सुनहरी रोशनी में नहाया एक मंच और उस पर रखा चमचमाता सिक्का। यह सिक्का और डाक टिकट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जारी किया। मंच की ठंडी सतह पर उकेरी हुई गरिमा-भारत माता की छवि और उनके सम्मुख खड़े स्वयंसेवक। यह दृश्य किसी स्मारक से कहीं बढ़कर है। यह एक सदी का गीत है, एक सदी का तप है, एक सदी की राष्ट्र-आराधना है।
1925 की विजयादशमी की वह दोपहर याद आती है, जब नागपुर की गलियों में कुछ नौजवानों ने संकल्प लिया था। डॉ. हेडगेवार के नेत्रों में ज्वाला थी और हृदय में राष्ट्र का मर्म। उन्होंने शाखा की बंसी बजाई और पीढ़ियों ने उस धुन में अपने जीवन को गढ़ लिया। संघ के सौ वर्ष का यह सफर उसी पहली बंसी की गूंज है।
संघ पर कितने ही बार वज्रपात हुआ। 1948 में संदेह की छाया पड़ी, प्रतिबंध का बोझ लादा गया। हजारों स्वयंसेवक जेलों में डाले गए। घर टूटे, परिवार बिखरे। लेकिन राष्ट्र की जड़ें कभी उखड़ती हैं क्या? मिट्टी की हर बिंदी से नया अंकुर फूट कर बाहर आया। समाज ने भी देखा-संघ केवल संगठन नहीं, जीवनधारा है।
1975 का अंधकार जब आया, लोकतंत्र का गला घोंटा गया, तब सबसे पहले जिस दीप को बुझाने की कोशिश हुई, वह संघ का दीपक था। लेकिन, दीपक की लौ हवाओं से डरती नहीं। जेलों में बंद स्वयंसेवकों की सांसें भी स्वतंत्रता का गान गा रही थीं। इसके बाद जब अंधकार टूटा, तो लोगों ने पाया कि राष्ट्र की नब्ज जीवित रखने वाला यही संगठन था।
संघ की पहचान केवल संघर्षों से ही नहीं, सेवाओं से भी है। विभाजन की ज्वाला में जब पाकिस्तान से लहूलुहान कारवां सरहद पार आया, तो राहत शिविरों में सबसे पहले स्वयंसेवक खड़े थे। युद्धों के रण में सैनिकों के पीछे, बाढ़ और भूकंप की त्रासदी में गांव-गांव, गली-गली यही केसरिया दुपट्टा दिखाई देता रहा। उनका राष्ट्रवाद नारे से नहीं, सेवा की मिट्टी में खड़ा है।
इसके बाद आया सांस्कृतिक पुनर्जागरण का काल। अयोध्या की पुकार जब उठी, तो वह केवल ईंट और पत्थर का प्रश्न नहीं रहा। यह आत्मा की पुकार थी। लाखों स्वयंसेवक गांव-गांव, नगर-नगर से निकले। संतों ने उन्हें आशीर्वाद दिया और समाज ने कंधे से कंधा मिलाया। परिणाम स्वरूप वह सपना, जो सदियों से दबा पड़ा था, राष्ट्र की चेतना में फिर से जाग उठा।
इस पूरी यात्रा में एक और शक्ति थी-मातृशक्ति। जिन माताओं ने अपने पुत्र संघ को समर्पित किए, जिन बहनों ने अपने भाइयों को राष्ट्र की राह पर भेजा। मौसीजी केलकर से लेकर अनगिनत मातृरूपाओं तक, यह कहानी केवल पुरुषों की नहीं, परिवारों की भी है। वही मौन तपस्या संघ का सबसे बड़ा आधार बनी।
अब, जब शताब्दी का यह सिक्का हमारे सामने है, तो यह केवल चांदी या धातु का वजन नहीं। इसमें इतिहास की आहट है तो भविष्य का संकल्प भी है। इसमें 1925 की वह धुन है, जो नागपुर की शाखा से उठी थी। इसमें 1948 का दर्द है, 1975 का प्रतिरोध है, 1990 का सांस्कृतिक पुनर्जागरण है। इन सबसे इतर 2025 की आशा है-एक नए भारत की, आत्मविश्वासी भारत की, संगठित भारत की।
जब यह सिक्का आने वाली पीढ़ियों के हाथों में होगा, तो वे उसमें सिर्फ तस्वीर नहीं देखेंगे। वे सुनेंगे मातृभूमि का आह्वान, महसूस करेंगे स्वयंसेवकों की आहट और जान पाएंगे कि कोई विचार, कोई तप, कोई राष्ट्रभक्ति कभी मिटती नहीं। यह सिक्का बताता है कि संघ केवल संस्था नहीं, बल्कि युगों-युगों की साधना का प्रवाह है-नित नवीन, नित अमर।