जून 2025 में सऊदी अरब ने आधिकारिक रूप से अपने विवादित कफाला प्रणाली को समाप्त करने की घोषणा की। यह एक ऐसा कदम था, जिसे दुनिया ने मानवाधिकारों की ऐतिहासिक जीत कहा। लेकिन इस बदलाव के पीछे छिपा अर्थ केवल प्रशासनिक या कानूनी नहीं है। यह परिवर्तन एक गहरे वैचारिक, सामाजिक और धार्मिक ढांचे की ओर इशारा करता है, जो सदियों से इस्लामी शासन व्यवस्थाओं में किसी न किसी रूप में जीवित रहा है। कफाला प्रणाली, भले ही पारंपरिक अर्थों में गुलामी न रही हो, मगर उसके कई पहलू उसी दिशा में इशारा करते थे। एक ऐसी प्रणाली, जिसमें मानव स्वतंत्रता का विचार नियोक्ता की मर्जी से बंधा हुआ था।
कफाला प्रणाली क्या थी?
‘कफाला’ शब्द अरबी के कफ़ील से आया है, जिसका अर्थ होता है ‘प्रायोजक’ या ‘संरक्षक’। बीसवीं सदी के मध्य में खाड़ी देशों ने जब तेल आधारित औद्योगिकीकरण शुरू किया, तब उन्हें विशाल मात्रा में श्रमिकों की जरूरत थी। इन श्रमिकों के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए जिस तंत्र को अपनाया गया, वही था कफाला प्रणाली।
इस व्यवस्था में हर विदेशी कामगार को एक स्थानीय नागरिक से बांध दिया जाता था। वही नियोक्ता उस प्रवासी श्रमिक का कफील या संरक्षक कहलाता। इस कफील के पास उस व्यक्ति के जीवन पर लगभग पूर्ण नियंत्रण होता था। वह कहां काम करेगा, कहां रहेगा, कब छुट्टी लेगा, और यहां तक कि वह देश छोड़ भी सकेगा या नहीं, यह सब उसी के निर्णय पर निर्भर था।
कफाला व्यवस्था के तहत श्रमिक न तो नौकरी बदल सकता था, न ही बिना अनुमति के देश छोड़ सकता था। अधिकतर नियोक्ता पासपोर्ट तक जब्त कर लेते थे, ताकि श्रमिक किसी भी स्थिति में भाग न सके। किसी शोषण या अन्याय की स्थिति में श्रमिक के पास कोई वास्तविक कानूनी उपाय नहीं था, क्योंकि उसका “प्रायोजक” ही उसका कानूनी प्रतिनिधि भी होता था। इस तरह कफाला एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था बन गई, जिसने लाखों श्रमिकों को आधुनिक युग में भी गुलामी जैसी निर्भरता में ढकेल दिया।
आधुनिक गुलामी की गूंज
संयुक्त राष्ट्र, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) और विभिन्न मानवाधिकार संस्थाओं ने दशकों तक कफाला प्रणाली की निंदा की। कई रिपोर्टों में इसे “आधुनिक गुलामी” (modern-day slavery) की श्रेणी में रखा गया। यह तुलना अतिशयोक्ति नहीं थी।
गुलामी का मूल तत्व है एक मनुष्य का दूसरे पर पूर्ण नियंत्रण। कफाला में भी यही हुआ। प्रवासी श्रमिकों को अपनी मर्जी से नौकरी छोड़ने, वेतन मांगने या देश लौटने की स्वतंत्रता नहीं थी। कई बार नियोक्ता वेतन रोक लेते, उन्हें प्रताड़ित करते और उनके रहने की स्थिति अमानवीय होती। श्रमिक 18-18 घंटे तक काम करते और अगर विरोध करते तो जेल या निर्वासन की धमकी दी जाती। इस प्रकार कफाला प्रणाली, 21वीं सदी में भी, उस मध्यकालीन मानसिकता की याद दिलाती रही, जहां श्रम को संपत्ति और श्रमिक को वस्तु समझा जाता था।
इस्लामी परंपरा और गुलामी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
यह समझने के लिए कि ऐसी व्यवस्थाएं इस्लामी देशों में इतनी लंबी चलीं, हमें इतिहास की ओर देखना होगा, जहां इस्लामी शासन और गुलामी का संबंध न केवल व्यावहारिक बल्कि धार्मिक-सामाजिक भी था।
इस्लाम के आरंभिक काल में, जैसे यहूदी और ईसाई समाजों में था, वैसे ही गुलामी भी एक स्वीकृत संस्था थी। कुरान और हदीस में गुलामी को पूर्णतः निषिद्ध नहीं किया गया; बल्कि उसके लिए आचार-संहिताएँ बनाई गईं—दासों के साथ नरमी बरतने और उन्हें मुक्त करने को पुण्य बताया गया। किंतु उस समय यह मान्यता नहीं बदली कि एक व्यक्ति दूसरे का स्वामी हो सकता है।
इस्लामी साम्राज्यों के विस्तार के साथ यह प्रणाली और जटिल होती गई। युद्धों में बंदी बनाए गए लोग दास बनते, और उनका श्रम आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा बन जाता। कई बार प्रशासन, सेना, और यहां तक कि दरबारों में भी दास वर्ग से लोग ऊंचे पदों तक पहुंचे, परंतु गुलामी की सामाजिक स्वीकार्यता बनी रही।
समय के साथ जैसे-जैसे वैश्विक गुलामी समाप्त होने लगी, वैसे-वैसे इस्लामी दुनिया ने भी इसे औपचारिक रूप से त्यागा। लेकिन उसकी जगह आई ऐसी व्यवस्थाएँ, जिनमें नाम बदल गया—पर नियंत्रण वही रहा। बंधुआ श्रम, सेवक व्यवस्था, और अंततः कफाला प्रणाली—इन सबने गुलामी के विचार को नई कानूनी भाषा में जारी रखा।
कई इस्लामी विद्वानों का तर्क है कि यह सब “धार्मिक आदेशों” का विकृत प्रयोग था। परंतु यह भी सच है कि सामाजिक ढाँचे में सत्ता और अधीनता की अवधारणा इतनी गहरी थी कि वह धर्म के नैतिक मूल्यों पर भारी पड़ती रही।
सऊदी अरब का बदलाव: धर्म नहीं, रणनीति
कफाला प्रणाली का अंत सऊदी अरब में “मानवता” की जीत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, लेकिन इसका असली कारण कहीं अधिक व्यावहारिक और राजनीतिक है। क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की विजन 2030 नीति का उद्देश्य है—सऊदी अर्थव्यवस्था को तेल पर निर्भरता से मुक्त करना और उसे आधुनिक वैश्विक निवेश केंद्र में बदलना। ऐसे में एक ऐसी श्रम व्यवस्था, जिसे दुनिया “गुलामी” कहती है, देश की साख पर कलंक थी।
सऊदी अरब विदेशी निवेशकों और उच्च-स्तरीय पेशेवरों को आकर्षित करना चाहता है। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप श्रम कानून अनिवार्य हैं। साथ ही, अमेरिका और यूरोपीय देशों से बढ़ते दबाव ने भी सऊदी प्रशासन को सुधार की दिशा में कदम उठाने पर मजबूर किया। कतर ने 2022 विश्वकप से पहले इसी तरह के सुधार किए थे, जब विश्व समुदाय ने उसके श्रमिक अधिकारों पर सवाल उठाए। सऊदी अरब ने अब वही राह पकड़ी—पर अधिक व्यापक पैमाने पर।
श्रमिकों के लिए नया अध्याय
कफाला की समाप्ति का अर्थ है, अब विदेशी श्रमिकों को नौकरी बदलने या देश छोड़ने के लिए नियोक्ता की अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी। वे अनुबंध आधारित व्यवस्था में आएंगे, जिसमें वेतन, अवकाश और कानूनी अधिकार स्पष्ट होंगे। यह सुधार सऊदी अरब में कार्यरत लगभग 1.3 करोड़ प्रवासी श्रमिकों के लिए जीवन बदल देने वाला है। इनमें अधिकांश भारत, बांग्लादेश, नेपाल और फिलीपींस जैसे देशों से हैं, जो दशकों से शोषण के इस चक्रव्यूह में फंसे रहे।
नई व्यवस्था में न केवल उनके अधिकारों की कानूनी मान्यता होगी, बल्कि उन्हें श्रम न्यायालयों तक पहुंच का अधिकार भी मिलेगा। यह उन तमाम कहानियों के लिए राहत है, जिनमें श्रमिक महीनों की तनख्वाह के बिना लौटते थे या अमानवीय परिस्थितियों में मौत के शिकार होते थे।
सत्ता के ढांचे से मुक्ति
कफाला का अंत केवल श्रम नीति का सुधार नहीं, बल्कि उस सामाजिक मनोविज्ञान के विरुद्ध भी एक संकेत है जिसने सदियों से मानव-मानव के बीच स्वामित्व बनाम अधीनता का समीकरण कायम रखा।
सऊदी अरब में धर्म, कबीलाई परंपरा और सत्ता की संरचना हमेशा एक दूसरे से गुँथी रही है। कफाला जैसी प्रणाली इसलिए भी चलती रही क्योंकि वह इस सामाजिक व्यवस्था का विस्तार थी—जहाँ हर किसी का एक कफील होता है, चाहे वह श्रमिक हो या नागरिक। अब इस ढांचे के टूटने का अर्थ है कि सऊदी अरब आधुनिकता की उस दहलीज पर खड़ा है, जहाँ राज्य और नागरिक के संबंध समानता के सिद्धांत पर आधारित होंगे, न कि संरक्षण या दया पर।
ऐतिहासिक उत्तरदायित्व और भविष्य
गुलामी और उससे उपजी व्यवस्थाएं, चाहे किसी धर्म में हों या किसी सभ्यता में, हमेशा अपनी नैतिक सीमा तक पहुंचने के बाद ढह जाती हैं। कफाला प्रणाली का अंत भी उसी क्रम का हिस्सा है। यह बदलाव इस बात की याद दिलाता है कि किसी भी व्यवस्था को—चाहे वह धार्मिक, आर्थिक या सांस्कृतिक हो—अगर वह मनुष्य की स्वतंत्रता और गरिमा के विरुद्ध है, तो वह टिक नहीं सकती।
सऊदी अरब ने कफाला को खत्म कर एक आवश्यक कदम तो उठाया है, परंतु असली चुनौती अब शुरू होती है—क्या यह बदलाव कानून की किताबों से निकलकर जीवन की सच्चाई में भी उतर पाएगा? क्या वही समाज जो सदियों से सत्ता, धर्म और परंपरा के नाम पर आज्ञाकारिता को आदर्श मानता रहा है, अब स्वतंत्रता को आत्मसात कर सकेगा?
नियंत्रण की विरासत से मुक्ति की ओर
कफाला प्रणाली का अंत केवल एक प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत परिवर्तन है। यह उस विचार को चुनौती देता है कि मनुष्य पर नियंत्रण करना किसी की “ईश्वरीय जिम्मेदारी” या “सामाजिक अधिकार” है। यह सुधार एक ऐसे क्षेत्र में हुआ है, जिसने कभी धार्मिक व्याख्याओं के माध्यम से मानव नियंत्रण को वैध ठहराया था। इसीलिए इसका महत्व केवल सऊदी अरब तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे इस्लामी जगत के लिए प्रतीकात्मक है।
अब सवाल यह नहीं कि कफाला खत्म हुआ या नहीं, बल्कि यह है कि क्या उस सोच का अंत हुआ, जिसने इसे संभव बनाया? अगर इस बदलाव से यह संदेश निकलता है कि अब इंसान की गरिमा, समानता और न्याय ही किसी भी समाज की स्थायी नींव हैं, तो यह वास्तव में उस “गुलामी की परंपरा” का समापन होगा, जिसने सदियों से मनुष्य की आत्मा को जकड़ रखा था।