बिहार के चुनावी परिदृश्य में इस बार जो सबसे अप्रत्याशित स्वर गूंजा है, वह किसी नेता का नहीं, बल्कि एक संत का है, शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का। अब तक भाजपा के आलोचक समझे जाने वाले जगद्गुरु ने जब कहा कि पहले गौ हत्या रोको, फिर वोट मिलेगा, तो देश की राजनीति जैसे कुछ क्षणों के लिए ठिठक सी गई। क्योंकि यह सिर्फ एक धार्मिक टिप्पणी नहीं थी, बल्कि उस सांस्कृतिक विमर्श का पुनर्प्रवेश था, जिसे भारत की आधुनिक राजनीति ने या तो भुला दिया था या जानबूझकर हाशिए पर डाल दिया था।
शंकराचार्य की गौ मतदाता संकल्प यात्रा ने बिहार से एक नया नैरेटिव खड़ा कर दिया है। ऐसा नैरेटिव जो न केवल धर्म की बात करता है, बल्कि लोकतंत्र के चरित्र पर भी सवाल उठाता है। वे कह रहे हैं, जिसने गौ माता की रक्षा का संकल्प लिया, उसी को समर्थन मिलेगा। इसका अर्थ यह है कि भारत का पारंपरिक समाज अब केवल वादों, जातियों या चुनावी गठबंधनों से प्रभावित नहीं होगा, बल्कि मूल्य आधारित राजनीति की मांग करेगा।
समझें बयान का मतलब
दिलचस्प बात यह है कि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद वही व्यक्ति हैं जिन्हें भाजपा का विरोधी संत कहा जाता रहा है। अब तक केंद्रीय सत्ता के कई निर्णयों पर उन्होंने खुलकर असहमति जताई है, चाहे वह अयोध्या में भूमि पूजन का तरीका हो या संतों की नियुक्ति को लेकर विवाद। लेकिन इस बार उनकी बात भाजपा के राष्ट्रवादी नैरेटिव को सीधे तौर पर बल देती दिख रही है। क्योंकि जिस मुद्दे को वे उठा रहे हैं, गौ रक्षा, धार्मिक चेतना, भारतीय परंपरा की पुनर्स्थापना वही तो भाजपा के भी वैचारिक मूल हैं।
राजनीतिक रूप से देखें तो बिहार जैसे राज्य में जहां ग्रामीण जीवन और पशुपालन सामाजिक संरचना का अभिन्न हिस्सा हैं, गाय का मुद्दा भावनात्मक के साथ-साथ आर्थिक स्वाबलंबन का प्रतीक भी है। गाय सिर्फ धार्मिक पूज्य नहीं, बल्कि खेती, दूध और जीविकोपार्जन का केंद्र भी है। ऐसे में जब कोई शंकराचार्य यह कहते हैं कि जो गौ माता की हत्या रोकने का संकल्प नहीं लेता, उसे वोट मत दो, तो यह वाक्य सीधे तौर पर बिहार के ग्रामीण मानस में उतर जाता है। शंकराचार्य का यह बयान भाजपा के लिए अप्रत्याशित वरदान जैसा है।
वह पार्टी जो वर्षों से गौ माता, राम मंदिर और भारतीय संस्कृति जैसे प्रतीकों को राष्ट्रवाद से जोड़कर चलती रही है, उसके लिए यह अभियान वैचारिक समर्थन का रूप ले चुका है। भले ही शंकराचार्य ने किसी दल का नाम लेकर समर्थन न किया हो, लेकिन उनका यह संदेश भाजपा की सांस्कृतिक राजनीति के लिए वैचारिक ऑक्सीजन का काम कर रहा है।
उनके इस बयान पर विपक्षी दलों की असहजता भी स्वाभाविक है। कांग्रेस और वाम दलों के लिए यह विषय हमेशा से संवेदनशील रहा है। वे जानते हैं कि जैसे ही गौ चुनावी विमर्श का केंद्र बनती है, हिंदू आस्था और राष्ट्रवाद का नैरेटिव अपने आप सक्रिय हो जाता है। कांग्रेस सेक्युलर संतुलन के नाम पर इस विमर्श से दूर रहती है, जबकि वामपंथी खेमे के लिए गाय हमेशा एक राजनीतिक हथियार रही है, जिसे वे हिंदुत्व की राजनीति का प्रतीक मानते हैं।
लेकिन, अब जबकि एक प्रमुख शंकराचार्य, जो भाजपा के आलोचक भी रहे हैं, वही एजेंडा लेकर मैदान में उतरते हैं, तो यह उस इको-सिस्टम के लिए असहज स्थिति है जिसने हिन्दू धर्म को हमेशा से राजनीति से जोड़ कर देखा और उसे सांप्रदायिकता बताया। हां, ये बात अलग है कि इस्लाम या इसाइयत में उन्हें सर्वधर्म सम्भाव जरूर दिखता है।
इस पूरे घटनाक्रम का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि यह आंदोलन किसी पार्टी की रणनीति नहीं, बल्कि एक सामाजिक पुनर्जागरण जैसा दिखता है। गौ मतदाता संकल्प यात्रा में शामिल ग्रामीणों, संतों और युवाओं की भाषा में एक नैतिक आग्रह झलकता है कि लोकतंत्र केवल वोट नहीं, बल्कि धर्मसम्मत नीति पर टिका होना चाहिए। यानी, जनता अब ऐसे प्रतिनिधि चाहती है जो सिर्फ विकास नहीं, बल्कि संस्कार और नीति के प्रति जवाबदेह हों।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि शंकराचार्य का यह अभियान भाजपा के लिए उतना ही महत्वपूर्ण साबित हो सकता है, जितना 1980–90 के दशक में राम मंदिर आंदोलन था। उस दौर में भी हिंदुत्व केवल धार्मिक भावनाओं का प्रतीक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मसम्मान का प्रश्न बन गया था। आज गौ माता का प्रश्न भी कुछ वैसा ही रूप ले रहा है, जहां यह केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि भारतीयता का प्रतीक बनकर लौट रही है।
भाजपा के नेता इसे खुलकर नहीं कह रहे, लेकिन अंदरूनी हलकों में माना जा रहा है कि शंकराचार्य का यह नैतिक आह्वान भाजपा के राष्ट्रवादी मतदाता वर्ग को और अधिक प्रेरित करेगा। ध्यान रहे कि यह वही वर्ग है जो मानता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आत्मनिर्भर भारत और संस्कृति आधारित राष्ट्रवाद की नीतियां भारत को वैचारिक स्वतंत्रता की ओर ले जा रही हैं। इस संदर्भ में शंकराचार्य की आवाज़ उस अभियान का धार्मिक और आध्यात्मिक समर्थन बनती जा रही है।
क्या बोल रहे कथित बुद्धिजीवि
वाम और उदारवादी जैसे कथित बुद्धिजीवियों ने इस पर अपनी अपेक्षित प्रतिक्रिया भी दे दी है। आखिर वे कैसे मान सकते थे। रवि नायर जैसे ट्विटर एक्टिविस्ट इसे धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण बता रहे हैं, तो कुछ पत्रकार इसे संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर हमला कह रहे हैं। लेकिन, यह भी एक सच्चाई है कि जब अन्य समाज सुधारक या पर्यावरण कार्यकर्ता जलवायु न्याय या महिला अधिकार के नाम पर राजनीतिक चेतना जगाते हैं, तो उन्हें समाज सुधारक कहा जाता है।
फिर जब एक शंकराचार्य गौ रक्षा जैसे सांस्कृतिक विषय को केंद्र में लाते हैं, तो उसे ध्रुवीकरण क्यों कहा जाए?
दरअसल, भारत में धर्म और राजनीति का रिश्ता कभी टकराव का नहीं, बल्कि संवाद का रहा है। महात्मा गांधी से लेकर विनोबा भावे तक, सभी ने राजनीति में धर्म को नैतिक आधार माना है। शंकराचार्य की यह पहल उसी परंपरा की आधुनिक व्याख्या है, जहां धर्म का अर्थ पूजा-पाठ नहीं, बल्कि नीति आधारित शासन से है। जब वे कहते हैं कि गाय को मां घोषित किया जाए, तो यह किसी धर्म विशेष का आग्रह नहीं, बल्कि उस सभ्यता की पुनर्स्मृति है, जो हजारों वर्षों से प्रकृति और पशु के साथ सहअस्तित्व में रही है।
बिहार में इस संदेश का असर भी अब दिखने लगा है। कई ग्रामीण क्षेत्रों में साधु-संतों की सभाएं हो रही हैं और भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ता भी इस भावनात्मक लहर से जुड़ने की कोशिश में हैं। कांग्रेस और वाम के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है, क्योंकि वे इस विमर्श को खारिज भी नहीं कर सकते और अपनाने पर वैचारिक विरोधाभास में फंस जाते हैं।
दरअसल, यही वह क्षण है जब भारतीय राजनीति फिर से अपने सांस्कृतिक स्रोतों की ओर लौटती दिख रही है। भाजपा इस विचारधारा को वर्षों से पोषित करती रही है और अब जब एक प्रतिष्ठित शंकराचार्य उसी दिशा में नैतिक दबाव बना रहे हैं, तो यह न केवल भाजपा की वैचारिक विजय है, बल्कि लोकतंत्र के भीतर संस्कृति और नीति के पुनर्मिलन का संकेत भी है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का यह अभियान आने वाले वर्षों में भारत की राजनीति के नैतिक चरित्र को नई दिशा देगा। भाजपा के लिए यह अप्रत्यक्ष समर्थन ही सही, लेकिन एक ऐसा वैचारिक सहारा तो है हीं, जो धर्म और राष्ट्र को विरोधी नहीं, बल्कि पूरक सिद्ध करती है। आज भारत का मतदाता केवल रोज़गार या सब्सिडी नहीं, बल्कि आस्था और आत्मसम्मान का भी उत्तर खोज रहा है। और जब कोई शंकराचार्य उसे याद दिलाते हैं कि वोट सिर्फ अधिकार नहीं, बल्कि एक धार्मिक दायित्व भी है तो राजनीति का स्वरूप बदल जाता है।
यह वही परिवर्तन है जो एक नए भारत की प्रस्तावना करता है, जहां वोट नीति पर होगा, नीति धर्म पर, और धर्म राष्ट्र के उत्थान पर। यह कहना गलत नहीं होगा कि शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का यह अभियान आने वाले वर्षों में भारत की राजनीति के नैतिक चरित्र को नई दिशा देगा।