दत्तोपंत ठेंगड़ी: भारत के स्वदेशी श्रम आंदोलन के रचनाकार को नमन
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दत्तोपंत ठेंगड़ी: भारत के स्वदेशी श्रम आंदोलन के रचनाकार को नमन

जब देश का श्रमिक आंदोलन विदेशी मार्क्सवादी विचारों की गिरफ्त में था, तब ठेंगड़ी जी ने भारत को उसकी आत्मा से जोड़ने वाला नया मार्ग दिखाया।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
14 October 2025
in इतिहास, चर्चित, ज्ञान, धर्म, भारत, राजनीति, संस्कृति
दत्तोपंत ठेंगड़ी: भारत के स्वदेशी श्रम आंदोलन के रचनाकार को नमन

ठेंगड़ी जी का मस्तिष्क जितना संगठनात्मक था, उतना ही दार्शनिक भी।

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दत्तोपंत ठेंगड़ी का जीवन और उनका कार्य केवल एक विचारधारा या संगठन की सीमाओं में नहीं बंधा। वे केवल एक ट्रेड यूनियनिस्ट नहीं थे, न ही केवल एक समाज सुधारक। वे एक ऐसे दूरदर्शी व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत में श्रम, राष्ट्रवाद और आत्मनिर्भरता के अर्थ को दोबारा परिभाषित किया।

जब देश का श्रमिक आंदोलन विदेशी मार्क्सवादी विचारों की गिरफ्त में था, तब ठेंगड़ी जी ने भारत को उसकी अपनी सभ्यतागत आत्मा से जोड़ने वाला एक नया मार्ग दिखाया। उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद को व्यवहार में उतारा और एक ऐसी श्रमिक चेतना का निर्माण किया जो न पूंजीवादी थी, न साम्यवादी, बल्कि भारतीय और मानवीय थी। उनकी पुण्यतिथि पर यह आवश्यक है कि हम स्मरण करें। उस महामानव को, जिसने भारत के श्रमिक वर्ग को ‘वर्ग संघर्ष’ नहीं, बल्कि ‘राष्ट्र निर्माण’ का साधन बनाया।

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क्रांतिकारी प्रचारक का निर्माण

10 नवम्बर 1920 को महाराष्ट्र के वर्धा ज़िले के आरवी नगर में जन्मे दत्तात्रय बापूराव ठेंगड़ी बचपन से ही नेतृत्व के गुणों से संपन्न थे। सिर्फ 15 वर्ष की उम्र में वे वानर सेना और विद्यालय की छात्रसंघ के अध्यक्ष बन चुके थे। 1936 से 1938 के बीच वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) से जुड़े, वही संगठन जिसने भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों को जन्म दिया था।

ठेंगड़ी जी का दृष्टिकोण गुरुजी गोलवलकर, पंडित दीनदयाल उपाध्याय और डॉ. भीमराव अंबेडकर इन तीन महान विभूतियों के विचारों से गहराई से प्रभावित था। 1942 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रचारक के रूप में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। केरल से लेकर बंगाल और असम तक उन्होंने संगठन खड़ा किया, विचार जागृत किए और सेवा के माध्यम से राष्ट्रवाद की चेतना फैलायी।

उस दौर में जब दुनिया “लाल विचार” से मंत्रमुग्ध थी और भारत के मजदूर आंदोलनों में “लाल किला हमारा, लाल निशान हमारा” के नारे गूंजते थे। ठेंगड़ी ने साहसपूर्वक उस प्रवाह के विपरीत तैरने का निश्चय किया। उनका विश्वास था कि भारत को किसी विदेशी विचारधारा की नहीं, अपनी आत्मा से उपजी श्रमिक चेतना की आवश्यकता है।

भारतीय मजदूर संघ का जन्म: भगवा चेतना की क्रांति

वर्ष 1955, यह भारतीय श्रमिक इतिहास का एक निर्णायक वर्ष था। इसी वर्ष दत्तोपंत ठेंगड़ी ने स्थापित किया भारतीय मजदूर संघ। एक ऐसा संगठन जिसने भारत के श्रमिक आंदोलन को “लाल संघर्ष” से निकालकर “राष्ट्रीय सेवा” के मार्ग पर अग्रसर किया।

उनका नारा था लाल गुलामी छोड़ो, बोलो वंदे मातरम्! यह केवल एक नारा नहीं, बल्कि मानसिक स्वतंत्रता का उद्घोष था। मार्क्स के “Workers of the world, unite!” के स्थान पर ठेंगड़ी जी ने दिया भारतीय मंत्र “Workers, unite the world!” यानी संघर्ष नहीं, समरसता। विभाजन नहीं, एकीकरण। उनके नेतृत्व में BMS ने पहली बार मजदूर आंदोलन में “भारत माता की जय” और “वंदे मातरम्” जैसे राष्ट्रगीतों को स्थान दिया गया, जो पहले वामपंथी यूनियनों में वर्जित माने जाते थे।

उनका सिद्धांत तीन सूत्रों में समाहित था

श्रमिकों का राष्ट्र्रीकरण (Nationalisation of Workers)

राष्ट्र का औद्योगिकीकरण (Industrialisation of the Nation)

उद्योगों का श्रमीकीकरण (Labourisation of Industries)

यह त्रिवेणी श्रमिकों का राष्ट्र्रीकरण, राष्ट्र का औद्योगिकीकरण और उद्योगों का श्रमीकीकरण ही भारतीय श्रम दर्शन की आत्मा बन गई।

विदेशी ‘इज़्म’ का विकल्प: भारतीय श्रम का स्वदेशी मार्ग

ठेंगड़ी जी ने 1968 में महाराष्ट्र में दिए एक भाषण में कहा था यदि एक ही काल में विभिन्न समाज भिन्न परिस्थितियों में जी रहे हैं, तो उनके लिए एक ही ‘इज़्म’ (वाद) कैसे लागू हो सकता है? विचार स्थायी नहीं, परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील होना चाहिए।”

उनका यह कथन केवल मार्क्सवाद की अस्थिरता पर प्रहार नहीं था, बल्कि भारतीय चिंतन की लचीलापन और मानव-केन्द्रितता का दार्शनिक प्रतिपादन था। उनका मानना था कि भारत का श्रमिक संघर्ष किसी वर्ग विशेष का आंदोलन नहीं, बल्कि सामूहिक upliftment का राष्ट्रीय अभियान है। उनके लिए मजदूर का सम्मान और राष्ट्र का उत्थान — एक ही प्रक्रिया के दो पक्ष थे।

संगठन निर्माता, विचार निर्माता, युग निर्माता

ठेंगड़ी जी केवल BMS तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने अपने जीवनकाल में दर्जनों संगठन और मंच खड़े किए, जो आज भी भारत के सामाजिक-आर्थिक चिंतन को दिशा दे रहे हैं।

भारतीय किसान संघ (1979) — किसानों के स्वावलंबन और सम्मान के लिए।

स्वदेशी जागरण मंच (1991) — आर्थिक उपनिवेशवाद के विरुद्ध आंदोलन।

सामाजिक समरसता मंच, सर्वपंथ सम्मान मंच, पर्यावरण मंच — सामाजिक समरसता और पर्यावरणीय संतुलन के लिए। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, भारतीय विचार केंद्र, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत ताकि समाज के हर वर्ग तक राष्ट्र चेतना पहुंचाने के साधन।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उन्होंने भारत की आवाज़ बुलंद की। मॉस्को में वामपंथियों के गढ़ World Federation of Trade Unions की बैठक में उन्होंने प्रस्ताव रखा कि एक अराजनीतिक, श्वेत ध्वज वाले वैश्विक श्रमिक संघ की स्थापना की जाए, जो शांति और समरसता का प्रतीक हो। हालांकि, उनका प्रस्ताव खारिज हो गया, लेकिन वे रुके नहीं। उन्होंने General Confederation of World Trade Unions की स्थापना की, जहां लाल झंडे की जगह सफेद झंडा शांति का प्रतीक बना।

1989 में भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने BMS को देश का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन घोषित किया। यह ठेंगड़ी जी के अथक परिश्रम और संगठन कौशल का प्रमाण था। यहां तक कि 1985 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी BMS के प्रतिनिधिमंडल को आमंत्रित किया। एक ऐसा सम्मान जो इससे पहले किसी राष्ट्रवादी श्रमिक संगठन को प्राप्त नहीं हुआ था।

विचारक, राष्ट्रभक्त और ‘थर्ड वे’ के दार्शनिक

ठेंगड़ी जी का मस्तिष्क जितना संगठनात्मक था, उतना ही दार्शनिक भी। वे दो बार राज्यसभा सदस्य रहे (1964–1976), लेकिन उन्होंने कभी मंत्री पद या व्यक्तिगत सम्मान स्वीकार नहीं किया। यहां तक कि उन्हें जब पद्म विभूषण देने की पेशकश हुई, तो उन्होंने विनम्रता से इसे अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उनके लिए सेवा ही सर्वोच्च पुरस्कार था।

1968 में ही उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि सोवियत साम्यवाद का पतन निश्चित है और यह भविष्यवाणी 1991 में सच साबित हुई। वे सट्टेबाज़ पूंजीवाद और कृत्रिम आर्थिक सट्टे के घोर विरोधी थे। उन्होंने स्वावलंबी अर्थव्यवस्था, ग्राम उद्योग, और आत्मनिर्भरता को ही भारतीय विकास का सही मार्ग बताया।

उनकी 100 से अधिक रचनाएं कार्यकर्ता, थर्ड वे, ऑन रिवोल्यूशन, प्रेफेसेस इन हिंदू इकोनॉमिक्स, डॉ. आंबेडकर, आदि भारत के आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक विमर्श की धरोहर हैं। उनकी अंतिम कृति, जो जुलाई 2004 में लिखी गई, डॉ. भीमराव अंबेडकर पर थी, जिसमें उन्होंने अंबेडकर को भारतीय दृष्टि से पुनः प्रस्तुत किया। 14 अक्टूबर 2004 को मस्तिष्क रक्तस्राव के कारण उनका निधन हो गया, लेकिन उनके विचार आज भी जीवित हैं, मार्गदर्शक हैं, प्रेरक हैं।

भारत के वैचारिक स्वाधीनता सेनानी

दत्तोपंत ठेंगड़ी का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने भारत की सामाजिक-आर्थिक सोच को उपनिवेशवादी जंजीरों से मुक्त किया। उन्होंने दिखाया कि भारत की प्रगति विदेशी ‘वादों’ में नहीं, बल्कि अपनी सभ्यता की आत्मा में निहित है। उन्होंने सिद्ध किया कि श्रमिक का सम्मान, किसान की समृद्धि और राष्ट्र की उन्नति तीनों एक ही जैविक दृष्टि के अंग हैं।

आज जब भारत आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है, ठेंगड़ी जी का दर्शन संघर्ष नहीं, सहयोग पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है।

वे हमें सिखाते हैं कि सच्चा राष्ट्रवाद नारे नहीं, बल्कि कार्य, सेवा और समरसता में निहित है। उनका जीवन एक आह्वान है कि भारत को न लाल झंडे की, न सफेद दस्तावेज़ों की, बल्कि भगवा विचार की आवश्यकता है, जो श्रम को पूजा और राष्ट्र को परिवार मानता है। एक ऐसा संगठन जिसने भारत के श्रमिक आंदोलन को “लाल संघर्ष” से निकालकर “राष्ट्रीय सेवा” के मार्ग पर अग्रसर किया।

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