अमेरिका और भारत के बीच हालिया टैरिफ विवाद ने वैश्विक राजनीति में एक नई बहस को जन्म दिया है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन का ताजा बयान इसी बहस को और तेज कर रहा है। बोल्टन ने डोनाल्ड ट्रंप पर आरोप लगाया कि उनकी आक्रामक टैरिफ नीति ने दशकों की मेहनत से बने अमेरिका-भारत संबंधों को कमजोर कर दिया है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मजबूर किया है कि वे रूस और चीन के साथ अधिक नजदीकी बढ़ाएं।
यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब चीन के तियानजिन में 25वें शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन का समापन हुआ है। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अलग-अलग द्विपक्षीय मुलाकात की। इन बैठकों के बाद यह सवाल जोर पकड़ रहा है कि क्या भारत वास्तव में रूस-चीन के साथ एक नई रणनीतिक धुरी की ओर बढ़ रहा है?
अमेरिका-भारत संबंधों में दरार
अमेरिका और भारत के बीच संबंध पिछले दो दशकों में काफी मजबूत हुए हैं। 2008 के असैन्य परमाणु समझौते से लेकर हाल के रक्षा और तकनीकी साझेदारी तक, दोनों देशों के रिश्ते “रणनीतिक साझेदारी” की श्रेणी में आ चुके हैं। लेकिन ट्रंप के राष्ट्रपति कार्यकाल में इस संबंध पर कई बार तनाव दिखा।
जॉन बोल्टन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘X’ पर लिखा कि व्हाइट हाउस की नीति ने भारत को अमेरिका से दूर और रूस-चीन के करीब धकेल दिया है। उनका आरोप है कि ट्रंप प्रशासन ने 50% टैरिफ लगाकर व्यापारिक संबंधों को कठिन बना दिया।
भारत के लिए यह आर्थिक झटका छोटा नहीं है। भारतीय निर्यातक पहले से ही वैश्विक मंदी और मांग में गिरावट का सामना कर रहे हैं। ऐसे में अमेरिकी बाजार पर अतिरिक्त शुल्क लगना भारतीय उद्योग के लिए नुकसानदेह है।
मोदी-पुतिन-जिनपिंग मुलाकात का महत्व
तियानजिन में आयोजित एससीओ सम्मेलन में मोदी, पुतिन और जिनपिंग की मुलाकात ने इस मुद्दे को और भी संवेदनशील बना दिया। भारत ने हमेशा खुद को एक स्वतंत्र और संतुलित शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है। लेकिन अमेरिका की टैरिफ नीति और रूस-यूक्रेन युद्ध पर पश्चिमी दबाव के बीच भारत के सामने मुश्किल विकल्प खड़े हो रहे हैं।
भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए रूस एक प्रमुख साझेदार है। रूसी कच्चे तेल पर भारत ने पिछले दो सालों में बड़ी मात्रा में खरीदारी की है, जिससे घरेलू ईंधन कीमतों पर नियंत्रण बना रहा। पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने रूस से व्यापार जारी रखा, क्योंकि यह उसके राष्ट्रीय हित में था।
जिनपिंग के साथ मुलाकात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। भारत और चीन के रिश्ते 2020 के गलवान संघर्ष के बाद तनावपूर्ण रहे हैं। लेकिन भारत समझता है कि एशियाई क्षेत्रीय राजनीति में चीन की अनदेखी संभव नहीं है। इसलिए बातचीत के चैनल खुले रखना भारत की रणनीति का हिस्सा है।
टैरिफ नीति के भू-राजनीतिक निहितार्थ
बोल्टन की यह टिप्पणी केवल आर्थिक मुद्दे की आलोचना नहीं है, बल्कि यह बताती है कि किस तरह आर्थिक नीति सीधे-सीधे भू-राजनीतिक संतुलन को प्रभावित कर सकती है।
भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को मजबूती
ट्रंप की टैरिफ नीति ने भारत को यह संदेश दिया है कि अमेरिका पर पूरी तरह निर्भर रहना जोखिम भरा हो सकता है। इससे भारत और भी अधिक संतुलन की राजनीति की ओर बढ़ेगा, जहां वह अमेरिका, रूस और चीन तीनों से रिश्ते बनाए रखेगा।
चीन के लिए अवसर
बोल्टन का कहना सही है कि इस नीति ने चीन को एशिया में अधिक प्रभावशाली भूमिका निभाने का मौका दिया है। भारत को मनाने की बजाय अमेरिका की सख्त नीति ने उसे चीन की ओर झुकने का विकल्प खुला छोड़ा है।
रूस-भारत संबंधों का पुनर्जीवन
यूक्रेन युद्ध के बावजूद भारत और रूस के संबंध काफी मजबूत बने हुए हैं। अमेरिका की टैरिफ पॉलिसी ने भारत को रूस के साथ आर्थिक सहयोग बढ़ाने की और अधिक वजह दी है।
क्या भारत नए ब्लॉक की ओर बढ़ रहा है?
भारत की विदेश नीति हमेशा ‘मल्टी-अलाइनमेंट’ पर आधारित रही है। यानी भारत किसी एक धुरी में बंधा नहीं रहना चाहता। लेकिन हालिया घटनाक्रम बताते हैं कि भारत अमेरिका के दबाव में आने के बजाय अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दे रहा है।
रूस-चीन के साथ मंच साझा करना: भारत एससीओ, ब्रिक्स जैसे मंचों पर सक्रिय है, जो पश्चिमी देशों के लिए संतुलन का काम करते हैं।
अमेरिका के साथ रक्षा समझौते: वहीं दूसरी ओर भारत QUAD का हिस्सा है, जो इंडो-पैसिफिक में चीन को संतुलित करने के लिए बनाया गया है।
इसलिए यह कहना जल्दबाजी होगी कि भारत अमेरिका से दूर होकर पूरी तरह रूस-चीन के पाले में जा रहा है। बल्कि यह कहना सही होगा कि भारत अब और भी ज्यादा स्वतंत्र रुख अपनाते हुए ‘Issue-based partnership’ की ओर बढ़ रहा है।
राजनीतिक प्रभाव
बोल्टन का यह बयान अमेरिका की आंतरिक राजनीति में भी बड़ा मुद्दा बन सकता है। ट्रंप 2024 के राष्ट्रपति चुनाव में फिर से दावेदारी पेश कर रहे हैं और उनकी विदेश नीति पहले से ही विवादों में रही है। डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता बोल्टन के बयान का इस्तेमाल ट्रंप की आलोचना के लिए कर सकते हैं। भारत में भी यह मुद्दा राजनीतिक चर्चा का हिस्सा बन सकता है। मोदी सरकार इस बात को अपने कूटनीतिक संतुलन और वैश्विक नेतृत्व की रणनीति के उदाहरण के रूप में पेश कर सकती है।
निष्कर्ष
जॉन बोल्टन की टिप्पणी ने यह साफ कर दिया है कि अमेरिका की टैरिफ पॉलिसी केवल व्यापारिक मसला नहीं है, बल्कि यह वैश्विक शक्ति संतुलन को भी प्रभावित कर रही है। भारत के लिए यह चुनौती और अवसर दोनों है।
चुनौती इसलिए कि उसे अमेरिका के साथ संबंध बनाए रखने हैं, ताकि तकनीक और निवेश में साझेदारी बनी रहे। अवसर इसलिए कि वह इस स्थिति का लाभ उठाकर रूस और चीन से भी लाभकारी समझौते कर सकता है। भारत की विदेश नीति की असली ताकत यही है – संतुलन और स्वायत्तता। मौजूदा हालात में यह संतुलन और भी महत्वपूर्ण हो गया है। आने वाले महीनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अमेरिका अपनी टैरिफ पॉलिसी में नरमी दिखाता है या भारत एशियाई धुरी के साथ अपने संबंधों को और गहरा करता है।