फ़ैज़पुर 1937: तिरंगे की डोर और राजनीति की स्मृति

आज तक कांग्रेस समेत अन्य पार्टियां संघ पर तिरंगे का सम्मान नहीं करने का आरोप लगाती रही है। लेकिन, सत्य इससे उलट है।

फ़ैज़पुर 1937: तिरंगे की डोर और राजनीति की स्मृति

फ़ैज़पुर 1937 का यह दृश्य भारतीय राजनीति की स्मृति में दर्ज हो चुका है।

दिसंबर 1937 की ठंडी सुबह। महाराष्ट्र का छोटा-सा कस्बा फ़ैज़पुर उस दिन भारत की राजनीति का केंद्र बन गया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहली बार अपना अधिवेशन किसी गांव की मिट्टी पर बुलाया था। खेतों से सीधे आए किसानों की भीड़, बैलगाड़ियों की कतारें, और मंच पर बैठे नेहरू, पटेल और आचार्य नरेंद्र देव — सब कुछ इस अधिवेशन को असाधारण बना रहे थे।

गांव के लोग उम्मीद से भरे थे। उन्हें लगा कि अब उनकी तकलीफ़ें सुनी जाएंगी — साहूकारों का कर्ज़, ज़मींदारों की मनमानी और ब्रिटिश हुकूमत के बोझ तले दबा उनका जीवन।

जब राष्ट्रीय ध्वज फहराने का क्षण आया, तो पूरा पंडाल खड़ा हो गया। “वंदे मातरम” गूंजा। लेकिन तिरंगा बीच में ही अटक गया। रस्सी फंस गई, झंडा हवा में झूलकर रह गया। भीड़ में बेचैनी फैल गई। किसानों के बीच खुसर-पुसर होने लगी — “देखो, झंडा भी हमारी तरह अधूरा रह गया।”

कई कार्यकर्ताओं ने कोशिश की, पर झंडा ऊपर न गया। तभी भीड़ से एक युवक आगे आया। उसका नाम था किशन सिंह राजपूत, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक था। उसने रस्सी थामी और झटके से गांठ खोल दी। तिरंगा तुरंत ऊपर चला गया और हवा में लहराने लगा। भीड़ तालियों और नारों से गूंज उठी। मंच पर बैठे नेहरू मुस्कुराए और युवक की पीठ थपथपाई।

शाम को प्रस्ताव हुआ कि युवक को सम्मानित किया जाए। परन्तु जब यह पता चला कि वह संघ का स्वयंसेवक है, तो नेताओं में संकोच फैल गया। अंततः उसे मंच पर नहीं बुलाया गया। झंडा ऊपर था, लेकिन राजनीति की डोर उलझी रही।

डॉ हेडगेवार ने किया सम्मानित

फ़ैज़पुर अधिवेशन अपने प्रस्तावों के लिए ऐतिहासिक बना। किसानों की न्यूनतम मजदूरी, ऋण मुक्ति और ज़मींदारी उन्मूलन जैसे मुद्दे पहली बार बड़े राजनीतिक मंच पर रखे गए। कांग्रेस के लिए यही इस अधिवेशन की असली विरासत है। लेकिन, संघ ने इस अधिवेशन को अपनी स्मृतियों में अलग तरह से दर्ज किया — उस युवक की कहानी, जिसने तिरंगे को अटके से ऊपर पहुंचाया।
इतना ही नहीं, उस समय के सरसंघचाल डॉ केशव बलिराम हेडगेवार को जब इसका पता चला तो वे व्यक्तिगत तौर पर फैजपुर गये और किशन सिंह राजपूत से मिले। उन्होंने उसे चांदी का लोटा देकर सम्मानित भी किया।

दशकों बाद, 2018 में दिल्ली में एक तीन-दिवसीय व्याख्यानमाला में सरसंघचालक मोहन भागवत ने इसी प्रसंग को याद किया और कहा: “जब-जब तिरंगे की गरिमा संकट में पड़ी, संघ का स्वयंसेवक उसे ऊंचा करने के लिए खड़ा हुआ।” संघ के प्रकाशनों — पांचजन्य और ऑर्गनाइज़र — ने इस घटना को गर्व के साथ छापा। वहीं कांग्रेस के दस्तावेज़ों और तटस्थ इतिहासकारों में इसका उल्लेख नहीं मिलता। उनके लिए फ़ैज़पुर अधिवेशन किसानों की राजनीति का प्रतीक है, न कि किसी झंडे की तकनीकी गड़बड़ी की कहानी।

यही वजह है कि यह घटना इतिहास और स्मृति के बीच झूलती रहती है। एक ओर संघ इसे अपनी पहचान और गौरव का हिस्सा बताता है, दूसरी ओर कांग्रेस इसे अप्रासंगिक मानती है।

आज जब राजनीति में संघ और कांग्रेस आमने-सामने आते हैं, यह प्रसंग फिर लौट आता है। चुनावी भाषणों और व्याख्यानों में इसे सुनाया जाता है। कोई इसे सच्ची घटना कहता है, कोई इसे स्मृति का मिथक। लेकिन सच चाहे जो भी हो, फ़ैज़पुर 1937 का यह दृश्य भारतीय राजनीति की स्मृति में दर्ज हो चुका है। झंडा उस दिन ऊपर चला गया था, पर उसकी डोर आज भी उलझी हुई है।

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