकर असल में हथियार कंपनियों और तेल माफियाओं को लाभ पहुँचाया।
वियतनाम में नेपाम बमों से जली नन्हीं बच्चियाँ, इराक में तबाह अस्पताल, अफगानिस्तान में शादी समारोहों पर बरसते ड्रोन — ये सब उसी रक्तपिपासा का आधुनिक चेहरा हैं। फर्क इतना है कि अब इन हत्याओं को “कोलेटरल डैमेज” कहा जाता है और मीडिया उन्हें “मानवता की रक्षा” बताता है। पूँजीवाद और युद्ध यहाँ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हथियार कंपनियाँ, तेल कंपनियाँ और मीडिया — सभी मिलकर इस हिंसक मॉडल को वैधता देते हैं।
भारत का विकल्प: सभ्यता, शांति और संतुलन
अब सवाल है कि इस रक्तपिपासु अमेरिकी मॉडल के सामने भारत क्या पेश करता है? भारत की सभ्यतागत धारा उलटी दिशा में बहती है। यहाँ अशोक हुए जिन्होंने कलिंग युद्ध के बाद तलवार छोड़ दी और पूरी दुनिया को “धम्म” का संदेश दिया। यहाँ बुद्ध हुए जिन्होंने करुणा को धर्म का केंद्र बनाया। यहाँ गांधी हुए जिन्होंने कहा — “पश्चिमी सभ्यता? हाँ, यह एक अच्छा विचार हो सकता है।” इस एक वाक्य ने ही पश्चिम की हिंसक प्रवृत्ति पर व्यंग्य कर दिया।
भारत की यही विरासत आज दुनिया के सामने वैकल्पिक नैरेटिव है। जब अमेरिका लोकतंत्र के नाम पर बम बरसाता है, भारत लोकतंत्र का उत्सव अपने चुनावों से मनाता है। जब अमेरिका मानवाधिकार की आड़ में हमला करता है, भारत सह-अस्तित्व और साझेदारी की बात करता है। जवाहरलाल नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा था — “भारत की आत्मा सहिष्णुता और मेलजोल में है।” यही आत्मा आज वैश्विक मंच पर भारत का मार्गदर्शन कर रही है।
आज का संदर्भ: अमेरिका बनाम भारत
आज एशिया में अमेरिका चीन को रोकने के लिए इंडो-पैसिफिक में सैन्य ठिकाने बना रहा है। टेक्नोलॉजी और सेमीकंडक्टर पर उसका वर्चस्व बनाए रखने की कोशिश है। भारत इस खेल में अपनी अलग राह चुन रहा है। हम न अमेरिकी दादागिरी अपनाते हैं और न चीनी विस्तारवाद। भारत का मॉडल है साझेदारी और सह-निर्माण। अफ्रीका से लेकर एशिया तक भारत इंफ्रास्ट्रक्चर, डिजिटल पब्लिक गुड्स और कूटनीति से यह साबित कर रहा है कि नेतृत्व सिर्फ़ हथियारों से नहीं आता।
रूस–यूक्रेन युद्ध में भारत ने अमेरिका की लाइन नहीं पकड़ी। चीन के खिलाफ मज़बूत खड़े हैं लेकिन अपनी संप्रभुता से समझौता नहीं किया। यही भारत की सभ्यतागत ताकत है — पश्चिमी रक्तपिपासा के सामने नैतिक संतुलन।
सभ्यताओं की जंग
आज की दुनिया दरअसल सभ्यताओं की जंग देख रही है। एक ओर है अमेरिका और उसका पश्चिमी ब्लॉक, जो क्रूसेड्स की रक्तरंजित परंपरा को आधुनिक बम और मिसाइलों में ढालकर थोप रहा है। दूसरी ओर है भारत, जिसकी जड़ें वेदों की ऋचाओं, बुद्ध की करुणा और गांधी की अहिंसा में हैं।
दुनिया का भविष्य इसी टकराव से तय होगा। क्या सभ्यता का नेतृत्व उस ताकत के हाथ में रहेगा जो नरसंहार को “लोकतंत्र” कहती है? या फिर उस भारत के पास जाएगा जो शांति को ताकत और ताकत को मर्यादा में ढालकर दुनिया को नया रास्ता दिखाता है? भारत की भूमिका अब यही है — अमेरिकी रक्तपिपासु सभ्यता का विकल्प प्रस्तुत करना। और यही भूमिका भारत को 21वीं सदी में वैश्विक नैतिक नेतृत्व दिलाएगी।