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अमेरिका से मिला धोखा, अब भारत पर भरोसा, जानें कनाडा के प्रधानमंत्री कार्नी की दिल्ली यात्रा से क्या हैं उम्मीदें

फरवरी में प्रस्तावित कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी की भारत यात्रा ऐसी ही यात्रा मानी जा रही है, जहां उत्तरी अमेरिका का यह देश, जो अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र का हिस्सा रहा है, अब अपनी विदेश नीति की नई पटकथा लिखने जा रहा है।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
24 October 2025
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अमेरिका से मिला धोखा, अब भारत पर भरोसा, जानें प्रधानमंत्री कार्नी की दिल्ली यात्रा से क्य हैं उम्मीदें

कनाडा ने भी यह समझ लिया है कि अमेरिका से मिला धोखा अस्थायी था, लेकिन भारत पर भरोसा स्थायी है।

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विश्व राजनीति में गठबंधन बदलते रहते हैं, लेकिन कभी-कभी किसी एक यात्रा से भविष्य की दिशा तय हो जाती है। फरवरी में प्रस्तावित कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी की भारत यात्रा ऐसी ही एक यात्रा मानी जा रही है, जहां उत्तरी अमेरिका का यह देश, जो दशकों से अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र का हिस्सा रहा है, अब अपनी विदेश नीति की नई पटकथा लिखने जा रहा है।

कनाडा और अमेरिका के बीच जो संबंध अब तक प्राकृतिक साझेदारी कहे जाते थे, उनमें अब खटास खुलकर सामने आ चुकी है। वाशिंगटन के टैरिफ़ युद्धों और संरक्षणवादी नीतियों ने ओटावा को यह अहसास दिला दिया है कि भरोसा अब किसी एक देश पर नहीं, बल्कि स्थिर और समान साझेदारों पर होना चाहिए। उसके लिए भारत अपनी आर्थिक स्थिरता, तेज़ विकास दर और रणनीतिक स्वतंत्रता के कारण वही भरोसेमंद साझेदार बनता जा रहा है।

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टूटे रिश्तों की मरम्मत की शुरुआत

यह यात्रा ऐसे समय में हो रही है, जब भारत और कनाडा के रिश्ते जस्टिन ट्रूडो के शासनकाल में गंभीर रूप से बिगड़ चुके थे। ट्रूडो सरकार ने खालिस्तान समर्थक गतिविधियों को न केवल रोकने में विफलता दिखाई, बल्कि कई बार ऐसी बयानबाज़ी की, जिससे भारत की संप्रभुता पर प्रश्न उठे। बता दें कि पिछले वर्ष जब कनाडा ने ‘भारतीय एजेंसियों’ पर अपने एक खालिस्तानी नेता की हत्या का आरोप लगाया था, तब दोनों देशों के बीच कूटनीतिक रिश्ते लगभग टूटने की कगार पर पहुंच गए थे।

लेकिन, मार्क कार्नी ने प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद से इस दिशा को पलटना शुरू किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि कनाडा भारत जैसे लोकतांत्रिक और स्थिर देश के साथ टकराव की नीति जारी नहीं रख सकता। उनके शासन में ओटावा ने पहली बार यह स्वीकार किया है कि भारत से टकराव ने न केवल राजनीतिक नुकसान पहुंचाया, बल्कि हमने व्यापारिक अवसर भी खो दिए।

आर्थिक कारण: अमेरिका पर निर्भरता का संकट

कनाडा की अर्थव्यवस्था अब तक अमेरिकी बाजार पर ही निर्भर रही है। उसका लगभग 75 प्रतिशत निर्यात अमेरिका जाता है और दोनों देशों की आपूर्ति श्रृंखलाएं एक-दूसरे से गहराई तक जुड़ी हैं। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में अमेरिकी नीतियों में आए बदलावों ने इस व्यवस्था की नींव हिला कर रख दी है।

अमेरिका फर्स्ट नीति के नाम पर वाशिंगटन ने कनाडा के स्टील, एल्यूमिनियम, ऑटो पार्ट्स और कृषि उत्पादों पर अचानक टैरिफ़ लगा दिए। अमेरिका के इन कदमों से कनाडा के निवेश वातावरण पर गहरा प्रभाव पड़ा और विदेशी पूंजी अमेरिका की बजाय यूरोप और एशिया की ओर जाने लगी।

मार्क कार्नी, जो बैंक ऑफ़ इंग्लैंड और बैंक ऑफ़ कनाडा दोनों के गवर्नर रह चुके हैं, ने इस स्थिति का गहरा आर्थिक विश्लेषण किया। उन्होंने कहा कि अमेरिका के साथ हमारा रिश्ता कभी हमारी ताक़त था, लेकिन अब वही हमारी कमजोरी बन गया है। उनका यह कथन केवल शिकायत नहीं, बल्कि रणनीतिक बदलाव की घोषणा थी।

कार्नी की योजना स्पष्ट है, अगले दशक में अमेरिका से बाहर होने वाले कनाडाई निर्यात को दोगुना करना। इसके लिए दो दिशाएं तय की गई हैं: एशिया और अफ्रीका। इन दोनों महाद्वीपों में भारत का महत्व किसी भी अन्य देश से कहीं अधिक है।

भारत: भरोसे का नया केंद्र

भारत के साथ कनाडा के संबंध हमेशा से बहुआयामी रहे हैं। दोनों देशों के बीच शिक्षा, विज्ञान, कृषि, ऊर्जा और आप्रवासन जैसे विषयों पर सहयोग चलता रहा है। कनाडा में लगभग 14 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं, जो जनसंख्या का लगभग 4 प्रतिशत हैं। यही भारतीय प्रवासी समुदाय अब दोनों देशों के बीच पुल का काम कर रहा है।

मार्क कार्नी की भारत यात्रा उसी दिशा में एक निर्णायक कदम है। भारतीय उच्चायुक्त दिनेश पटनायक ने हाल ही में द ग्लोब एंड मेल को बताया कि दोनों देशों के बीच फिर से भरोसा बनाने की कोशिश जारी है। हमारा लक्ष्य है कि हम आर्थिक सहयोग को प्राथमिकता दें, राजनीति को नहीं।

पटनायक के मुताबिक भारत कनाडा में ऊर्जा और क्रिटिकल मिनरल्स जैसे लिथियम, निकल, कोबाल्ट में निवेश करने को तैयार है। ये वही संसाधन हैं जिनकी भारत को इलेक्ट्रिक वाहनों और सेमीकंडक्टर उद्योग के लिए ज़रूरत है। लेकिन, इसके लिए कनाडा को निवेश नियमों, पर्यावरण मानकों और स्थानीय समुदायों के अधिकारों पर स्पष्टता लानी होगी।

भारत और कनाडा के बीच व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता (CEPA) वर्षों से ठप पड़ा है। ट्रूडो सरकार ने इसे राजनीतिक कारणों से रोक दिया था। अब कार्नी सरकार इसे पुनर्जीवित करने की तैयारी में है। अगर यह समझौता होता है, तो द्विपक्षीय व्यापार अगले कुछ वर्षों में 50 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है।

AI Summit — तकनीक से परे कूटनीति का मंच

कार्नी की भारत यात्रा के दौरान वे AI Summit 2025 में भी हिस्सा लेंगे। यह सम्मेलन सिर्फ तकनीकी चर्चाओं का मंच नहीं, बल्कि वैश्विक कूटनीति का नया प्रतीक बन चुका है। भारत अब ‘AI for All’ नीति के माध्यम से यह दिखा रहा है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को सामाजिक कल्याण, शिक्षा, कृषि और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कैसे प्रयोग किया जा सकता है।

कनाडा कभी AI रिसर्च में अग्रणी था। लेकिन हाल के वर्षों में नीति, डेटा प्राइवेसी और निवेश के अभाव में वह पिछड़ गया है। ऐसे में भारत के साथ सहयोग कनाडा को फिर से वैश्विक तकनीकी मानचित्र पर लाने का अवसर देगा।

यहां आपको बता दें कि भारत में AI का विकास केवल कॉर्पोरेट दायरे में नहीं, बल्कि नीति के स्तर पर भी हो रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में कहा था कि AI इंसान का स्थान नहीं लेगा, बल्कि इंसान को सशक्त बनाएगा। उनका यह दृष्टिकोण पश्चिमी देशों की तुलना में कहीं अधिक संतुलित और मानवीय है। कार्नी जैसे व्यावहारिक नेता इस दृष्टिकोण से प्रभावित हैं।

रणनीतिक परतें: चीन, अमेरिका और भारत का त्रिकोण

कनाडा के लिए भारत की अहमियत केवल आर्थिक नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक भी है। अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने छोटे देशों के लिए नई चुनौतियां पैदा कर दी हैं। कार्नी जानते हैं कि चीन के साथ निवेश करना आर्थिक रूप से लाभकारी हो सकता है, लेकिन रणनीतिक रूप से जोखिम भरा है। वहीं भारत के साथ सहयोग स्थिरता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है।

कार्नी ने हाल ही में कहा था कि भारत और चीन, दोनों भविष्य की निर्णायक शक्तियां हैं। लेकिन भारत के साथ साझेदारी में स्थिरता है, जबकि चीन के साथ अनिश्चितता। उनका यह वक्तव्य उस नये ‘थिंकिंग शिफ्ट’ की झलक देता है, जहां पश्चिम अब भारत को सिर्फ एशियाई देश नहीं, बल्कि वैश्विक साझेदार के रूप में देख रहा है।

भारत की स्थिति: आत्मविश्वास और विश्वसनीयता

भारत ने पिछले कुछ वर्षों में जिस आत्मविश्वास और विवेकपूर्ण कूटनीति का प्रदर्शन किया है, उसने उसकी वैश्विक स्थिति को पूरी तरह बदल दिया है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने तटस्थ लेकिन प्रभावी रुख अपनाया, जिससे पश्चिम को यह समझ आया कि भारत अब किसी का पिछलग्गू नहीं है, बल्कि स्वतंत्र शक्ति है।

G20 की अध्यक्षता के दौरान भारत ने Global South की आवाज़ को केंद्र में रखा। अफ्रीकी संघ को G20 में शामिल कराने का निर्णय भारत की कूटनीतिक सफलता थी। इन सभी घटनाओं ने भारत को वैश्विक नैतिक नेतृत्व की स्थिति दी है।

कनाडा जैसे देश के लिए भारत के साथ साझेदारी का अर्थ है स्थिर लोकतंत्र, विशाल बाजार और नैतिक नेतृत्व का सम्मिलन। कार्नी यह भलीभांति समझते हैं कि अगर कनाडा को अपने आर्थिक विस्तार और रणनीतिक आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ना है, तो भारत जैसा सहयोगी अपरिहार्य है।

भविष्य की तस्वीर

अगर कार्नी की भारत यात्रा सफल रहती है, तो दोनों देशों के बीच केवल व्यापारिक नहीं, बल्कि रणनीतिक समझौते भी हो सकते हैं। शिक्षा, स्वच्छ ऊर्जा, डिजिटल अवसंरचना और खनिज संसाधनों के क्षेत्रों में संयुक्त परियोजनाएं शुरू हो सकती हैं। भारत के लिए यह अवसर है कि वह उत्तर अमेरिका में अपनी आर्थिक उपस्थिति को मज़बूत करे और कनाडा के लिए भी यह मौका कि वह अमेरिका की परछाई से बाहर निकलकर स्वतंत्र पहचान बनाए।

दूसरी ओर, भारत की Act West नीति को भी कनाडा के साथ नई गहराई मिल सकती है। कनाडा, नाटो का सदस्य होने के कारण पश्चिमी दुनिया में भारत के लिए एक प्रभावशाली पुल बन सकता है।

प्रतीकात्मक बदलाव

कार्नी की यात्रा का सबसे बड़ा महत्व शायद प्रतीकात्मक होगा। यह संदेश देगा कि 21वीं सदी के गठबंधन पुराने भरोसों पर नहीं, बल्कि नए विश्वासों पर टिके हैं। अमेरिका, जो कभी विश्व के लिए भरोसे का दूसरा नाम था, अब अपने हितों में इतना उलझ चुका है कि उसके सहयोगी भी असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। कनाडा ने यह बात सबसे पहले महसूस की।

भारत, जो कभी विकासशील देशों की पंक्ति में खड़ा था, आज वही देश है जिस पर विकसित राष्ट्र भरोसा करने लगे हैं। यह बदलाव किसी संयोग का परिणाम नहीं, बल्कि भारत की सतत नीति, स्थिर शासन और अंतरराष्ट्रीय सम्मान का परिणाम है।

भरोसे की नई धुरी

मार्क कार्नी की भारत यात्रा इतिहास के उस मोड़ पर हो रही है, जहां पुराने गठबंधन ढह रहे हैं और नए भरोसे जन्म ले रहे हैं। यह यात्रा उस परिवर्तन का संकेत है, जिसमें पश्चिमी दुनिया अब भारत को केवल बाज़ार नहीं, बल्कि साझेदार के रूप में देखने लगी है।

कनाडा ने अमेरिका से निराश होकर जो रास्ता चुना है, वह केवल आर्थिक विवशता नहीं, बल्कि रणनीतिक बुद्धिमत्ता का भी परिचायक है। भारत ने बार-बार यह सिद्ध किया है कि वह वैश्विक व्यवस्था में विश्वसनीय, स्वतंत्र और नैतिक शक्ति के रूप में उभर रहा है।

अगर फरवरी में दोनों देशों के बीच व्यापारिक या निवेश समझौते पर हस्ताक्षर होते हैं, तो यह न केवल आर्थिक उपलब्धि होगी, बल्कि भू-राजनीतिक पुनर्संतुलन का संकेत भी। तब यह कहा जा सकेगा कि दुनिया की कूटनीतिक धुरी अब धीरे-धीरे पश्चिम से पूर्व की ओर घूम रही है। और इस नई दिशा में भारत केवल भागीदार नहीं, बल्कि प्रेरक शक्ति है। कनाडा ने भी यह समझ लिया है कि अमेरिका से मिला धोखा अस्थायी था, लेकिन भारत पर भरोसा स्थायी है।

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