भारत की संत-महात्माओं की श्रृंखला में आज हम बात कर रहे हैं दक्षिण भारत की एक अनोखी भक्त की, जिनकी भक्ति ने भगवान को भी उनका बना दिया। कहते हैं, जब प्रेम निःस्वार्थ होता है, तो वह भक्ति बन जाता है। और यही हुआ आण्डाल रंगनायकी के साथ।
पुराने समय की बात है। दक्षिण भारत की पवित्र भूमि पर, कावेरी नदी के किनारे बसे एक गाँव में विष्णु के महान भक्त विष्णुचित्त (पेरि आलवार) रहते थे। एक दिन उन्होंने अपने बगीचे में फूल चुनते समय एक नवजात बच्ची को देखा। बच्ची दिव्य तेज से चमक रही थी। भगवान की प्रेरणा से उन्होंने उसे अपनी बेटी बना लिया और उसका नाम रखा कोदई जिसका अर्थ है फूलों की माला।
छोटी उम्र से ही भक्ति में लीन
कोदई बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्ति में लीन थी। वह अपने पिता के साथ मंदिर की माला बनाती और खुद से यह पूछती “क्या यह भगवान को पसंद आएगी?” वह माला पहले खुद पहनती और फिर भगवान को अर्पण करती।
धीरे-धीरे कोदई ने भगवान श्रीरंगनाथ (विष्णु) को अपना प्रियतम मान लिया और कहा “मेरे लिए वही मेरे जीवनसाथी हैं।” उसका नाम अब ‘आण्डाल’ पड़ गया, जिसका अर्थ है, जो भगवान को जीत ले।
एक दिन मंदिर के पुजारी ने देखा कि भगवान की माला पहले किसी ने पहनी थी। पेरि आलवार को जब पता चला कि वह आण्डाल थी, तो उन्होंने उसे रोका। लेकिन उसी रात भगवान श्रीरंगनाथ ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा “मुझे वही माला प्रिय है जिसे आण्डाल ने पहना हो।”
विरह की पीड़ा और ‘तिरुप्पावै’
आण्डाल दिन-रात अपने प्रिय श्रीरंगनाथ के मिलने की आस में भक्ति में डूबी रहती थी। उसने अपने प्रेम को गीतों के रूप में लिखा, जो आज भी ‘तिरुप्पावै’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये रचनाएं आज भी दक्षिण भारत के मंदिरों और घरों में रोज़ गाई जाती हैं।
एक दिन भगवान श्रीरंगनाथ ने मंदिर के पुजारियों को स्वप्न में कहा “आण्डाल मेरी प्राणेश्वरी है, उससे विवाह कराओ।” इसके बाद भव्य आयोजन हुआ। आण्डाल को दुल्हन की तरह सजाकर श्रीरंगनाथ मंदिर लाया गया।
देह से आत्मा का मिलन
जैसे ही आण्डाल मंदिर पहुँची, उसने भगवान के चरणों में सिर झुकाया और उसी क्षण उसकी देह विलीन हो गई। वह भगवान में समा गई। यह कोई अंत नहीं, बल्कि भक्ति की पराकाष्ठा थी। प्रेम और ईश्वर का एकाकार होना।
दक्षिण भारत के मंदिरों में आज भी आण्डाल विवाहोत्सव बड़े उत्साह से मनाया जाता है। भक्त मानते हैं कि जैसे आण्डाल ने भगवान को अपना सब कुछ मान लिया, वैसे ही हमें भी सच्चे प्रेम और भक्ति से भगवान को अपनाना चाहिए।
भक्ति की सबसे मधुर रचनाएँ
आण्डाल की रचनाएं ‘तिरुप्पावै’ आज भी भक्ति साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। हर आरती, मंदिर और भजन सभा में ये गूँजती हैं। आण्डाल की कथा हमें सिखाती है कि भक्ति केवल पूजा-पाठ नहीं है। यह एक ऐसा प्रेम है जिसमें कोई शर्त न हो, कोई स्वार्थ न हो। भक्ति वही है जो केवल समर्पण पर आधारित हो