कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार के लिए यह क्षण किसी राजनीतिक झटके से कम नहीं है। राज्य की धारवाड़ बेंच ने सरकार के उस विवादास्पद सरकारी आदेश पर रोक लगा दी है, जिसमें सार्वजनिक स्थलों पर दस से अधिक लोगों के एकत्र होने पर प्रतिबंध लगाया गया था। यह वही आदेश था जो कांग्रेस सरकार ने हाल ही में जारी किया था और जो स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शताब्दी यात्रा और संघ को रोकने के उद्देश्य से लाया गया था। न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना ने जब यह कहा कि यह आदेश नागरिकों को संविधान के अध्याय-III में मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो यह सिर्फ एक न्यायिक टिप्पणी नहीं थी। यह लोकतंत्र की आत्मा की रक्षा का घोष था।
सिद्धारमैया सरकार की मंशा साफ थी। जिस दिन आरएसएस ने अपने 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में मार्ग-संघ और जनसभाओं की घोषणा की, उसी के तुरंत बाद सरकार ने कानून-व्यवस्था के नाम पर यह आदेश जारी कर दिया। कांग्रेस का यह कदम न तो प्रशासनिक था और न ही संवैधानिक। यह एक वैचारिक प्रतिशोध था, उस संगठन के खिलाफ जिसने राष्ट्र के लिए अनुशासन, समर्पण और सेवा का एक आदर्श स्थापित किया है।
न्यायपालिका बनाम राजनीति की संकीर्णता
कर्नाटक हाईकोर्ट ने जब यह कहा कि किसी कार्यपालिका आदेश से नागरिकों के मौलिक अधिकार छीने नहीं जा सकते, तो यह टिप्पणी संविधान की आत्मा को पुनः जीवित करने वाली थी। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और 19(1)(b) नागरिकों को वाणी की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण सभा का अधिकार देते हैं। यह वे अधिकार हैं जिन पर न कोई मुख्यमंत्री की कलम चल सकती है, न कोई पार्टी की विचारधारा।
फिर भी कांग्रेस ने वही किया, जिसकी उसे आदत है। लोकतंत्र को अपनी सुविधा के अनुसार मोड़ना। यह आदेश पुलिस अधिनियम या विधायी प्रक्रिया से नहीं आया था, बल्कि सीधे एक कार्यपालिका आदेश के रूप में थोप दिया गया था। यह किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की आत्मा के साथ सबसे बड़ा मज़ाक था। अदालत ने यह भली-भांति समझ लिया कि यह कोई सामान्य प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि एक वैचारिक गैग ऑर्डर था। विशेष रूप से आरएसएस के खिलाफ।
आरएसएस: कांग्रेस की असहजता का शाश्वत प्रतीक
कांग्रेस का आरएसएस के प्रति वैचारिक शत्रुत्व नया नहीं है। आज़ादी के बाद से ही वह इस संगठन को राजनीतिक खतरे के रूप में देखती रही है, जबकि हकीकत यह है कि आरएसएस ने राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति में योगदान दिया है। चाहे 1962 का भारत-चीन युद्ध हो, 1965 या 1971 का पाकिस्तान के साथ संघर्ष। आरएसएस के स्वयंसेवकों ने सीमाओं पर सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। 2001 के गुजरात भूकंप से लेकर 2013 की केदारनाथ आपदा तक, हर जगह यही संगठन सबसे पहले राहत सामग्री और सहायता लेकर पहुंचा।
कांग्रेस की समस्या यह नहीं कि आरएसएस कुछ गलत कर रहा है, उसकी समस्या यह है कि आरएसएस समाज में राष्ट्रवाद, अनुशासन और आत्मबल का वह भाव भरता है जो कांग्रेस के तुष्टिकरण-आधारित राजनीतिक समीकरणों को चुनौती देता है।
सिद्धारमैया सरकार की दोहरी नीति
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने जब विरोध बढ़ा तो यह कहकर बचाव किया कि यह तो भाजपा के समय का पुराना नियम है, तो यह बचाव खुद अपनी ही कब्र खोदने जैसा था। अदालत ने स्पष्ट कहा कि पुलिस अधिनियम के अंतर्गत पहले से ही ऐसे प्रावधान मौजूद हैं और किसी सरकार को उनकी आड़ में नया राजनीतिक आदेश जारी करने का अधिकार नहीं है। सिद्धारमैया का तर्क यह दिखाने के लिए पर्याप्त था कि यह कदम प्रशासनिक नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रेरणा से लिया गया था।
यह वही सरकार है जो राज्य में तेजी से बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा, जातीय टकराव, और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई है। बेलगाम, मंगलुरु और शिवमोग्गा जैसे इलाकों में बार-बार होने वाले सांप्रदायिक दंगे यह साबित करते हैं कि प्रशासन का ध्यान शासन पर नहीं, प्रतिशोध पर है।
कांग्रेस के मंत्रियों की आरएसएस फोबिया
राज्य के आईटी मंत्री प्रियांक खड़गे का बयान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। उन्होंने खुलेआम कहा कि सरकारी स्कूलों और मंदिरों में आरएसएस की गतिविधियों पर रोक लगनी चाहिए, क्योंकि उनके अनुसार यह संगठन बच्चों का ब्रेनवॉश करता है। यह वही संगठन है, जिसने लाखों युवाओं को राष्ट्रसेवा के लिए प्रेरित किया, जिन्होंने बिना किसी सरकारी सहायता के गांवों, जंगलों और सीमावर्ती इलाकों में सामाजिक परिवर्तन का काम किया।
मुख्यमंत्री स्वयं ने डॉ. भीमराव अंबेडकर और संविधान के प्रति आरएसएस की भूमिका को गलत ठहराने की कोशिश की, मानो वे अपने राजनीतिक असफलताओं की भरपाई वैचारिक झूठ से करना चाहते हों। यह वही कांग्रेस है, जो खुद आपातकाल के दौरान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट चुकी है और अब वही परंपरा दोहराने की कोशिश कर रही है।
अदालत का हस्तक्षेप: लोकतंत्र का पुनर्जागरण
हाईकोर्ट का यह फैसला केवल कानूनी राहत नहीं, बल्कि वैचारिक पुनर्जागरण है। यह बताता है कि भारत का संविधान किसी भी पार्टी या विचारधारा का निजी उपकरण नहीं, बल्कि नागरिक स्वतंत्रता का शाश्वत दस्तावेज़ है। न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना ने जब कहा कि मौलिक अधिकार कार्यपालिका आदेश से नहीं छीने जा सकते, तो यह केवल विधिक व्याख्या नहीं, बल्कि एक नैतिक आदेश था। सरकारों के लिए भी और समाज के लिए भी।
याचिकाकर्ताओं पुनश्चेतना सेवा संस्था और वी केयर फाउंडेशन ने जब यह मुद्दा उठाया कि यह आदेश सुबह की सैर, हंसी क्लब या किसी सामुदायिक कार्यक्रम जैसे सामान्य कार्यों को भी गैरकानूनी बना देगा, तो यह बात न्यायपालिका के हृदय को छू गई। अदालत ने कहा कि सार्वजनिक स्थल जनता के हैं, किसी सरकार की संपत्ति नहीं।
कांग्रेस का असली डर
कांग्रेस का असली भय यह है कि आरएसएस जैसी राष्ट्रवादी संस्थाएं समाज में उस ऊर्जा का संचार कर रही हैं, जिसे कांग्रेस के वोट बैंक की राजनीति दबा नहीं पा रही। आज आरएसएस न केवल ग्रामीण भारत में बल्कि शहरी युवाओं के बीच भी प्रेरणा का केंद्र बन चुका है। शिक्षा, पर्यावरण, आत्मनिर्भरता और सेवा के क्षेत्र में उसकी भूमिका निर्विवाद है।
जब समाज राष्ट्रवाद के विचार के इर्द-गिर्द संगठित होता है, तो राजनीति का झूठ नंगा हो जाता है। इसलिए कांग्रेस अब संगठन विरोधी प्रशासनिक आदेशों के सहारे उस विचारधारा को रोकने की कोशिश कर रही है, जिसे रोकना अब असंभव है।
भाजपा और समाज की प्रतिक्रिया
पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार ने ठीक ही कहा कि भ्रष्टाचार और प्रशासनिक विफलता से ध्यान भटकाने के लिए सिद्धारमैया आरएसएस पर बेबुनियाद हमले कर रहे हैं। उनका यह कथन सिर्फ राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि कर्नाटक के वर्तमान हालात का वास्तविक चित्रण है।
कांग्रेस की सरकार विकास की बजाय विभाजन पर केंद्रित है। जब राज्य में निवेशक बाहर जा रहे हैं, उद्योग ठप पड़ रहे हैं और बेरोजगारी बढ़ रही है, तब सरकार का ध्यान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ बयानबाज़ी पर लगा हुआ है।
अदालत का फैसला: राष्ट्रवाद की वैचारिक विजय
कर्नाटक हाईकोर्ट का यह आदेश भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ता है। यह साबित करता है कि भारत का संविधान किसी पार्टी का नहीं, बल्कि जनता का है। यह निर्णय बताता है कि किसी भी सरकार को नागरिकों के अधिकारों पर सेंसर लगाने की अनुमति नहीं दी जा सकती, चाहे वह कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हो या किसी और बहाने से। हाईकोर्ट का यह आदेश आरएसएस के लिए नहीं, बल्कि हर नागरिक के लिए विजय है, उस स्वतंत्रता की विजय जो भारत के संविधान ने दी है।
सिद्धारमैया सरकार ने एक बार फिर दिखाया है कि उसके लिए सत्ता साधन नहीं, साध्य है। जब भी राष्ट्रवादी विचार समाज में प्रबल होते हैं, कांग्रेस उसे खतरे के रूप में देखती है। लेकिन, न्यायपालिका ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि भारत में लोकतंत्र का अंतिम प्रहरी अब भी मजबूत है। हाईकोर्ट की यह रोक केवल 17 नवम्बर तक अस्थायी नहीं है। यह एक प्रतीक है कि न्याय अब भी जीवित है और संविधान के अनुच्छेद 19 का अर्थ सिर्फ कागज़ पर नहीं, बल्कि समाज में सांस लेता है।
आज यह फैसला केवल कर्नाटक या आरएसएस का मुद्दा नहीं, यह हर उस भारतीय का है जो यह मानता है कि भारत की आत्मा राष्ट्रवाद में बसती है और उसे दबाने की कोशिश करने वाला कोई भी आदेश, कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः अदालत की दहलीज़ पर टिक नहीं पाएगा।




























