बिहार की सियासत हमेशा से देश में सबसे अधिक जीवंत और विवादास्पद रही है। यहां राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि अस्तित्व की जंग भी है, जहां हर चुनाव एक आंदोलन की तरह लड़ा जाता है और हर नेता खुद को जनता का मसीहा बताने की कोशिश करता है। इसी परंपरा के बीच पूर्णिया के सांसद और जन अधिकार पार्टी के प्रमुख पप्पू यादव ने वैशाली के गनियारी गांव में जो किया, उसने एक बार फिर यह सवाल उठा दिया है कि क्या भारत में आदर्श चुनाव आचार संहिता अब महज एक औपचारिकता बनकर रह गई है?
वैशाली के सहदेई प्रखंड में गंगा के कटाव ने सैकड़ों परिवारों की ज़मीन, घर और उम्मीद सब कुछ निगल लिया है। विस्थापित लोग तिरपालों और टूटी नावों के सहारे अपनी ज़िंदगी समेटने की कोशिश में हैं। ऐसे में पप्पू यादव अपने समर्थकों के साथ वहां पहुंचे और करीब अस्सी परिवारों को चार-चार हजार रुपये नकद दिए। इस दौरान वहां पर कैमरे भी मौजूद थे और मीडिया के सवाल भी। लेकिन, जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्हें यह एहसास है कि आचार संहिता के दौरान ऐसा करना सीधा उल्लंघन है, तो उन्होंने जो जवाब दिया, वही इस पूरे विवाद की धुरी बन गया। चुनाव आयोग के डर से गरीब की मदद करना बंद नहीं करूंगा। जिसको जो करना है करे।
आचार संहिता का उड़ा उपहास
उनका यह बयान सिर्फ एक चुनौती नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मूल आत्मा पर चोट है। क्योंकि चुनावी आचार संहिता की बुनियाद ही इस विचार पर टिकी है कि कोई भी नेता या पार्टी अपने संसाधनों का दुरुपयोग कर मतदाताओं को प्रभावित नहीं करेगी। यह नियम उस संतुलन को बनाए रखने के लिए है, जो अमीर और गरीब उम्मीदवार के बीच समान प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करता है। लेकिन जब कोई सांसद खुलेआम नकद सहायता बांटता है और इसे मानवीय मदद का नाम देता है, तो यह उस पूरी संवैधानिक अवधारणा का उपहास है, जिसके लिए आचार संहिता बनी थी।
पप्पू यादव का तर्क भावनात्मक है और यही उसकी सबसे बड़ी ताकत भी। वे कहते हैं कि लोग मर रहे हैं, घर बह गए हैं, कोई नेता नहीं आया, प्रशासन मूक है, तो क्या मैं सिर्फ इसलिए मदद न करूं क्योंकि चुनाव घोषित हो गया है? यह सवाल सीधा जनता के दिल को छूता है। एक भूखे व्यक्ति के लिए कानून और करुणा में फर्क नहीं होता, उसके लिए जो उसे दो वक्त का सहारा दे दे, वही भगवान है। लेकिन राजनीति में यही भावनात्मक समीकरण खतरनाक मोड़ ले लेते हैं। क्योंकि अगर हर नेता “गरीब की मदद” के नाम पर चुनावी क्षेत्र में नकद बांटना शुरू कर दे, तो फिर चुनाव निष्पक्षता का अर्थ ही खो बैठेगा।
क्या कहता है कानून
भारत के चुनावी कानून इसीलिए बेहद स्पष्ट हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 171-B और 171-E के तहत किसी भी मतदाता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक लाभ या उपहार देने को ब्राइबरी यानी रिश्वत माना गया है। यह रिश्वत केवल तब नहीं होती जब कोई व्यक्ति वोट की मांग करे, यह अपराध तब भी है जब कोई ऐसा लाभ देता है जिससे मतदाता की निष्ठा या निर्णय प्रभावित हो सकता हो। पप्पू यादव का यह कदम इसी श्रेणी में आता है। वे सांसद हैं, और जनता के बीच जाकर नकद बांटना, चाहे वे खुद उसे राहत कहें या दया, कानून की नजर में अपराध ही है।
लेकिन, यहां पर सिर्फ कानून का उल्लंघन नहीं हुआ? यहां लोकतंत्र की नैतिकता भी घायल हुई है। क्योंकि जब कोई सांसद कहता है कि जिसको जो करना है करे, तो वह सिर्फ चुनाव आयोग को नहीं, बल्कि उस लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती दे रहा होता है जिसने उसे संसद तक पहुंचाया। आचार संहिता कोई सरकारी हुक्म नहीं, बल्कि एक लोक-संविधान है, एक नैतिक अनुबंध जो नेताओं को यह याद दिलाता है कि सत्ता सेवा के लिए है, प्रदर्शन के लिए नहीं।
पप्पू यादव के इस कृत्य का दूसरा पहलू राजनीतिक है। उन्होंने मौके पर चिराग पासवान और नित्यानंद राय पर जमकर हमला बोला। उन्होंने कहा कि आपके पैसों से सौ हेलीकॉप्टर उड़ेंगे, अरबों रुपये चुनाव में खर्च होंगे, लेकिन गरीबों की सुध लेने कोई नहीं आता। इस वक्तव्य का एक हिस्सा सही भी है, यह सच है कि चुनावों में बेहिसाब पैसा बहाया जाता है और जनता की समस्याएं हाशिए पर ही रहती हैं। लेकिन जब इसी तर्क का इस्तेमाल कर कोई नेता खुद कानून तोड़ता है, तो वह न केवल अपने प्रतिद्वंद्वियों को बल्कि खुद अपने नैतिक आधार को भी खो देता है।
यहां बता दें कि पप्पू यादव की राजनीति हमेशा से जनभावना की राजनीति रही है। वे सड़कों पर उतरने वाले, बाढ़ग्रस्त इलाकों में पहुंचने वाले, एंबुलेंस चलाने वाले नेता हैं और इस वजह से जनता के बीच उनकी एक अलग छवि भी है। लेकिन जब यह छवि मदद से आगे बढ़कर प्रभाव में बदलने लगती है, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर बोझ डालती है। जनता की पीड़ा, जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार की जिम्मेदारी होती है, अब नेताओं के लिए प्रचार का उपकरण बनती जा रही है। दरअसल, यही भारत की सियासत की सबसे बड़ी विडंबना है।
चुनाव आयोग की भूमिका भी कसौटी पर
इस पूरे मामले में चुनाव आयोग की भूमिका भी कसौटी पर है। यह घटना किसी गुप्त अभियान की तरह नहीं हुई, बल्कि खुलेआम कैमरे के सामने हुई है। जब खुद नेता स्वीकार कर रहा है कि उसने पैसे बांटे, तो आयोग के पास कार्रवाई करने का पूरा आधार है। लेकिन, अगर आयोग इस पर सिर्फ चेतावनी देकर या अनदेखी कर आगे बढ़ गया, तो यह मिसाल हर राज्य में दोहराई जाएगी। तब हर नेता यही कहेगा कि हम तो मानवीय मदद कर रहे हैं और आचार संहिता एक औपचारिक दस्तावेज बनकर रह जाएगी।
बिहार की राजनीति का इतिहास बताता है कि यहां जनता की भावनाओं के साथ खेलने की कला नेताओं को बखूबी आती है। हर बाढ़, हर आपदा, हर विस्थापन, एक राजनीतिक अवसर बन जाता है। पप्पू यादव का यह कदम भी उसी परंपरा की अगली कड़ी है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि उन्होंने इसे स्वीकार करने में भी कोई झिझक नहीं दिखाई। उन्होंने जो किया, उसे साहस के रूप में प्रस्तुत किया, जैसे नियम तोड़ना किसी नैतिक अधिकार का प्रदर्शन हो।
क्या कानून से कानून से ऊपर हो सकती है संवेदना?
लेकिन सवाल यही है कि क्या लोकतंत्र में संवेदना कानून से ऊपर हो सकती है? क्या कोई सांसद यह तय करेगा कि कब नियम लागू होंगे और कब नहीं? अगर ऐसा हुआ, तो लोकतंत्र का ढांचा भावनाओं की भीड़ में ढह जाएगा। क्योंकि फिर चुनाव कानूनों का पालन करने वाले ईमानदार उम्मीदवार कमजोर पड़ जाएंगे और जो गरीबों की मदद के नाम पर पैसे बांटेंगे, वे जनता की करुणा को अपने पक्ष में मोड़ लेंगे।
गनियारी गांव के पीड़ितों ने कहा कि अब तक हमारी सहायता करने कोई नहीं आया, सिर्फ पप्पू यादव मदद कर रहे हैं। यह वाक्य जितना मार्मिक है, उतना ही दर्दनाक भी। यह हमारे सिस्टम की असफलता की गवाही है कि जहां राज्य नहीं पहुंचता, वहां नेता अपनी जेब लेकर पहुंचते हैं। लेकिन, इस असफलता की भरपाई नियम तोड़कर नहीं की जा सकती। राहत व्यवस्था में सुधार की मांग की जा सकती है, प्रशासन पर सवाल उठाए जा सकते हैं, संसद में आवाज उठाई जा सकती है, लेकिन नकद वितरण लोकतंत्र की भाषा नहीं है।
अब देखना यह है कि चुनाव आयोग क्या रुख अपनाता है। क्या वह इस मामले को उदाहरण बनाकर सख्त कार्रवाई करेगा या फिर राजनीतिक प्रभाव के दबाव में इसे मानवीय सहायता मानकर छोड़ देगा? अगर आयोग ने इस बार भी ढिलाई दिखाई, तो आने वाले वर्षों में हर चुनाव राहत शिविरों और नकद वितरण के बीच फंसा रहेगा।
पप्पू यादव का यह प्रकरण केवल बिहार की राजनीति का एक विवाद नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक चेतावनी है कि अगर भावनात्मक राजनीति को कानून से ऊपर रखा गया, तो लोकतंत्र धीरे-धीरे करुणा के नाम पर भ्रष्टाचार में बदल जाएगा।
हां, एक बात और लोकतंत्र संवेदना का शत्रु नहीं है, लेकिन संवेदना की आड़ में कानून तोड़ना लोकतंत्र का अपमान है। मदद की भावना पवित्र है, लेकिन अगर वह वोट की दिशा बदल दे, तो वह परोपकार नहीं, प्रलोभन है। यही इस पूरी घटना की असली त्रासदी है कि बिहार के एक गांव में करुणा और कानून आमने-सामने खड़े हैं, और जनता अब भी यह तय नहीं कर पा रही कि किसे सही माने।