विदुषी संवाद- भाग 2: धर्मपारायणता और चरित्र की प्रतिमूर्ति देवी शची की कहानी

भारतीय पौराणिक परंपरा में जिन नारी चरित्रों ने अपनी धर्मनिष्ठा, बुद्धिमत्ता और असाधारण चारित्रिक दृढ़ता से इतिहास रचा है, उनमें देवराज इंद्र की अर्धांगिनी और प्रजापति पुलोमा की पुत्री देवी शची का स्थान अत्यंत उच्च और प्रेरणादायी है।

विदुषी संवाद- भाग 2: धर्मपारायणता और चरित्र की प्रतिमूर्ति देवी शची की कहानी

देवी शची धर्मपरायणता और उत्कृष्ट चरित्र की एक श्रेष्ठ प्रतिमूर्ति हैं।

भारतीय पौराणिक परंपरा में जिन नारी चरित्रों ने अपनी धर्मनिष्ठा, बुद्धिमत्ता और असाधारण चारित्रिक दृढ़ता से इतिहास रचा है, उनमें देवराज इंद्र की अर्धांगिनी और प्रजापति पुलोमा की पुत्री देवी शची का स्थान अत्यंत उच्च और प्रेरणादायी है। ‘शची’ नाम स्वयं ही उनके गुणों के बारे में बताता है—जिसका अर्थ है सामर्थ्य, सत्यनिष्ठा, वाक्पटुता और पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली।

पुराणों के अनुसार, शची दैत्यराज पुलोमा की पुत्री थीं, इसीलिए उन्हें पुलोमजा भी कहा जाता है। एक अन्य कथा के अनुसार, उनका जन्म समुद्र मंथन के दौरान हुआ था। उनका विवाह देवताओं के राजा इंद्र से हुआ, जिसके पश्चात वह इंद्राणी के नाम से विख्यात हुईं। उन्हें ‘शची’ नाम इसलिए दिया गया क्योंकि उनमें सभी प्रकार का सामर्थ्य (शक्ति) विद्यमान था।

एक आदर्श पत्नी के रूप में इन्द्राणी गृह की अधिष्ठात्री और शालीनता की मूर्ति हैं। मान्यता है कि द्रौपदी का जन्म इन्हीं के अंश से हुआ था। इन्द्राणी स्वयं प्रकृति की उत्कृष्ट कला से उत्पन्न हुई थीं। अपने कार्यक्षेत्र में वे विजयिनी और सर्वस्वामिनी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ऋग्वेद के एक शक्तिसूक्त में वे अपने पराक्रम की घोषणा करते हुए कहती हैं — “मैं असपत्नी हूँ, सपत्नियों का नाश करने वाली हूँ। मेरे पुत्र शत्रुहंता हैं और मेरी पुत्री महान है।” विवाह से पूर्व शची ने भगवान शंकर से सुंदर पति, स्वेच्छानुसार रूप धारण करने की क्षमता तथा सुख आयु का वरदान प्राप्त किया था। ऋग्वेद में शची द्वारा रचित सूक्त मिलते हैं, जिनमें सपत्नियों के नाश की प्रार्थना की गई है (ऋचा, 10-159)। शची को ‘इन्द्राणी’, ‘ऐन्द्री’, ‘महेन्द्री’, ‘पुलोमजा’ और ‘पौलोमी’ जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता है। मेरुगिरि के शिखर पर स्थित अमरावती नामक रमणीय नगरी में विश्वकर्मा द्वारा निर्मित इन्द्र का भव्य महल था, जहाँ वे अपनी पत्नी शची के साथ निवास करते थे।

ऋग्वेद में ‘शची’ के रूप में शक्ति का महत्व सुंदर ढंग से व्यक्त किया गया है। इन्द्र को ‘शचीपति’ कहा गया है। पूर्ण सूक्त (10.159) में शची के गौरव का वर्णन है। इस सूक्त के एक मंत्र में उनका आत्मगौरव अद्वितीय है —
“अहं केतुरहं मूर्धाऽहमुग्रा विवाचनी।
ममेदनु क्रतुं पतिः सेहानाया उपाचरेत्॥”
(ऋग्वेद 10.159.2)
अर्थात् “मैं ज्ञान में अग्रगण्य हूँ, ध्वजा के समान हूँ, स्त्रियों में शिरोमणि हूँ। मैं उग्र और वाक्पटु हूँ। मेरी बुद्धि के अनुसार ही मेरा पति आचरण करे।”

देवी शची की धर्मपरायणता उनके जीवन का मूल आधार थी। देवलोक का राजसिंहासन संभालने वाले इंद्र के जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आए। कई बार वह स्वर्ग से हटाए भी गए। ऐसे में शची ने कभी भी अपने पति का साथ नहीं छोड़ा। वह केवल एक सहचरी ही नहीं, बल्कि एक मार्गदर्शक के रूप में हमेशा इंद्र के साथ खड़ी रहीं। जब इंद्र हजारों योनियों में भटक रहे थे, तब भी शची की निष्ठा और धैर्य अडिग रहा। उन्होंने सिद्ध किया कि सच्चा धर्म केवल सुख के समय में ही नहीं, बल्कि संकट की घड़ी में भी अपने कर्तव्यों का पालन करना है। शची का चरित्र उनकी अदम्य इच्छाशक्ति और तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण था। पुराणों में वर्णित एक प्रसिद्ध प्रसंग के अनुसार, देवराज इंद्र ने त्वष्टा के पुत्र भगवद्भक्त विश्वरूप का वध किया था। इसके कारण उन्हें ब्रह्महत्या का पाप लगा और उन्हें स्वर्ग छोड़कर जल में छिपकर रहना पड़ा। इस दौरान राजा नहुष ने स्वर्ग का सिंहासन संभाला। वह एक धर्म पारायण राजा थे पर स्वर्ग के अधिपति होते ही मदांध हो गए और इसी क्रम में नहुष ने शची को पाने की इच्छा प्रकट की। इस कठिन परिस्थिति में भी शची ने धैर्य नहीं खोया। वह वृहस्पति के पास गयी और देवताओं के परामर्शनुसार उन्होंने नहुष के समक्ष शर्त रखी कि वह उसी रथ में बैठकर आएं जिसे सप्तऋषि खींच रहे हों। नहुष ने अहंकारवश यह शर्त मान ली, किंतु ऋषियों के अपमान करने पर उसे श्राप मिला और उन्हें सर्प योनि में गिरना पड़ा और इंद्र पुनः अपना स्थान प्राप्त कर सके। यह घटना शची की दूरदर्शिता, चातुर्य और अडिग चरित्र का जीवंत उदाहरण है।

आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता

वर्तमान समय में, जहाँ चरित्र और नैतिक मूल्यों का ह्रास होता दिख रहा है, वहाँ देवी शची का जीवन एक मार्गदर्शक प्रकाशस्तंभ के समान है। उनका जीवन हमे सिखाता है कि धैर्य और बुद्धिमत्ता से हर संकट का सामना किया जा सकता है। निष्ठा और धर्मपरायणता सफलता और सम्मान का आधार हैं।

स्त्री शक्ति नम्रता के साथ-साथ दृढ़ संकल्प और चतुराई से भी परिपूर्ण होती है। इस प्रकार देवी शची धर्मपरायणता और उत्कृष्ट चरित्र की एक श्रेष्ठ प्रतिमूर्ति हैं। उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व इस सत्य का दर्शन कराता है कि वास्तविक शक्ति बाह्य आडंबर में नहीं, बल्कि आंतरिक चरित्रबल, अटूट निष्ठा और धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा में निहित होती है। वह नारी जाति के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त मानवता के लिए एक अनुकरणीय आदर्श हैं, जो यह संदेश देती हैं कि धर्म और सदाचार का मार्ग ही जीवन का सर्वोच्च मार्ग है।

(डा. आलोक कुमार द्विवेदी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्ञ में पीएचडी हैं। वर्तमान में वह KSAS, लखनऊ में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। यह संस्थान अमेरिका स्थित INADS, USA का भारत स्थित शोध केंद्र है। डा. आलोक की रुचि दर्शन, संस्कृति, समाज और राजनीति के विषयों में हैं।)

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